रविवार, मई 24, 2009

कि अब ज़िन्दगी फिसल गई

बहुत चाह के भी आज मेरे मन में उमड़ रहे भाव शब्दों की शक्ल लेने से इंकार कर रहे है, लेकिन मेरे अंदर का कवि मन मुझे कह रहा है रचनात्मकता से नाता तोड़ के तू जी नहीं पाएगी। इसलिए जो भी जैसा भी बन पड़े लिखने की कोशिश तो कर ॥ बस फिर यहीं मेरी...



क्या कहें की शब्द कुछ थम से गए है अब॥
आस ही नहीं रही कि अब ज़िन्दगी फिसल गई.
पात-पात सा झर गया जीवन से मधुमास..
स्वप्न ही नहीं, नींद भी हुई उदास॥
हम हैं क्या, क्यों है हम, अहसास भी ये है कम॥
मोड़ पर खड़े रहे हम और राह बढ़ गई...
आंधियों के गुबार में ज़िन्दगी निकल गई॥
शाम हो ..सहर हो..कि अब नहीं रहा असर॥
ज़िन्दागानी के इस सफर में मंजिलें है खो गई॥
सिलसिला ये यूं चला की हाय उम्र ढल गई...
जब तलक उठे हम की रूह भी निकल गई॥
मीत अश्क बन गए और हम जर्द हो गए।