मंगलवार, सितंबर 07, 2010

यादों का अंतहीन कर्फ्यू..

ज़िन्दगानी के शहर में यादों का अंतहीन कर्फ्यू...
सांसों की राहों पर पहरे...धड़कनों की गलियों में अंधेरे...
दिल के घर से अरमानों का बाहर निकलना...उस पर यादों की संगीनों का चलना...
अरमानों की मौत का मंजर...उसके जनाजे में उठे कशमशों के खंजर...
दिल-ए-घर की चारदीवारी में अहसासों का जलना...जज्बातों का मरना...
दिल के दालानों में हंसी का मातम... खुशी का सिसकना...
आंखों के दरवाजों पर... कसक की चिलमन...ख्वाबों का बिखरना...
कानों की सांकल पर अजनबी आहट का खटकना...
ज़िन्दगानी के शहर में यादों का अंतहीन कर्फ्यू...

मंगलवार, अगस्त 31, 2010

यहां शऱीर तय करता है व्यक्तित्व के मापदंड

 अनुष्का और निरूपमा दोनों ही महिलाएं है और दोनों ही अनब्याही मां। इनके अलावा एक और साम्यता दोनों के जीवन के महत्वपूर्ण खुलासे को लेकर भी है जो अभी दो चार दिन पहले ही हुए है। अनुष्का शंकर  ने ऐलान किया कि वह मां बनने वाली है और एम्स ने निरुपमा के पोस्टर्माटम की रिपोर्ट प्रकाशित की है, जिसमें कहा गया है कि निरूपमा की मौत का कारण आत्महत्या है। दोनों में सिर्फ अंतर इतना है कि जहां अनुष्का खुलेआम खुशी से अपने प्रसव काल की घोषणा कर सकती है,वहीं दुनिया की वाहवाही और शुभकामनाएं भी उनके साथ होती है। अनुष्का का परिवार उनकी इस खुशी में उनके साथ कदम से कदम मिलाता है।
उधर दूसरी तरफ निरूपमा की पोस्टमार्टम रिपोर्ट उनके परिवार के दुख,अपमान और क्षोभ की वजह बन जाती है। ये कैसी विडम्बना है कि एक ही समाज और संस्कृति से संबंध रखने वाली स्त्रियों के लिए रास्ते और समाज के कायदे अलग-अलग क्यों...क्यों एक आम अनब्याही मां भी अनुष्का की तरह ही खुश होने का अधिकार पा सकती। क्या ये समाज का दोगलापन नहीं है कि एक अनब्याही मां अपनी इस स्थिति को खुशी से बयां कर सकती है और दूसरी उसी स्थिति के लिए आत्महत्या का रास्ता। निरुपमा के कोख में भी जीवन का एक अंकुर फूट रहा था, लेकिन अपने गर्भ में पल रहे इस नन्हें जीव ने उसे अवसाद और निराशा से भर दिया। अपने कानों में मां  सुनने का वह पवित्र और ईश्वरीय अहसास जिसका हर स्त्री अपने जीवन में बड़ी बेसब्री से इंतजार करती है, लेकिन क्यों यह अहसास भी निरुपमा के अंदर जीवन का मोह जगाने में असफल रहा। निरूपमा कोई अनपढ़ और असर्मथ लड़की नहीं थी, बल्कि वह तो अपने को सुधारों और नई सोच का पुरोधा समझने वाले मीडिया जगत का ही एक हिस्सा थी। उसमें इतनी काबिलियत थी कि वह ताउम्र अपने पैरों पर खड़ी रह सके, लेकिन ऐसा क्या था कि इतनी समर्थ होते हुए ज़िन्दगी जीने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। निरुपमा जैसी जाने कितनी लड़कियां इस मनोस्थिति और इस दौर से गुजरती होंगी और निश्चय ही उनके सामने आत्महत्या ही सबसे सरल विकल्प होता होगा, क्योंकि हमारे समाज ने इससे अच्छा विकल्प उनके लिए छोड़ा ही नहीं। यह वही समाज है जहां औरत को मां बनने का अधिकार तो दिया गया है, लेकिन केवल एक स्त्री और इंसान के रूप में नहीं किसी की पत्नी के रूप में। ऐसा समाज और देश जहां कि न्यायपालिका( लगभग एक महीने पहले सुप्रीम कोर्ट ने एक केस के संदर्भ में )निर्णय देती है कि किसी भी स्त्री को मां बनने का पूरा अधिकार है और उससे उसका ये अधिकार कोई नहीं छीन सकता। जो भी स्त्री को उसके इस अधिकार से वंचित करता है या उसका हनन करता है, उसका अपराध अक्षम्य श्रेणी में आता है।
लेकिन हमारा समाज ऐसा अक्षम्य अपराध बार-बार करता है, लेकिन दंड तो दूर हम में से कोई प्रतिरोध करना तो दूर चूं तक नहीं करता। परिणामस्वरूप आए दिन हजारों निरूपमायें आत्महत्या करने को मजबूर होती है, क्योंकि चंहुमुखी विकास और सभ्यता का दावे करने वाला हमारे समाज की सोच में कोई परिवर्तन नहीं आया है और ना ही आने की उम्मीद है। आज भी औरत उसके लिए इंसान नहीं बच्चा पैदा करने की एक मशीन है... सिर्फ और सिर्फ मां नहीं।
 इसके लिए जिम्मेदार है हमारा समाज और संस्कृति, जिसके कुछ अनसुलझे और अनसमझे रीति-रिवाज और कायदे-कानून हम सदियों से ढोते चले आ रहे है। यहां महाभारत की कुंती को बिनब्याही मां बनने पर कर्ण को त्यागना पड़ता है, लेकिन यहीं कुंती विवाह के बाद पांडु के संसर्ग के बिना ही किसी भी देवता के समागम से संतान पैदा करने का अधिकार पा लेती है। द्रौपदी पांच पतियों के साथ रह सकती है, लेकिन सीता को अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ता है। राजे-महाराजे अपने हमाम की कई औरतों से संतानोत्पति कर सकते है, लेकिन कोई साम्राज्ञी किसी गैर से प्रेम संबंध बना ले तो उसे मौत के घाट उतार दिया जाता था। इतिहास गवाह है कि हमारा समाज सदियों से इसी लीक पर चल रहा है जहां कभी औरत को इंसान के तौर पर देखने की पंरपरा ही नहीं रही। औरत का बिन ब्याही मां बनना घोर पाप है और वह व्याभिचार की सबसे बड़ी मूरत। किसी भी शारीरिक स्थिति  या मापदंडों से ये कैसे साबित होता है कि उसका व्यक्तित्व कलुषित है। अगर शारीरिक स्थिति ही किसी के व्यक्तित्व के चरित्र का आकलन करने का सटीक मापदंड है तो पुरुषों के परिपेक्ष्य में इसे क्यों नहीं लागू किया जाता। समाज में मां बनने का ये खूबसूरत अहसास और मोड़ किसी स्त्री के लिए तभी जायज और पवित्र है। जब कोई उस पर विवाह का ठप्पा लगा दे, अन्यथा अनब्याही मां समाज के लिए एक तुच्छ और पापी इंसान है, जो इस अपराध से तभी मुक्ति पा सकती है जब वह अपनी इहलीला समाप्त कर लें, क्योंकि वह केवल एक मां बन कर समाज में सिर उठा के नहीं जी सकती। अनब्याही औरत ही क्यों भूले से कभी कोई मां अपने बच्चे के लिए जी भी लेती है तो हमारी व्यवस्था उसकी संतान का जीना हराम कर देती है। अनब्याही मां की संतान से आदर और सम्मान के सभी अधिकार स्वतः छीन जाते है, क्योंकि वह केवल अपनी मां के नाम पर समाज में सम्मान नहीं पा सकता। हमारे समाज में अनब्याही मां आत्महत्या के अलावा किसी और रास्ते की तरफ नहीं जा सकती, लेकिन आज तक ऐसा एक भी मामला प्रकाश में नहीं आया, जब कोई अनब्याहा बाप  शर्मिंदा हो या उसने मौत को गले लगाया हो। यदि समाज और संस्कृति की नजर से विवाह से पहले स्त्री-पुरूष के लिए शारीरिक संबंध वर्जित है तो इसका दंड केवल औरत क्यों भुगते। क्षणिक आवेश में, किसी के विश्वास पर या धोखे से समाज की इच्छा के विरूद्ध स्त्री-पुरूष में शारीरिक संबंध बनते है तो क्या स्त्री ही इसके लिए दोषी है, संबंध का सहोदर पुरूष क्यों साफ बेदाग बच निकलता है। इस बात का जवाब हमारे- तुम्हारे समाज के पास ना कभी था और ना ही होगा। हकीकत तो ये है कि बिनब्याही मां और एक स्त्री को प्रताड़ित करने का अधिकार गंवाना समाज को   गवारा नहीं है,क्योंकि औरत को केवल मां के रूप में स्वीकार करने की उसकी हिम्मत ही नहीं है। यहां तो हालत ये है कि किसी अनब्याही मां  बलात्कार की शिकार युवती से विवाह या उसे अपनाने की बात तो दूर हम अपने भाई-बंधुओं के विवाह के लिए कुंवारी कन्या की तलाश में हाथ-पैर मारते फिरते हैं। यहां भी इंसानियत पर शरीर की पवित्रता की मानसिकता हावी है। देखा जाए तो शरीर के अंदर ही इतनी गंदगी भरी है, जिसका हम रोजाना उत्सर्जन ना करे तो शऱीर सड़ जाए। पवित्रता तो आत्मा की, विचारों की, मन की महत्वपूर्ण है, लेकिन यहां तो सब-कुछ शरीर आधारित है। यहां समाज महिलाओं और युवतियों के लिए समाज सभी मापदंड शरीर से शुरू करता है और वहीं से खत्म। गोया  कि स्त्री का शरीर कोई मशीन हो, जो एक बार बिगड़ गई या जिसका प्रयोग बलपूर्वक किया गया हो या उसकी स्वेच्छा से, तो उसे कोई दूसरा लेने करने से भी परहेज करेगा। ऐसा नहीं होता तो बलात्कार की शिकार कोई भी स्त्री शर्म महसूस नहीं करती, आत्महत्या की नहीं सोचती। जिस दिन समाज में इतनी शक्ति या हिम्मत आ जाएगी जब बलात्कार पीड़ित युवती बिना किसी हिचक और शर्म के उसका नाम समाज को बता सकेगी और बलात्कारी को इस कृत्य के लिए  उस युवती से बिना किसी रिश्ते में बंधे ताउम्र के लिए उसका हर खर्चा और जिम्मेदारी उठानी होगी। जब कोई अनब्याही मां उसे गर्भवती बनाने में सहायक पुरूष या साथी का नाम बिना झिझक खुलेआम बता पाएंगी और उस पुरूष के नाम के बिना ही अपने बच्चे के पालने-पोसने की आजादी हासिल कर पाएगी। तब शायद कोई निरूपमा आत्महत्या नहीं करेगी और ना ही कोई स्त्री बलात्कार का शिकार बनेगी।    
  

बुधवार, अगस्त 25, 2010

यादों के झरोखों में

यादों के झरोखों में क्यूं पुरवाई चली आई, दिल की उदासी हाय क्यों चेहरे पर झलक आई।
तकदीर बनने से पहले ही हाथों की रेखाएं सिमट आई, अंदाज से पहले ही क्यों फितरत चली आई।
मुलाकातों से पहले ही  क्यूं तन्हाई चली आई, मुव्वल से पहले ही हाय रूसवाई चली आई।
बयां होने से पहले ही लवों पे सिलवटें उमड़ आई,वफा के पहले ही क्यूं बेवफाई चली आई।
बहार से   पहले ही क्यूं फिज़ा चली आई, खुशी के पहले ही हाय अश्क छलक आए।
साए के साथ देने से पहले ही क्यूं अंधेरा चला आया, मिलन से पहले ही हाय जुदाई चली आई।
यादों के झरोखों में क्यूं पुरवाई चली आई।

दिन कुछ ऐसे गुजरे

रिश्तों के भंवर में ज़िन्दगी यूं उलझ गई की कि मौत से पहले ही ज़िन्दगी ठहर गई।
अहसास से पहले ही रूह कुछ   यूं मर गई कि सांस से पहले ही धड़कनें बिखर गई।
बेबसी के आलम में ख्वाब यूं सोए की कि सुबह से पहले ही रात गुजर गई।
सफर से पहले ही कदम कुछ यूं बहके  कि की मंजिल से पहले ही राह मुड़ गई।
जर्द यूं हुआ जर्रा-जर्रा वज़ूद का कि सर्द कर गया ज़िन्दगानी-ए- लम्हा।
दिन कुछ ऐसे गुजरे कि की उम्र से पहले ही हाय ज़िन्दगी निकल गई।

समाज की हर शाख पर वीएन राय

"महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (मगांअंहिंवि) के कुलपति विभूति नारायण राय ने महिला हिंदी उपन्यासकारों पर दिये गये अपने घृणित बयान के लिए खेद व्यक्त करते हुए माफी मांग ली है। भारतीय प्रशासनिक सेवा के भूतपूर्व अधिकारी रहे राय ने नया ज्ञानोदय पत्रिका (भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित) को दिये अपने साक्षात्कार में कहा था कि पिछले कुछ वर्षों से नारीवादी विमर्श मुख्यतः देह तक केंद्रित हो गया है और कई लेखिकाओं में यह प्रमाणित करने की होड़ लगी है उनमें से कौन सबसे बड़ी छिनाल (व्यभिचारी महिला, वेश्या) हैं। एक मशहूर हिंदी लेखिका की आत्मकथा का हवाला देते हुए राय ने अतुलनीय ढंग से कहा कि अति-प्रचारित लेखन को असल में कितनी बिस्तरों पर कितनी बार का दर्जा दे देना चाहिए।"
क्या माफी मांग लेने भर से और वीएन राय को दंडित कर देने से समाज की मानसिकता में बदलाव संभव है...नहीं बिल्कुल नहीं क्योंकि यहां तो हर गली-नुक्कड़ पर वीएन राय जैसे शख्स मौजूद हैऔर रहेंगे भी ऐसे में केवल एक को सजा दिलाकर हम अपनी जिम्मेदारी से कन्नी नहीं काट सकते। यहां तो हाल हर शाख पे उल्लू बैठा है अंजाम -- गुलिस्ता क्या होगा जैसा है। वीएन राय तो केवल एक अदना सा उदाहरण ही है जिसने प्रकृति की इस अनुपम रचना पर ( माफ किजिएगा अनुपम यहां महिलाओं को महिमामंडित करने के लिए नहीं लिखा है, यह शब्द एक नए जीवन को जन्म देने वाली जननि के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है।अमर्यादित टिप्पणी की है ...समाज में ऐसे कितने ही वीएन राय मौजूद है जो रोजाना अपने मुखारबिंदु से इससे भी बड़े अपशब्द और गालियां देकर इस अनुपम रचना का अपमान करते है, उसे नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ते, ऐसे में सवाल ये उठता है कि सदियों से जो नारी, महिला या अबला समाज में इन उपनामों से जी रही है, क्या वास्तव में इस विडम्बना से अलग हो पाएगी कि वह एक स्त्री है और उसे अपमानित करने का सभी को जन्मसिद्ध अधिकार है, विशेषतः अपनी शारीरिक संरचना को लेकर। 
कोई भी मुद्दा क्यों ना हो किसी भी तरह से नारी को प्रताड़ित करना हो तो उसके शरीर या उसके शारीरिक संबंधों को लेकर कोई अपशब्द कह दो, फिर क्या है... ये उसके अर्न्तमन को बेधने का सबसे कारगर हथियार और उपाय दोनों ही है। गली-मौहल्लों के नुक्कड़ों से लेकर संभ्रात स्तर तक नारी को प्रताड़ित और शोषित करना हो तो उसकी दैहिक संरचना पर ही कई उपसर्ग और प्रत्यय लगाकर निशाना साधा जाता है। यदि किसी पुरूष को अपने साथी पुरूष को घोर अपमानित करना हो तो भी बात मां..बहन पर आकर टिक जाती है। अनपढ़ से लेकर शिक्षित इंसान तक नारी के प्रति इन अपशब्दों के इस्तेमाल कर अपने को बड़ा योद्धा समझता है। अंतर केवल इतना है कि कई लोग खुलेआम इन शब्दों का उच्चारण करते है तो कई लोग दबे मुंह। मैं इन सभी लोगों से पूछना चाहती हूं कि  क्या उन्होंने कभी मां- बहन की गालियां दे रहे किसी शख्स को दुत्कारा या इसका प्रतिरोध
किया, नहीं शायद किसी ने नहीं, जब-तक बात उनके गिरेंबा तक ना पहुंच गई हो। अधिकांश लोग महिलाओं के प्रति प्रयोग किए गए इन शब्दों को सुनकर या तो खींसे निपोरते है या मन ही मन अपनी यौन कुंठाओं को शांत करते है। 
किसी भी महिला को  छिनाल, वेश्या, चरित्रहीन और बदचलन कहने का हक किसने तुम्हें दे दिया। यदि कोई स्त्री वेश्या है तो उसे इस हद तक आने को मजबूर किसने किया इसी पुरूष मानसिकता ने। समाज और पुरूष वर्ग क्या एक बार भी नहीं सोचता कि उन्होंने भी किसी महिला की कोख से ही जन्म लिया है, जिसे वो गर्व से मां कहते है। तुम अपनी मां की इज्जत करते हो तो किसी भी महिला को अपमानित कर सकते हो क्या...लेकिन मां की इज्जत करने का भी ये ढो़ग ही है...क्योंकि मां की इज्जत करना मतलब संपूर्ण नारी जाति का सम्मान करना है...लेकिन समाज की मानसिकता कहो या पुरूष का अंह आजतक ऐसा हो नहीं पाया है, इसलिए नारी को शारीरिक संरचना का प्रकृति प्रदत्त यह उपहार अभिशाप ही लगता है। 
कोई महिला सफलता के उच्चतम शिखर पर पहुंच जाए या फिर किसी क्षेत्र में कुछ अच्छा कर जाए तो उसके सहयोगी यह कहने से भी बाज नहीं आते कि फलां के साथ बिस्तर पर गई होगी या फिर छिनाल, बदचलन कई तरह की उपमाओं उसे नवाज डालते है। चाहे वह  महिला हो या पुरूष उसका किसी के साथ भी शारीरिक, मानसिक या आत्मीय किसी भी तरह का संबंध उसका नितांत निजी फैसला है, उस संबंध पर  किसी को भी अभ्रद टिप्पणी करने का क्या अधिकार है, लेकिन ऐसा हो  नहीं पाता पुरूषों की बनिस्पत महिलाएं ही अधिकांश इस दंश को झेलती है। समाज और पुरूष मानसिकता को कौन समझाए यदि बिस्तर पर जाने या शारीरिक संबंध बनाने से ही महिलाओं को सबकुछ मिल जाता तो फिर दुनिया का कोई भी पुरूष किसी महिला से तलाक नहीं लेता, विवाहोत्तर संबंधों का कोई सवाल ही नहीं पैदा होता, किसी महिला को वेश्यावृति नहीं करनी पड़ती, कोई भी महिला बलात्कार का शिकार नहीं होती। शायद इस बात का जवाब हमारे समाज के पास कभी होगा ही नहीं, क्योंकि नारी को समाज अभी तक इंसानों की श्रेणी में शामिल ही नहीं कर पाया है, लेकिन क्या करें प्रकृति ने महिला को भी एक इंसान ही बनाया है और हर इंसान की तरह उसकी भी जैविक और मानसिक आवश्यकताएं है, तो क्यों हर बार उसे ही प्रताड़ित किया जाता है। कार्यस्थलों से लेकर घरों तक वह ही सबकी नजरों में क्यों दोषी हैं। जब पुरूष खुलेआम अपनी बिस्तर की बातों को या फिर दिअर्थी संवादों द्वारा अपनी नैसर्गिक आवश्यकताओं का बखान करने का साहस करता है तो क्यों एक लेखिका ऐसा नहीं कर सकती। क्या नैसर्गिक जरूरतों को केवल पुरूष ही बखान कर सकता है एक नारी नहीं, क्या पुरूष ही  इंसान है नारी नहीं, क्या नारी को केवल उपभोग की वस्तु की तरह ही देखा जाएगा। क्यों ये समाज आज तक एक नारी को उसकी देह से ऊपर उठकर केवल इंसान के रूप में नहीं देख पाया है। वीएन राय को सजा देने से ना स्थिति सुधरनी है और ना सुधरेगी। नारी को समाज में वास्तविक सम्मान और बराबर का हक तभी मिल पाएगा, जब समाज का सोच रूपी वीएन राय फांसी पर चढ़ जाएगा। फिर ना कोई नारी छिनाल रहेगी और ना बदचलन। मारना ही है तो अपने मन के अंदर सदियों से घर जमाए वीएन राय को मार डालो, फिर जाकर नारी को केवल इंसान के रूप में देखने की सोच सार्थक हो पाएगी।

शनिवार, अगस्त 21, 2010

सेवा का मेवा चाहिए

हम जनता के सेवक है हमे सेवा का मेवा चाहिए, हमारा मेवा नहीं मिला तो हम संसद क्या देश के विकास को भी स्थगित कर सकते है। सबसे बड़े लोकतंत्र में जनता की सेवा के नाम पर देश की कार्यपालिका और व्यवस्थापिका में पैठ बनाने वाले सांसद अगर ऐसी सोच रखेंगे तो एक आम आदमी से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वो देश के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह ईमानदारी से करेंगा।
पूरे देश में जहां बाढ़, सूखा और प्राकृतिक आपदाओं से जनता त्राहि-त्राहि कर रही है, वहीं ये जनता के सेवक अपनी सेलरी को बढ़ाने के लिए संसद जैसे महत्वपूर्ण स्थान को अपने स्वार्थ का अखाड़ा बनाने में माहिर है। संसद के समय की बरबादी करके ये सांसद जनता के पैसों को ही उड़ा रहे और दम भर रहे है कि हम जनप्रतिनिधि है और हमें उचित मानदेय मिलना ही चाहिए। ये सो कॉलड जनप्रतिनिधि अपनी सेलरी को बढ़ाने के लिए तो ऐसे एकजुट हो जाते है कि कैबिनेट से अपनी बात तक मनवा डालते है,लेकिन देश में शिक्षा, स्वास्थ्य, गरीबी जैसे ऐसे कई मुद्दे है जो इनसे ऐसी ही एकजुटता चाहते है, लेकिन वहां ये अलग -अलग राजनीतिक पार्टियों के एंजेट बन जाते है। जब देश में मंहगाई की स्थिति किसी से भी छुपी नहीं है, जब कॉमनवेल्थ गेम्स देश की नाक का सवाल बने हुए हो, जब लेह में प्राकृतिक आपादा से कई लोग तबाही का शिकार हुए हो, जब देश का एक पूरा राज्य सूखाग्रस्त घोषित कर दिया गया हो, जब देश के पूर्वी राज्यों के किसान राष्ट्रपति को पत्र लिखकर इच्छा मृत्यु की इजाजत मांग रहे हो,तब जनता के ये सेवक तीन गुना सेलरी ( 16,000 हजार रुपए से सीधे 50,000)बढ़ाए जाने पर भी इस बात पर आमादा हो कि उनकी सेलरी सरकारी सचिव के बराबर की होनी चाहिए, तो इसे देश और आम जनता का दुर्भाग्य ही कह सकते है। ये सांसद 16 हजार रुपए की सेलरी को कम आंकते है, लेकिन क्या इस सेलरी के साथ मिलने वाले अन्य लाभों,जिनमें मुफ्त फोन सेवा, मुफ्त बिजली,पानी और वाहनों आदि की सुविधा शामिल है, वो क्यों भूल जाते है। ईमानदारी से कहा जाए तो देश की जो स्थिति है उसमें इन सांसदों की 16 हजार रुपए की ये सेलरी भी देश के वित्त मंत्रालय पर आर्थिक बोझ ही है। लाल बत्तियों में घूम-घूमकर केंद्र से राज्य और राज्य से केंद्र के चक्कर के अलावा शायद ही ये कभी काम का मूड बनाते हो। बार-बार ये सांसद विदेशों के सांसदों की तुलना में अपनी सेलरी कम होने का रोना रोते रहते है, लेकिन सिंगापुर, जापान, इटली और यहां तक की यूएस की तुलना में सारी सुविधाएं और सेलरी मिलाकर ये सांसद पालने देश की जनता को काफी मंहगे पड़ते है। फिऱ इन सांसदों और इनके दलों द्वारा किसी भी मुद्दे को लेकर बवाल मचाने में देश का जो नुकसान होता है सो अलग हाल ही में मंहगाई के मुद्दे पर एकजुटता दिखाकर ये जनप्रतिनिधि एक ही दिन में देश को 20 करोड़ रुपए की चपत लगा चुके है। जब देश का आम इंसान भूखे मर रहा हो और गोदामों में अनाज सड़ रहा हो तब भी क्या इनकी विवेकशीलता ऐसे मुद्दे को संसद के विचार पटल पर जोर-शोर से लाने की कोशिश नहीं कर सकती। नहीं लेकिन ऐसा नहीं है यहां तो हाल ये है कि कृषि मंत्री शरद पवार कह दे कि सुप्रीम कोर्ट ने अनाज को बांटने के लिए कोई निर्णय नहीं दिया है और हमारे लिए अनाज बांटना संभव नहीं है, तब क्यों नहीं ये जनता के हितैषी कैबिनेट से गरीबों में अनाज बंटवाने की बात पूरी ताकत के साथ मनवाने को एकजुट होते। नहीं ये ऐसा कतई नहीं करेंगे, क्योंकि हमारे देश में अनाज सड़ तो सकता है, लेकिन भूखे की भूख नहीं मिटा सकता। ये भूखे लोग कोई आंदोलन करके बैठ जाए तो अपने नंबर बनाने के लिए ये सांसद और नेता ही आंदोलन के अगुवा बनने की होड़ लगाने लगते है, लेकिन भूख के भोजन मिले ना मिले इन्हें क्या फर्क पड़ता है। कहा जाता है चैरिटी घर से शुरू होती है, लेकिन हमारे देश का तो हाल ये है पास में नहीं दाने अम्मा चली भुनाने। हमारे देश के विदेश मंत्री कृष्णा जी पाकिस्तान की लाख मना करने पर वहां 24 करोड़ रुपए की सहायता भेजने के कृतसंकल्प नजर आते है, लेकिन अपने ही देश में भूखे मरते लोग उन्हें नहीं दिखाई पड़ते है। मानवीय दृष्टि से पाकिस्तान की मदद करना हमारा कर्तव्य बनता है, लेकिन ऐसी स्थिति में नहीं जब अपनी ही डूबती नैया को सहारे की जरूरत हो। इतना ही मानवीय बनना है तो देश के मानवों के लिए तो संवेदनशील और मानवीय बनकर दिखाओं तो कुछ बात है। इस मुद्दे पर संसद में हो हल्ला नहीं मचाचा इन जनप्रतिनिधियों ने क्योंकि इन्हें तो इनकी रोटी मिल ही रही है। परेशान और हैरान तो केवल आम इंसान है सेवक तो सेवा की मौज ले रहे हैं। ये सबसे बड़ा जनतंत्र है जहां जनता के सेवक ही उसको नोचने-खसोटने में कहीं से कसर नहीं छोड़ रहे, फिर चाहे वो उनकी सेलरी ही क्यों ना हो।

मुक्तक

कभी जीवन में ऐसे भी पल आते है जब आप किसी अहसास को कागज पर उतारते चले जाते है, ये पता नहीं होता की वो साहित्यिक दृष्टि से कृति बनने लायक है भी की नहीं, लेकिन बस यूं ही उतर आते है कागज पर। ऐसे ही कुछ
पलों का हिसाब यहां रखने की कोशिश है ये मुक्तक


हमनें सोचा इस अजनबी दुनिया में हम ही अजनबी है, लेकिन ज़िन्दगी की इन बियाबान राहों में तो हमें अजनबियों का शहर मिला... तुम हमारे लिए अजनबी थे, हम तुम्हारे लिए अजनबी थी... फिर भी ना जाने क्या सोच के दिल को सुकू मिला।

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राहें ज़िन्दगी की बहुत लंबी है... राह पे चलने वाले मुसाफिर...रूक ना जाना... थक ना जाना...राह पर चलना, संभलना तो सभी जानते है...गिर के संभल गया जो वो मुसाफिर ही पाएगा राहें ज़िन्दगी की मंजिल


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सब तो समझे है हमको पराया
हुआ ही नहीं है अभी तक कोई हमारा...
सारी सोचें हुई है झूठी और हर जज्बात मर चुका है हमारा।

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 जीवन जीना चाहती हूं, जी भर के...
रहना चाहती हूं, उन्मुक्त गगन की तरह...
घूमना चाहती हूं, विस्तृत धरती की तरह..
हंसना चाहती हूं, एक भोले शिशु की तरह...
सोचना चाहती हूं, गंभीर सागर की तरह...
बस में इतना चाहती हूं।
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अपनी खुशी की तो सब बात करते है...
बाते करें जो दूसरे की खुशियों की...
तन्हा लम्हों में दे दे सहारा...
हमने ते ऐसा सुकू, ऐसा चैन आज तक ना पाया।
कहते गए जो वो करते नहीं बना...
लाख कोशिशों के बाद भी वो हासिल-ए- मंजिल नहीं मिला।




























गुरुवार, अगस्त 19, 2010

सच बहुत याद आए

 वो शाम घनेरी वो रातों के साए, सच में बहुत याद आए।
 वो रूठ जाना, वो मनुहार का बहाना।
 वो हमकों हंसाना, हमको रूलाना।
 कभी पास आना, कभी दूर जाना।
 वो राह तकना, वो मिल के बिछुड़ना,
 हमको बुला के, वो हमको सताना।
 वो इतरा के प्यार लुटाना तुम्हारा।
 वो प्यारी बातों में खो जाना हमारा।
 वो सावन का आना, वो भादो बरसना।
 वो आहट तुम्हारी, वो नयनों का तरसना।
 वो सपनों से जग जाना हमारा, वो रूह से दूर जाना तुम्हारा।
 वो अहसास सच बहुत याद आया तुम्हारा ।
                      

मंगलवार, अगस्त 17, 2010

पीपली लाइव या मीडिया लाइव

मंहगाई डायन खाय जात है..और टीवी पर पीपली लाइव के प्रोमो देखकर मैंने भी इस फिल्म को देखने का मन बना लिया, इस इच्छा के पीछे एक कारण और भी था,ये फिल्म एक पत्रकार द्वारा निदेर्शित थी,सो पीपली लाइव को देखने थियेटर पहुंचना ही था। फिल्म समीक्षक तो मैं नहीं हूं, लेकिन इस फिल्म की समीक्षा करने से मैं खुद को रोक नहीं पाई। यह फिल्म ऐसे समय में रीलीज हुई जब देश महंगाई को लेकर परेशान है और किसान मुआवज़े की आवाज उठा रहे है। इसके लेकर दर्शकों में उत्सुकता थी और फिर आमिर जैसे सफल कलाकार की मॉकेर्ट वैल्यू भी कुछ हद तक दर्शकों को थियेटर तक खींच लाई। अगर कोई ये सोचकर फिल्म देखने का मन बना रहा है कि इसमें मंहगाई को लेकर काफी कुछ प्रदर्शित किया गया है, या फिर किसानों की आत्महत्या के मुद्दे को बड़ी गंभीरता से उठाया गया है तो इस फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है।हालांकि यह फिल्म भारतीय मीडिया और उसकी सोच और पतन का फिल्माकंन करने में काफी हद तक सफल कहीं जा सकती है।
फिल्म की सफलता के लिए उसका कथानक, संवाद, निर्देशन, संपादन और कलाकार भी काफी महत्वपूर्ण होते है,आमिर खान के प्रोडेक्शन और अनुशा रिज़वी के निर्देशन में बनी पीपली लाइव भी कुछ इस तरह का समिश्रण कहा जा सकता है। यह फिल्म दर्शकों का मंनोरजन करने में सफल रही है,लेकिन कथानक यानि थीम  की दृष्टि से फिल्म उतनी दमदार नहीं है।
फिल्म के कथानक का बात की जाए तो वास्तव में किस महत्वपूर्ण मुद्दे पर केंद्रित है,यह समझ नहीं आता। फिल्म में महत्वपूर्ण मुद्दों को छूने की हल्की सी कोशिश तो है, लेकिन यह  सब मुद्दे केवल हास्य का पुट देने के लिए ही प्रयोग किए गए हैं। फिल्म शुरू से लेकर अंत तक मीडिया और ओबी वैन के आस-पास मंडराती रही है। फिल्म की शुरूआत में ही नत्था और उसके भाई की झलक दिखा के फिल्म किसी बड़े इंग्लिश न्यूज चैनल के स्टूडियों का रूख करती है और इस दृश्य के बाद से ही पूरी कहानी आज के भारतीय मीडिया की स्थिति बयां करती चली जाती है। हिन्दी पत्रकारिता को  दबाती अंग्रेजी पत्रकारिता, तो कही टीआरपी के लिए मूंग की दाल और हलवे की स्टोरी को प्रमुखता देते संपादक,छोटे इलाके के पत्रकार का प्रतिनिधित्व करता राजेश जो स्टोरी ब्रेक करने के साथ बड़े चैनल में काम करने के सपना देखा करता है। राजेश की सूचना पर अंग्रेजी चैनल की पत्रकार नंदिता मलिक का पीपली लाइव और भेड़ चाल की तरह पूरे मीडिया के पीपली में जमावड़े के साथ  आनन-फानन में नत्था को देश की हॉट न्यूज बना देना। इन सबके बीच-बीच में फिल्म में कृषि मंत्री, कृषि सचिव,स्थानीय सरकारी कमर्चारी, सीएम,छूटभैय्या और दलित नेताओं की सोच और उनकी रणनीति के एक-आध दृष्यों पर घूम-फिर कर फिर फिल्म मीडिया पर आकर टिक जाती है। नत्था के अपने घर से गायब होने पर मीडिया का रवैया जहां रिपोर्टर नत्था के पखाने तक की मनोवैज्ञानिक विवेचना पर उतर आते है। होरी महतो के मरने पर  स्थानीय पत्रकार राजेश की संवेदनशीलता और उस पर नंदिता मलिक की असंवेदनशील सलाह की " डॉक्टर, इंजिनियर की तरह पत्रकारिता भी हमारा पेशा है और हमारे पेशे के लिए हॉट न्यूज पर टिके रहने हमारा फर्ज है, भले ही इस हॉट मुद्दे से हटकर कोई संवेदनशील और महत्वपूर्ण मैटर क्यों ना हो और जो ऐसा नहीं कर सकता वो इस पेशे के लायक नहीं है" फिल्म के क्लामेक्स की तरफ बढ़ते हुए भी मीडिया की गतिविधियां ही फिल्म का मुख्य बिंदु है, मसलन नंदिता मलिक का नत्था की खोज में गेस्ट हॉउस पहुंचना और वहां    आग में मरने वाले को नत्था साबित कर मीडिया कर्मियों का बोरिया बिस्तर समेट के निकल पड़ना और नत्था को मजदूर के गैट-अप में दिखाकर गीत चोला माटी के राम ऐ कर का भरोसा राम,एक दिन आए सबकी बारी... प्रश्न चिन्ह के साथ फिल्म की समाप्ति हो जाती है और दर्शक समझ नहीं पाता की, नत्था के क्लोजअप पर चोला माटी की क्या अर्थ है। कथानक के आधार पर इस फिल्म को पीपली लाइव की जगह मीडिया लाइव कहा जाय तो कोई अतिश्योक्ति ना होगी। एक मीडिया कर्मी होने के नाते अनुशा जी ने पत्रकार और पत्रकारिता पर काफी अच्छा व्यंग्य किया है। एक पत्रकार अपनी नजर से सरकारी मशीनरी और राजनेताओं को लेकर क्या कहना चाहता है वह रिजवी जी ने पूरी ईमानदारी से परदे पर उतारा है। कोई भी पत्रकार अगर ईमानदारी से फिल्म बनाता तो शायद वो पीपली लाइव जैसा ही कथानक होता। 

फिल्म के संवादों और गीत संगीत की बात की जाए तो वह पूरी तरह से मौलिक लगते है कहीं भी बनावटीपन नजर नहीं आता।  ग्रामीण पृष्ठभूमि के अनुकूल संवाद और गीतों ने फिल्म को चटपटा और चुटीला बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। संगीत के मामले में लोक धुनें और गीत काफी अच्छे बन पड़े है। हालांकि संवादों के मामले में यदि कुछ सम्मानित गालियों का प्रयोग नहीं होता तो शायद सेंसर बोर्ड फिल्म को ए सर्टिफिकेट नहीं देता और कुछ हद तक किशोरों को भी फिल्म देखने जाने के लिए कोई नहीं टोकता, क्योंकि इन गालियों के न होने से फिल्म की मौलिकता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था। हालांकि ये गालियां ऐसे पुरूष दर्शकों के लिए काफी अच्छा मसाला है जो अपनी रोजमर्रा की ज़िन्दगी में मौखिक ही सही यौन सुख का आस्वादन करते रहते है, लेकिन थियेटर में अचानक इन जेनेटिक गालियों को सुनकर महिलाएं कुछ असहज जरूर हो जाती है।
हबीब तनवीर जी के थियेटर ग्रुप के मानिकपुरी और स्थानीय कलाकारों के साथ रघुवीर यादव का अभिनय बेमिसाल है। इतना मौलिक अभिनय इन लोगों ने किया की पर्दे पर पीपली का ग्रामीण जीवन सजीव हो उठा।
अनुशाजी का निर्देशन भी शानदार रहा है, लेकिन कहीं-कहीं पर वह चूक गई है, नत्था के पखाने को सीन बनाने में उन्होंने जितनी मेहनत की, यदि थोड़ी सी मेहनत वो होरी मेहतो की मौत के सीन और राजेश की संवेदनशीलता पर कर डालती तो क्या कहने, फिल्म और लाजवाब हो जाती।
फिल्म सभी को देखनी चाहिए, लेकिन विशेषतौर पर अपने पत्रकार बंधु इसे देखे तो काफी कुछ महसूस कर सकेंगे।
                    
  



सोमवार, अगस्त 16, 2010

औपनिवेशिक नियमों पर चलती अर्थव्यवस्था

 सार्वजनिक और निजी परियोजनाओं के लिए किसानों की मर्जी के खिलाफ उनकी भूमि का अधिग्रहण देश की प्रगति और विकास के लिए जायज मान भी लिया जाए तो ये कहां तक जायज है कि एक ही देश में तुम किसानों को भूमि अधिग्रहण के मुआवजे देने में पक्षपात का रूख अपनाओं।  आज तो ये उत्तर प्रदेश की बात है। यहां ग्रेटर नोएडा से लगते अलीगढ़ और मथुरा में यमुनाएक्सप्रेस वे  के लिए किसानों ने ग्रेटर नोएडा के किसानों के बराबर मुआवजे को लेकर आंदोलन कर रखा है। इसमे किसानों का दोष नहीं कहा जा सकता, इसमे राज्य सरकार की अदूरदर्शिता की झलक दिखती है। कल कोई दूसरा राज्य यदि किसानों की भूमि अधिकृत कर उसके एवज कम मुआवजा देता है तो ये स्थिति और भी विस्फोटक हो सकती है, ये दो राज्यों में किसानों मतभेद पैदा कर सकता है, और इससे कई अन्य समस्याएं पैदा हो सकती है, लेकिन राजनेता और उनकी पार्टियों को इतनी समझ पैदा हो जाए तो फिर देश में ऐसे हालात ही पैदा ना हो।
अलीगढ़ के टप्पल और मथुरा में किसानों का ये मुआवजा आंदोलन भी राजनीतिक पार्टियों को अपनी
चुनावी रोटियां सेकने का तंदूर नजर आने लगा है। खुद ही ये नेता कहते है कि 18 दिन से किसान वहां शांतिपूर्ण आंदोलन कर रहे थे, तो कोई इनसे जाके पूछे की तब इन्हें किसानों की याद नहीं आई,क्या ये किसानों के हिसंक होने और उनकी मौत के लिए इंतजार कर रहे थे,  ताकि वहां जाकर किसानों की सहानुभूति लूट सके।
बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह कहते है कि इस मुद्दे को लेकर हमने लोकसभा स्थगित की और वहां का दौरा भी करेंगे। कोई इनसे पूछे अरे लोकसभा तुमने आज स्थगित की, जब-तुम लोग संसद में अपनी सेलरी बढ़ाने के मुद्दे पर इतना गंभीरता से विचार कर सकते हो तो क्या 1894 भूमि अधिग्रहण विधेयक के बारे में आपने गंभीरता से सोचा। आरएलडी के अजीत सिंह इस विधेयक में संशोधन की बात कह और मायावाती को दोष दे अपना दामन बचाने की कोशिश करते नजर आते है। कांग्रेस की रीता बहुगुणा जोशी को मायाराज में किसानों पर अन्याय की याद हो आती है, और मुख्यमंत्री मायावती के तो कहने ही क्या जो मुख्यमंत्री अपनी सभाओं में लोगों से खुलेआम उन्हें धन-दौलत से लादने की गुहार करती है, उनसे क्या किसानों के हित में सोचने की अपेक्षा की जा सकती है। ये सब किसानों को समझना बेहद जरूरी है कि वो ना तो किसी राजनीतिक पार्टी के बहकावे में आए और ना ही राजनेताओं के,उन्हें केवल ये समझना होगा कि वह ऐसे रणनीति बनाए कि भविष्य़ में सरकार भी उनके हितों को अनदेखा ना कर सकें और इस स्थिति से सदा के लिए उनका बचाव हो पाए। इस दिशा में सार्थक पहल किसानों को ही करनी होगी,भूमि अधिग्रहण विधेयक में संशोधन करवाने की क्रांति उन्हें ही लानी होगी। तभी लाल बहादुर शास्त्री जी का सपना जय जवान, जय किसान वास्तव में साकार हो पाएगा। केंद्र सरकार और राज्य सरकार तो केवल अलीगढ़ और मथुरा की तरह कमिश्नर,डीएम और एसपी की तबादला करवा कर अपनी कर्तव्यों की इतिश्री कर लेगी या फिर कोई जांच या कमेटी बैठा देगी, जो सालों बाद कोई रिपोर्ट तैयार कर ठंडे बस्ते में सौंपने के लिए दे देगी। आजादी के इतने सालों बाद भी हमारी मानसिक गुलामी गई नहीं, अंग्रेजों का बनाया साल 1894 का भूमि अधिग्रहण विधेयक अभी भी हमारे सर चढ़ कर बोल रहा है। इसे सुधार की गुजाइंश तो दूर इसे बस लागू कर दिया गया। भारत में औपनिवेशक समय का ये क़ानून भारत सरकार के लिए वह रास्ता है जिसके ज़रिए सार्वजनिक या निजी परियोजनाएं के लिए भूस्वामियों की ज़मीन का राष्ट्रीयकरण हो सकता है, हालांकि 1894 के तथाकथित भूमि अधिग्रहण विधेयक (लैंड एक्विज़िशन ऐक्ट) के ख़िलाफ़ विरोध बढ रहा है। इसका एक बड़ा उदाहरण अलीगढ़-मथुरा प्रकरण है। इस संबंध में यहां पर मैं जर्मनी  के एक अखबार का ब्यौरा देना अधिक उचित समझती हूं।

 ज़्युरिख स्थित अख़बार नोये त्सुइरिशर त्साइटुंग  इस प्रक्रिया पर सवाल उठाते हुए लिखता है-
"दुनिया के पश्चिमी लोकतंत्रों में अतिरिक्त ज़मीन पाने के लिए सीमाएं बहुत संकरी तय गयी हैं. इसके अलावा दूसरे देशों में क़ानून के मुताबिक अधिक मुआवज़ा दिया जाता है. लेकिन भारत में 1894 के क़ानून में ऐसा प्रावधान नहीं है. सरकार ख़ुद-- यानी कोई स्वतंत्र संस्था भी नहीं-- ज़मीन की क़ीमत तय करती है. ज़्यादातर मामलों में सरकार बहुत ही कम क़ीमत में दुबारा ज़मीन खरीद सकती है. और तो और, देश में भ्रष्टाचार की वजह से जो भी पैसा दिया जाता है, उस का एक बडा हिस्सा इस खेल में शामिल राजनितिज्ञों की जेब में चला जाता है. यानी पीडि़त लोग अपने लिए ज़्यादा कुछ बचा नहीं पाते. अंत में उन्हें इसकी वजह से शायद बडे़ शहरों में दिहाडी़ मजदूर के तौर पर अपना गुज़ारा करना पडता है"

इस स्थिति से उबरने के लिए किसानों को स्वंय ही अपने विवेक के आधार पर फैसला लेना होगा कि वो दिहाड़ी मजदूर बनना पसंद करेंगे या भूमि अधिग्रहण विधेय़क में बदलाव की क्रांतिकारी राह अपनाएंगे।

रविवार, अगस्त 15, 2010

विकास ये कैसी भ्रांति

आजादी के 63 साल बीतने को आए और पूरा देश धूमधाम से स्वतंत्रता का पर्व मना रहा है, लेकिन स्वतंत्र होने के बाद भी आज के दिन देश के किसानों को क्यों लग रहा है कि वो अभी भी स्वतंत्र नहीं है। अलीगढ़ के पास किसानों ने अपनी जमीन अधिग्रहण के मुवावजे को लेकर ये कैसी क्रांति की, कि कई बुलडोजर जला दिए गए, थाने को आग के हवाले कर दिया गया। ये किस क्रांति की राह पर चल रहा है हमारा अन्नदाता, क्यों उसे धरती मां की गोद से उठकर इस हिंसक क्रांति को अंजाम दिया, ये सवाल हमारी पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए परेशानी का सबब बन सकता है। ऐसा नहीं है कि किसानों ने इससे पहले  क्रांति का बिगुल नहीं बजाया, लेकिन उनकी ये क्रांति देश हित के लिए थी। सन् 1857 की क्रांति में किसानों ने बढ़-चढकर भाग लिया। यहां तक रोटियों के जरिए क्रांति के संदेश एक जगह से दूसरी जगह पहुंचने लगे और इस क्रांति ने अंग्रेजों को दांतों तले अंगुली दबाने के लिए मजबूर कर दिया, लेकिन अब और तब के किसानों की एकजुटता के उद्देश्य में धरती-आसमान का अंतर है। आज हमारा किसान गन्ने का सर्मथन मूल्य बढ़ाने को लेकर सड़कों पर उतरता है तो कभी अपनी भूमि के मुवावजे को लेकर। आखिर क्यों धरती मां की कोख में अन्न की बालियां देखकर खुश होने वाला किसान इतना हिंसक हो उठा है कि अपनी मांगों को मनवाने के लिए मारपीट और आगजनी का सहारा लेने के मजबूर है।कृषिप्रधान हमारा देश किसानों के विकास को गंभीरता से नहीं ले रहा है। एक-तरफ बड़े-बड़े बिल्डर जमीन के अच्छे दामों का लालच देकर किसानों की जमीन मुंहमांगे दामों में खरीद रहे है, तो दूसरी तरफ बड़े- बड़े प्रोजेक्ट्स के लिए सरकार भी किसानों की भूमि का अधिग्रहण कर रही है। देश के विकास के नाम पर कृषियोग्य भूमि पर टॉउनशिप विकसित की जा रही है। इसे देश के विकास के पथ पर अग्रसर होने का मापदंड माना जा रहा है, लेकिन विकास का मतलब है चहुंमुखी प्रगति ना कि केवल एक तरफ विकास या झुकाव। यह स्थिति वास्तव में शोचनीय है.. ऐसा क्यों है कि किसान अपनी भूमि बेचने में रूचि लेने लगा है क्यों वो खेती नहीं करना चाहता,क्यों मुवावजे को लेकर वह सड़कों पर उतरने लगा है। देश के हर नागरिक की तरह किसानों को भी अधिकार है कि वह उन्नत जीवन शैली अपनाएं हाईटेक हो जाए, लेकिन इस कीमत पर नहीं कि वह खेती और अन्न उगाने के काम को तुच्छ और मुसीबत भरा मान ले। क्यों नहीं ऐसा कदम उठाए जाते कि किसान अपनी भूमि बेचने को मजबूर ना हो, कृषि से विमुख ना हो। क्या होगा यदि देश का हर -एक किसान अपनी भूमि बेच कृषि करना छोड़ दे। हाईटैक होने के लिए बड़े प्रोजेक्ट्स में सारी कृषियोग्य भूमि नप जाए। कल्पना कर के ही डर लगता है, क्योंकि अभी तो फिऱ भी किसान अन्न उगा रहा है और फिर भी देश में लाखों लोग भुखमरी के शिकार है। सरकार यदि किसी बड़े प्रोजेक्ट्स के लिए भूमि अधिग्रहण कर रही है तो उसे प्रोजेक्ट्स को अंजाम देने से पहले गंभीरता से कृषि योग्य भूमि और किसानों के बारे में विचार करना चाहिए, इसका विकल्प जरूर सोचना चाहिए, किसानों के लिए मुवावजे का ऐसा प्रबंध करना चाहिए, ताकि वो संतुष्ट भी और कृषि से विमुख ना हो। बड़ी-बड़ी टॉउनशिप का विस्तार करने वाले बिल्डरों और ग्रुपस पर भी कृषि भूमि के अधिग्रहण को लेकर लगाम लगानी चाहिए। गांवों में रहने वाली हमारी आधी आबादी को गांवों में ही अच्छे रोजगार, चिकित्सा, शिक्षा के साधन उपलब्ध करवाने का प्रयास करना चाहिए, ताकि देश का किसान अपने को हीन ना महसूस करें।
ये विचार शायद बहुतों के मन में आए होंगे विचार आने और उन्हें  कागज पर उतारने के बाद मेरे जैसे कई लोग अपने को देश का बहुत बड़ा हितैषी होने का भ्रम पाले है,लेकिन केवल सरकार, समाज ही नहीं बल्कि हम और आप जैसे लोग भी इन समस्याओं को गंभीरता से ले और अपनी तरफ से छोटा सा ही सही सार्थक प्रयास करने की पहल करें तो शायद स्थिति में सुधार की गुंजाइश की जा सकती है, फिर आजादी का जश्न वास्तव में जश्न होगा।

जय हिंद..

मीडिया भी है लिंग- भेद की बीमारी का शिकार

लिंगभेद की बीमारी से हमारा देश शायद ही कभी ऊबर पाए। दुनिया को आइना दिखाने और चौथे स्तंभ का पर्याय भारतीय मीडिया भी इस बीमारी से बुरी तरह ग्रसित हैं। लिंग भेद पर चैनलों पर जोरदार चर्चाएं और रिपोर्ट पेश करनी हो या अखबारी खबरों में कन्या भ्रूण -हत्या पर विचारोत्तेजक लेख लिखना हो, इन सभी में मीडिया कभी पीछे नहीं रहता, यहां तक की यदि सड़क पर कोई लावारिस नवजात कन्या मिल जाए तो सबको एक चटपटा मसाला मिल जाता है..लिंग भेद और कन्या-भ्रूण हत्या पर चिंता जाहिर करने का..लेकिन महिलाओं की स्थिति पर चिंता करना केवल मीडिया का ढोग ही है, क्योंकि यही मीडिया है जहां महिला पत्रकारों को अपमानित होने के साथ ( कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो) ही और ना जाने कितनी तरह की पक्षपातपूर्ण स्थितियों का सामना करना पड़ता है। मीडिया हॉउस भी अपने संस्थानों में महिला पत्रकारों को केवल सजावटी गुड़िया के तौर पर रखने में ज्यादा दिलचस्पी रखते है। भाषाई और दूर-दराज की महिला पत्रकारों का ही नहीं बल्कि पूरे देश में महिला पत्रकारों को कामोबेश यहीं स्थितियां झेलनी पड़ती है। दूर क्यों जाए मीडिया के गढ़ दिल्ली के आस-पास के इलाकों का भी यहीं हाल है। जहां हिंदी मीडिया के बड़े-बड़े संस्थान अपने -अपने ब्यूरो में महिला रिर्पोटरों की नियुक्ति केवल खानापूर्ति के लिए ही करते हैं। इन संस्थानों में पुरूष पत्रकारों की भर्ती का कोई नॉर्म नहीं है, लेकिन महिलाओं की नियुक्ति के लिए सारे नियम-कायदे है, जैसे की स्टॉफर में एक ही महिला रिर्पोटर की नियुक्ति की जाएगी। दूसरे अगर आई भी तो वो या तो स्ट्रिंगर या फ्रीलांसर के तौर पर आएगी। गोया की वो पत्रकार ना हो कोई सजवाटी सामान हो, जिसे रखना तो है, लेकिन केवल एक निश्चित अनुपात में, ताकि कार्यालय की शोभा में कहीं गड़बड़ी ना हो जाए। एनसीआर में मुश्किल से ही ऐसा कोई संस्थान हो, जिसने अपने ब्यूरो में किसी महिला पत्रकार को चीफ बनाया हो। अरे यहां तो अपने ही साथी पत्रकार महिला पत्रकारों को दोयम दर्जें का साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। यदि महिला पत्रकार कभी किसी धारा 376 का मतलब पूछ ले तो बवाल मच जाता है। कहने लगते है उसे तमीज नहीं है कहां पर कैसे बात की जाती है। यदि किसी महिला पत्रकार कोई संस्थान सीनियर पद लेने के लिए आगे आए तो ये सो कॉलड अपने पत्रकार साथी उसे नीचा दिखाने के लिए ये कहने से भी नहीं चूकते की अरे वो तो ब्रोथल चलाती है, अरे भले मानुषों पत्रकार होकर ये भी नहीं जानते कि ब्रोथल चलाने वाली को पत्रकारिता के चंद रूपयों की क्या जरूरत। चलों ये तो रही अपने पत्रकार साथियों की बात, लेकिन जो मीडिया में उच्च पदों पर आसीन है, क्या उनकी अक्ल पर भी पत्थर पड़े है जो किसी के कहने भर से किसी महिला के चरित्र का अनुमान लगा लेते है। उनमें से कुछ तो ऐसे होते है जो महज महिला पत्रकार की बात सुनने से इसलिए इंकार करते है कि वो महिला पत्रकार अपनी बीट पर न्यूज लेने के लिए उस समय गई जब उस संस्थान से निकाला गया एक अन्य रिर्पोटर भी न्यूज लेने गया था। इस बात पर महिला पत्रकार को नौकरी से ही निकाल दिया जाता है। किसी प्रेस कांफ्रेस में महिला पत्रकार अपने पुरूष साथियों से बढ़कर सवाल पूछ ले तो कहा जाता है कि बहुत बोलती है। किसी की गलत बात पर पलट कर जवाब दे तो उस पर लड़ाकू होने का टैग लगा दिया जाता है और कार्यालय में हो रहे किसी अन्याय का विरोध कर दे तो फिर कहना ही क्या, सारे की सारी पुरूष माननसिकता एक तरफ और महिला की पत्रकारिता एकतरफ। ये लिंग भेद नहीं तो और क्या है, पत्रकार केवल पत्रकार होता है, वो जाति-धर्म और लिंग की सीमा से परे होता है, लेकिन सबसे बुद्धिजीवी वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले पत्रकारिता जगत को कौन समझाए।  

शुक्रवार, अगस्त 13, 2010

मैले हो जाते है रिश्ते भी लिबासों की तरह

मेरी व्यक्तिगत डायरी में मैंने कभी ऐसी रचनाएं भी सहेज कर रखी थी जो मुझे उपलब्ध हो गई और जो मुझे बेहद पसंद आई थी। ऐसी ही रचनाओं को यहां उल्लेखित करके मुझे संतोष हो रहा है, शायद पढ़ने के बाद आपको भी हो..

मैले हो जाते है रिश्ते भी लिबासों की तरह
दोस्ती हर दिन की मेहनत है चलो यूं ही सही
भूल थी फरिश्ता आदमी में ढूंढना, आदमी की आदमियत चलो यूं ही सही।
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ज़िन्दगी नियम नहीं मानती

ज़िन्दगी  नियम नही मानती, फिर भी रूढ़ियों से बंध जाती, पाखंड को पुचकारती
त्याग और तपस्या का ओढ़रामनामी, अहंकार को गले लगाती
बैठ स्वर्ण सिंहासन पर त्याग के प्रवचन सुनाती
जय-जय कार करवाती, प्रशस्ति पत्र बंटवाती और
आध्यात्म का लगाकर मुखौटा, स्वंय को धन्य मानती
ब्रह्मचर्य का संकल्प ले, स्वप्न वासना के दिखाती, अंहकार को तृप्त  कर, सत्य को झुठलाती, रीते बादलों की तरह आसमान से गरजती और बिन बरसे बिखर जाती...पर जब पर्वतों से टकराती, रोती कलपती पर... अपना स्वभाव नहीं बदलती..
भजन और कीर्तन से, पूजन और अर्चन से स्वंय को बहलाती,और फिर सपनों में खो जाती..
ज़िन्दगी नियम नहीं मानती।
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आदमी-आदमी से डरता है
हरकोई- हर किसी से डरता है
चांद अपना है रात का पंछी, सुबह की रोशनी से डरता है
जाने क्या मांग लेंगे, बदले में, देवता आरती से डरता है
सांप रस्सी को डस गया शायद, अब तो वो दोस्ती से डरता है
कहने की सुनने की उसको फिक्र नहीं, अनकही, अनसुनी से डरता है।
जीने वाला हर घड़ी मरता है, फिर भी उम्र भर मौत से डरता है।
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जिन्दगी अजनबी सी बन गई

जिन्दगी अजनबी सी बन गई
ज़िन्दगी तुझे में अब तक समझ ना पाई
तुम धूप हो की छांव, महसूस करके भी महसूस ना कर पाई।
तेरी फितरत क्या है मैं जान ना पाई, जी के भी तुझको जी ना पाई।
तेरी राह में हैं कितने आरामगाह और मुसीबतें कितनी जान ना पाई।
सच तेरे मायने में समझ नहीं पाई।
मैं तेरे साथ रहकर भी जाने क्यों तुझसे अनजान बन गई..
तू मेरे लिए बेगानी...अजनबी बन गई।

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सूना है आकाश सूनी है धरती
सूना है ये जहां सूना है मन
प्यासी सी आत्मा, बोझिल सी आंखे हर दिन हर पल

मेरा आशियां

आज फिर रखा है कदम दर्द की देहरी में
होता रहता है मेरा आवागमन इस दुख के आशियां में
रहती है हर पल उदासी छाई मेरे दिल में..
गम के कोहरे में चलती रहती हूं मैं..
हरपल रहूंगी इस धुंध में, कभी थकेंगे ना इस सफर में मेरे कदम
गम के आशियां में इस आस से छुप के रहती हूं हरदम..
कहीं कभी भटके से खुशी के सूरज की किरन आएगी मेरे आशियां में

गुरुवार, अगस्त 12, 2010

मेरा अपना संचय

चंद ख्वाहिशें, कुछ अधूरे सपने
कितनी अनकही, अनसुलझी बातें
कुछ अपने से पराए लोग
कितनी यादें भूली बिसरी
थोड़ी आहें, थोड़ी सिसकियां
इतना सा गम थोड़ी सी खुशी
बस यही है मेरे पास मेरा अपना संचय

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आंखों की चमक होठों की हंसी
ना जाने क्यों धुंधला सी गई
ना रो ही सकी ना कह पाई
बस गुमसुम पथरा सी गई
क्यों दर्द मिला हर बार मुझे
क्यों आंसू की सौगात मिली
जीवन के हर मोड़ पर
मिली तो खाली हाथ मिली।
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निगाहों में अनगिनत ख्वाब लिए
अधरों पर बेजुबान सवाल लिए
बाहों में यादों की महफिल लिए
पांव तले अजनबी सी मंजिल लिए
तेरे दर पर खड़ी हूं ऐ ज़िन्दगी
बगैर धड़कन का एक दिल लिए।

मेरे दिल में

एक अनजाना, अजनबी सा डर है मेरे दिल में
एक ख्वाहिश है दबी-दबी सी मेरे दिल में
एक गम है मुस्कुराता हुआ सा मेरे दिल में
एक खुशी है दम तोड़ती सी मेरे दिल में
एक बात है अनकही सी मेरे दिल में
... क्या नहीं है मेरे दिल में, लेकिन फिर भी कुछ अधूरा सा है मेरे दिल में..

मेरा मन पंछी

छटपटा रहा है मेरा मन पंछी शरीर के पिंजरे में कैद ...
दूर उन्मुक्त गगन में चाहे उड़ जाना...
सामाजिक बंधनों की मोटी सी सलाखें रोके खड़ी है राह..
तोड़ के भी ना टूटे, ऐसी बाधाएं बेजान कर रही है..
पंछी तो मर चुका है पिंजरा ही रह गया।

कहां है वो जज्बा ऐ आजादी

वो बिस्मिल के तराने, वो भगत सिंह के नगमें, वो जज्बा ऐ आजादी आजाद की,
 वो जय हिंद की हुंकार से डोलते धरती- आकाश, वो अशफाक के सीने में धधकती क्रांति की आग,
वो फनाह होना वतन पर खुदी का, कहां है वो मेरा हिन्दुस्तान..
मजहब की दीवारें, सत्ता की चालें..घोटालों की गफलत, 
नक्सल की आग, झुलस रहा हर तरफ मेरा हिन्दुस्तान,
अलगाव की ईटें हैं, आंतक की ज्वाला,सिसक रही है मेरी भारत माता..
कहां है वो जज्बा ऐ आजादी, कहां है वो आजाद हिन्दुस्तान
कहां है, कहां है वो आजाद हिन्दुस्तान

गुरुवार, जुलाई 29, 2010

आज भी है वहीं खड़े हम


सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी की कविता की ये पंक्तियां -
वह तोड़ती पत्थर इलाहाबाद के पथ पर
ना जाने कितने दिनों से मेरे मन को झकजोर कर रही थी। इन पंक्तियों ने मुझे अतीत के पन्नों पर गुम हो गया एक मर्मपर्शी वाकया याद करा दिया। तब देश में मंहगाई को लेकर तांडव नहीं मच रहा था। साल २००४ में दैनिक भास्कर फरीदाबाद से मेरा तबादला गुड़गांव ब्यूरों कर दिया गया था, जाने मैंनेजमेंट को क्या सूझी थी कि उसे मात्र तीन हजार की तनख्वाह पाने वाले रिपोर्टर को एनआरआई के पसंददीदा शहर गुड़गांव में भेजना मुफीद लगा। रिहायशी मंहगी होने के कारण में फरीदाबाद से ही गुड़गांव .अप -डॉउन करती थी..मेरे ऐसे ही एक सफर के दौरान अप्रैल माह की सुबह हरियाणा रोड़वेज फरीदाबाद की बस जब जाम लगने की वजह से कुछ देर के लिए गुड़गांव इफको चौक के पास जाकर रूकी। अनमने मन से मैं भी बाहर की तर्‌फ देखने लेगी। इतने कोलाहाल भरी सड़क पर जब सभी को अपने गंत्वय तक पहुंचने की जल्दी हो शायद मेरा भी ध्यान उस घटना की तरफ नहीं जाता, लेकिन एक दुधमुंहे बच्चे के क्रंदन ने मेरा ध्यान पेवामेंट की तरफ खींचा। एक मरियल सी कंजड़ महिला अपनी पंरपरागत मैली पोशाक में अपने वक्षों से लगाकर किसी तरह अपने बच्चे को चुप कराने का प्रयास कर रही थी। उसकी फटी चोली से दिख रहा शरीर उसके कुपोषण की कहानी बयान करने के लिए काफी था, मैं समझ गई की बच्चा क्यों रो रहा है। जब मां के अंदर कुछ नहीं होगा तो कैसे अपने बच्चे को स्तनपान करा पाएगी। वह महिला एक हाथ से बच्चे को थामें इधर-उधर कुछ ढूंढने का प्रयास कर रही थी, उसे पास में ही पड़ी एक सूखी रोटी दिख गई और वह तुंरत उस ओर चल दी। शायद आपको ये कल्पना लगे, लेकिन उस वक्त आए हवा के झोकें से वह रोटी उड़कर दूर जाने लगी तो वह महिला भी उस तरफ भागी, लेकिन हाय रे भाग्य दूसरी तरफ से एक कुत्ता भी उस रोटी पर नजर गड़ाए बैठा था और पलक झपकते ही वह रोटी ले भागा। ठगी सी नजरों से वह औरत रोते-बिलखते अपने बच्चे के साथ दूर तक उस कुत्ते को देखती रही.. जैसे कह रही हो इंसानों की इस दुनिया में जब मेरी नस्ल वालों ने ही मुझे नहीं पूछा तो तुम तो जानवर हो तुम से क्या गिला। ग्रीन सिग्नल हुआ और बस आगे बढ़ गई...इस वाकये ने मेरे अंदर कुछ ऐसा जोश पैदा किया कि मैंने गुड़गांव में उसी सीमित सेलरी जीने का मन बना लिया और इसके बाद मैं घर -परिवार से लेकर सभी को इस वाकये को सुनाकर खाना ना बरबाद करने का लेक्चर देने लगी। बार-बार कहती कि हम  लापरवाही से अन्न बरबाद करते है और दुनिया में लाखों लोगों के पेट पर लात मारते है। इस वाकये ने अनजाने में ही मुझे जीवन की एक बड़ी सीख दे दी। खैर बात आई गई हो गई, लेकिन कुछ समय से मंहगाई को लेकर जो बवाल मच रहा है। उस स्थिति को देखकर एकबार फिर से ये वाकया मेरे मानस पटल पर वापस उथल-पुथल मचाने लगा। हमारे देश की आधी आबादी तब भी भूखे मरती थी, जब मंहगाई नहीं थी और आज भी भूखी मर रही है, जब मंहगाई है इतने समय बाद भी विकास की अंधी दौड़ में सबसे तीव्र विकास के पथ पर अग्रसर विकासशील देश का तमगा लेकर खुश हो रहे हमारे देश की स्थिति में क्या वास्तव में सुधार आ पाया है। आजादी के पहले अंग्रेजी हुकूमत की वजह से आम इंसान खाने को तरसता था और आजादी के 60 सालों बाद भी वहीं स्थिति है। उस पर एक- दूसरे को नीचा दिखाने में लगी राजनीतिक पार्टियां स्थिति को सुधारने की बजाय और बदरंग करती है। मंहगाई को लेकर 5 जुलाई 2010 को विभिन्न राजनीतिक पार्टियों का देश व्यापी बंद लगभग 20 हजार करोड़ का आथिर्क नुकसान करा गया। इस बंद की जगह ये पार्टियां मंहगाई को काबू में करने के लिए कोई सार्थक पहल करती तो कुछ बात बन सकती थी, मसलन अपनी अकूत संपत्ति में से कुछ भाग ये राजनेता देश की आर्थिक स्थिति को संभालने के लिए दे सकते या फिर जब-तक स्थिति सामान्य नहीं हो जाती, तब-तक अपने विभागीय खर्चों में कटौती कर पाते, नहीं लेकिन ऐसा नहीं है यहां तो अपने देश केंद्रीय कृषि मंत्री जैसे नेता है,जिन्हें आईसीसी अध्यक्ष पद मिल जाए तो उन्हें देश में मिली अन्य जिम्मेदारियां भारी लगने लगती है। लाखों टन अनाज सड़े, लोग भूखे मरे उन्हें इससे क्या लेना-देना,उनका पेट तो भर ही रहा है। दूसरी तरफ देश नाक बचाने के कॉमनवेल्थ गेम्स के नाम पर करोड़ो रूपए स्वाहा किए जा रहे है..अरे कोई इन्हें समझाए.. जो वर्तमान में हमारे देश की स्थिति है, जिसमे नक्सलवाद, आतंकवाद, मंहगाई का तांडव मचा है, क्या ये जगजाहिर नहीं है, इससे क्या देश की नाक नीचे नहीं हो रही है।  

रविवार, मार्च 21, 2010

कसक



तिनका- तिनका जोड़ कर बनाई गई जिन्दगी, जब धीरे-धीरे टूटती है।
तो उस दर्द का, उस जज्बाज का अहसास बड़ी मुश्किलों भरा होता है।
पल-पल टूटते रिश्तों को जोड़ने की कसक, हर क्षण पास होकर भी दूर होने की तड़प
और भी ना जाने कैसे-कैसे खौफनाक मंजर,दिलों-दिमाग से गुजर  जाते है, लेकिन दिल फिर भी कहता है कि  दोष तो उसका भी ना था और ना ही मेरा कसूर था शायद हर बार की तरह मेरी किस्मत को ये ही मंजूर था।

सिर्फ एक संबोधन ही तो था वो

किसी का दिया गया संबोधन कब आपकी ज़िन्दगी को एक नया मोड़ दे देता है, ये तो ना संबोधन देने वाले को पता होता है और ना ही संबोधन लेने वाले को, लेकिन बस वो स्मृतियों का एक ऐसा मेला आपके साथ जोड़ देता है, जो जीवन में नित नए सन्दर्भों के रूप में सामने आता है। सोनपरी एक ऐसा ही संबोधन है जो कभी अनजाने में ही कुछ इस तरह से जुड़ गया कि उससे दूर होना बेमानी से लगने लगा।
एक थी सोनपरी हरे-भरे पहाड़ों के बीच उसका बचपन बीता था। प्राकृतिक सौंदर्य के सानिध्य ने स्वतः ही उसे भी अपना सा ही निश्चछल और भोला स्वभाव दे दिया। यौवन की दहलीज पर कदम रखते ही सोनपरी का मन भी अनजाने अहसासों से डोलने लगा। उसके जीवन में भी इन अहसासों को नाम देने के लिए एक शख्स आया और सोनपरी उसकी होकर रह गई, लेकिन उसे क्या पता था कि जो शख्स उसके पंखों को कल्पना की नई उड़ान के सपने दिखा रहा है वहीं एक दिन अपनी भावनाओं में सोनपरी को पंखों को जला डालेगा उसे ताउम्र  के लिए  अपाहिज बना डालेगा..आज भी सोनपरी हंसती है, लेकिन उसकी हंसी की वो खनक अब उसके ही कानों को चुभती है और सोनपरी कह उठती है।


कितनी सरलता से अपनी सोनपरी को बहलाते हो तुम और वो मान भी जाती है।
लेकिन कभी सोचा सोनपरी की भी कुछ भावनाएं हैं। उसके पास भी कुछ अपनी मजबूरियां हैं।
तुम्हें ना भूल पाने की मजबूरी..तुम बिन जिंन्दगी को ना जी पाने का डर ...क्या कभी सोचा सोनपरी कैसे जिएगी, पहले रोती थी, निराश होती थी तो मन को समझा लेती थी, कि दूर-दूर तक ऐसा कोई भी नहीं है जो उसके आंसुओं का मोल समझे..फिर वीरान  तपते मैंदानों में बारिश  की बूंदों की तरह तुम आएं और वहीं हुआ जो बारिश के थम  जाने के बाद होता हैं... हां  फिर एक बार  मेरे मन का वीरान तपता मैदान  जीवन की कड़ी धूप में तपने को मजबूर था..तुम सबकुछ जानते थे तो फिर क्यों मुझे सपनों की दुनिया से जोड़ा और मेरी आंखों को सुनहरे सपने दिखाकर तुम खुद ही उन सपनों को रौंद कर चले गए....

और अब हरपल तुझे ढूंढती है मेरी आंखें 
कैसे कंहू कैसे गुजरते है लम्हें , सोचा था मेरे जीवन का खालीपनतुम भर दोगे। मेरे इस सूने जीवन में प्रभात भर दोगे। लेकिन सब मेरे मन की अबोध कल्पना ही थी.. बचपन में जब कोई खिलौना टूटा करता था था, तो नए खिलौने के आने से मन को ढांढस बंधता था। लेकिन अब तो ऐसा भी नहीं है, कैसे समझाऊं मैं इसको..जो मन अब समझने की हद भी पार कर चुका है।

रिश्तों से इतर भी है एक जहां





कब कैसे और कहां मानवीय संवेदनाएं रिश्तों का आकार लेती हैं कोई नहीं जानता , लेकिन रिश्तों से ईतर भी एक दुनियां होती है.जरूरत हैं तो सिर्फ उसे महसूस करने की।

आकाश से कोसों दूर धरती कभी आकाश क रिश्तों में बांधने की नहीं सोचती। बस निष्काम भाव से उससे मिली वर्षा की बूंदों को अपने में आत्मसात कर तृप्त होती हैं।

सागर की सीप भी मोती को रूप देकर उसे आभूषणों में सजने के लिए मुक्त कर देती है कलकलल करती नदियां सागर से मिलकर उसमें विलीन हो जाती है। लेकिन न तो कभी धरती आकाश से मिलकर, सीप मोती से मिलकर और ना ही नदी सागर से मिलकर इस भावना को कोई नाम देने का प्रयास करती हैं।.. तो फिर क्यों ये समाज मानव से हर रिश्ते का एक नाम मांगता है?

क्या दुनियां में हर भावना और अहसास को रिश्ते का नाम देना जरूरी है।

इस दुनियां में आंतरिक संवेदनाओं के लिए क्या कोई स्थान नहीं.. जो यहां हर अहसास और भावना रिश्तों के तराजू में तुलने के लिए बेबस है।

जीवन मोड़ पर बिछड़ा ...

तिनका- तिनका नीड़ बनाया 
उस पर सारा प्रेम लुटाया
फिर एक हवा का अल्हड झोका..जड़ को चेतन..चेतन को जड़ करने आया
नीड़ मेरा थर -थर थराया..उसका तिनका- तिनका बिखरा और मेरा मन ऐसे बिफरा
जैसे जीवन मोड़ पर बिछड़ा ...  


यथार्थ


नन्ही सी एक कली खिली
देख दुनिया की रंगीनियां
कली मुस्काई शरमाई 
सोचकर यही की बन जायेगी 
वो भी एक दिन सुन्दर फूल
मिलेंगे उसे भी नाज़ुक हांथों
के स्पर्श, मन ही मन नन्ही कली सकुचाई 
कली थी अनजान की बसंत के साथ पतझड़ भी आता है
जब -जब सारे पते झड़ जाते है और तब बगीचा ...बगीचा नहीं उजाड़ नज़र आता है
कली यथार्थ के धरातल से टकराई ...फूल बनंने से पहले ही नन्ही कली मुरझाई




सोमवार, फ़रवरी 22, 2010

नकारात्मक भी एक सृजन हैं

मेरी इन कविताओं को देखकर या पढ़कर मुझे नकारात्मक माना जा सकता है, लेकिन मैं कहती हूं, मेरी इस नकारात्मक प्रवृति ने मुझे जीवन में कई बार ठोकर खाने के बाद भी जीवन के इस संग्राम में खड़े होने की और इसे जीतने की प्रेरणा दी है॥ तो फिर मैं कहती हूं कि कुछ लम्हें बस यूं ही आते है, लेकिन बहुत कुछ समझा और सीखा के चले जाते है॥ कुछ इस तरह।

हां ऐसा भी होता है जिन्दगी में...जब अपनी ही जिन्दगी बेगानी सी लगती है।तब दूर-दूर तक कोई आस नहीं होती, जीवन के लिए प्यास भी नहीं होती..और फिर अपनी ही जिन्दगी का बोझ सहना मुश्किल हो जाता है..सारी शिक्षाएं, सारे उपदेश तब मुंह चिढ़ाते से लगते है।चाहकर भी कुछ ना कर पाने की कसक, रह-रह के मन मे उठती है। और फिर मन खुद को ढाढ़स बधाता है। एक बार फिर से सारी शक्ति को बटोरकर जीवन के महासमर में उतरने को ललकारता है, लेकिन एक नहीं दो बार नहीं अनगिनत बार इस महासंग्राम में पराजय का सामना करता इंसान क्या करें ........और क्या ना करें की कशमकश में उलझता है..फिर भी पार पाने की एक कोशिश जिंदा रहती है.. हालांकि लोग तोलते है इन परेशानियों को पाप और पुण्य के तराजू  में... लेकिन पाप और पुण्य में क्या कोई वास्तव में फर्क कर पाया है। भागती हुई सी इस जिंदगी में क्या एक पल भी सुकून का किसी ने पाया है... यदि हां तो उसने देव भाग्य पाया है।

शनिवार, फ़रवरी 20, 2010

शायद फिर मुझे सुकून मिले।

जीवन के उतार चढ़ाव इंसान को इस कदर झकझोर देते है, कि वह अपनी रूचियों, अभिरूचियों से भी कतराने लगता है, लेकिन जब हारकर कुछ नहीं मिलता तो वह इन्हीं में सुकून और नया रास्ता तलाश करने की कोशिश करता है। सर्विस को तिलांजलि देने के बाद मेरे पास भी इन दिनों इतना समय है कि मैं अपने बारे में सोच पाऊं॥ कहते है ना कि इंसान का अकेलापन उसे स्वंय को जानने का बेहतर मौका प्रदान करता है। अपने को जानने की इस प्रकिया में मैंने निश्चय किया कि जीवन के - अबतक के सफर में जब-जब मेरी भावनाओं, संवेदनाओं ने शब्दों की शक्ल इख्तियार की..वह सब में अपने ब्लॉग मित्र के माध्यम से व्यक्त कर दूं। मेरी लेखन की शुरूआत कविता से हुई..याद नहीं कि कब पहली कविता लिखी, लेकिन जब में १० वीं क्लास में थी तो मेरे पिता जी के एक कवि मित्र जिनका अब देहांत हो चुका है के माध्यम से मुझे पता चला कि मैं भी कुछ लिख सकती हूं। उन्हीं के कहने पर मैंने देशभक्ति विषय पर आयोंजित कविता प्रतियोगिता में भाग लिया और सांत्वना पुरस्कार प्राप्त किया। इसके बाद कई कहानियां, कविताएं लिखी॥ लेकिन न वो किसी को दिखा पाई और ना ही संग्रह कर पाई।
जीवन के इस सफर में जो भी अनुभव और महसूस किया कागज पर उतारती चली गई। जो कुछ बच गया उसे अपने ब्लॉग पर प्रस्तुत करने की कोशिश कर रही हूं। शायद फिर मुझे सुकून मिले।
कुछ ऐसे ही अहसासों के साथ शुरू करती हूं।


प्यार परिचय को पहचान बना देता है।
गीत वीराने में गुल खिला देता है।
यह आपबीती कहती हूं, पराई नहीं हूं।
दर्द आदमी को इंसान बना देता है।
राह में मनचाहा मोड़ लिया करती हूं।
हवाओं के झोकों से होड़ लिया करती हूं।
खुशनसीब होने का मैं नकाब ओढ़ लिया करती हूं।
चाहत जब-जब भी करती हूं, फूलों से कि कांटो से रिश्ता जोड़ लिया करती हूं
..........और कुछ इस तरह मैं ज़िंदगी का रूख मोड़ लिया करती हूं।