शुक्रवार, मार्च 15, 2013

मेरी कूची कहेगी तेरी कहानी प्रकृति रानी





- निर्भयापुर की कलाकार चित्रों से दे रही पर्यावरण संरक्षण का संदेश
- सुनामी को भी उकेरा तस्वीरों में
- प्रकृति से प्यार और लोक कला के संरक्षण की मिसाल

: ''मेरी कूची के रंग कह देंगे, तेरी कहानी है ओ प्रकृति रानी, तेरे ही रूप से सारा जहान है, तस्वीर में रंगों की रवानी तुझसे है, मानव का जीवन भी तुमसे है, वृक्षों को लगाना है, बस मानव को ये समझाना है....ÓÓ मन के इन उद्गारों को 40 वर्षीय मोयना चित्रकार चित्रों में ही बहुत संजीदगी से उतारती हैं। वह ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं है, लेकिन पटचित्र के माध्यम से वह पर्यावरण संरक्षण और विदेशों में भी भारतीय संस्कृति के बीज बो रही हैं। सेक्टर-21 ए स्टेडियम में गांधी शिल्प बाजार में आईं ये लोक कलाकार अपनी कलाकृतियों से समाजिक मुद्दों पर जागरूकता ला रही है।
सुनामी का दर्द ही नहीं सीता की व्यथा भी: उनकी कलाकृतियों में सुनामी का दर्द है तो तस्वीरों से बयां होती रामायण में सीता के रूप में नारी जाति की व्यथा भी उभर आती है। उनकी रामायण के चित्रों वाली किताब न्यूयार्क बेस्ट सेलर्स में हैं। अपनी कला के लिए राज्य स्तरीय पुरस्कार प्राप्त मोयना नारी सशक्तीकरण का भी जीवंत उदाहरण है। अपनी कला के जरिए वह परिवार का पालन-पोषण ही नहीं कर रही, बल्कि अपनी आत्मनिर्भरता से पश्चिम बंगाल के छोटे से गांव निर्भयपुर ग्र्रामीण महिलाओं के लिए मिसाल बनी हुई है।
नारी है प्रकृति का स्वरूप: पांच ïवर्ष की नन्ही उम्र में ही मोयना को प्रकृति का संसार भाने लगा था। मामी को प्राकृतिक रंगों से पटचित्र बनाते देख कर उनका भी पटचित्र कला की तरफ सहज रूझान हो गया। उनका कहना है कि नारी प्रकृति का ही स्वरूप है, उसे समझना हो तो प्रकृति से बेहतर कोई नहीं। उन्होंने बताया कि पटचित्र कला पूरी तरह से प्रकृति से जुड़ी हुई है। प्राकृतिक रंगों से तैयार हुई पट चित्र की कलाकृतियों में प्रकृति की तस्वीर ही बयां होती है।
रंगों का संसार है प्रकृति में: मोयना बताती है कि रंगों को तैयार करने से लेकर हाथ से बनाए हुए कपड़े पर तस्वीर उकेरने तक का काम पटचित्र कला में प्राकृतिक तरीके से किया जाता है। इससे प्रकृति को किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचता। इस कला में प्रयोग होने वाला पीला रंग हल्दी से, ईट से लाल रंग, अपराजिता के फूल से नीला और समुद्र के शंख से सफेद रंग तैयार होता है। यहीं नही हाथ से बनाया कपड़ा जिस पर चित्र बनाए जाते हैं, उसे चिपकाने के लिए बेल का गोंद प्रयोग में लाया जाता है। जब इतना सबकुछ प्रकृति से मिलता है, तो उसकी तस्वीर और उसे बचाना भी हमारा कर्तव्य है। वह कहती हैं कि एक तस्वीर बनाने में कम से कम तीन दिन लगते हैं। उनका कहना है कि तस्वीर 50 रुपये की हो या 30 हजार की उसमें दिया संदेश लोगों तक पहुंचना चाहिए।
सीधे उतर आती है तस्वीर: कागज पर रेखाचित्र उकरेने की जगह मोयना अपने विचारों को सीधे अपने चित्रों में जगह देती है। 'ओ जन गन सोबाई मिलेÓ उनके द्वारा पेड़ों लगाने का संदेश देने वाला गीत है, इस गीत को ही उन्होंने अपने चित्रों में उकेर डाला है। इसमें पेड़ों से जड़ी-बूटी मिलने का संदेश है, तो पेड़ बिना सूने मरूस्थल का भी चित्रण है। वह कहती हैं कि इस तस्वीर के माध्यम से वह पूरे देश को पेड़ लगाने का संदेश देना चाहती है। इसके साथ ही देवी-देवताओं के अलावा उनके चित्रों में लोक कथाएं भी स्थान पाती हैं।




रविवार, मार्च 03, 2013

कोई सुन ले मेरी सिसकियां...




-  यमुना में घुलता जा रहा है जहर
- जीवनदायिनी नदियों में आस्था के नाम पर जहर घोलना भी है देवों का अपमान
- कहीं देर न हो जाए और यमुना गुम जाए
 'कोई सुन ले मेरी सिसकियां कि आस्था के सैलाब में मेरा दर्द भी कराहता है। अब न बहाओ आस्था के नाम पर मेरे सीने में जहर, कि दफन हो जाउंगी एक दिन, न नजर आउंगी एक दिन और तुम ही कहोगे ये तो नाला है, इसमें कहां आस्था आराम पाएगी।Ó विजयदशमी पर इस वर्ष भी यमुना के आंचल में पूजन सामग्र्री के नाम पर टनों प्लास्टिक के बैग, मेटल, हानिकारक सामग्र्री से बनी सजावट सामग्र्री बहाई गई। जीवन दायिनी यमुना नदी का स्वरूप दिन प्रतिदिन बिगड़ता ही जा रहा है। यमुना के ठहरे हुए पानी के ऊपर जमी गंदगी और पानी में खतरनाक रसायनों के कारण बना झाग चेतावनी देता दिखाई पड़ रहा है कि इसे जल्द नहीं थामा गया तो यमुना को पहचानना तो दूर खोजना भी मुश्किल होगा।   
हिंदू संस्कृति हैं प्रकृति का आदर: हिंदू संस्कृति का नाम ही प्रकृति का आदर है। जल जंगल जमीन और हमारी नदियां इस पावन संस्कृति की पहचान है। गंगा को जमीन पर लाने के लिए भागीरथ ने तप किया और धरती को गंगा नसीब हुई, उसी की संगी साथी बनी यमुना, कृष्णा, कावेरी इन नदियों पर आस्था के नाम पर प्रदूषण इतना बढ़ चुका हैं कि ये कलप रही है। ऐसा न हो कि ये नदियां धरती के नक्शे से गायब हो जाएं, इस युग में शायद ही कोई भागीरथ बन पाएं और कठिन तप कर पानी की धारा जमीन पर खींच लाएं। 
वेदों और अनुष्ठानों का जाने असली अर्थ: हमारे जिन पूर्वजों ने  श्राद्ध और नवरात्र जैसे धार्मिक अनुष्ठानों का रास्ता बताया, उन्होंने प्रकृति का स्वरूप कभी नहीं बिगाड़ा। उन्होंने नदियों को गंदा नहीं किया, पेड़ों को नहीं काटा। उसके बदले उन प्राकृतिक संसाधानों ने उनका आदर किया। पानी के शुद्धिकरण के लिए उन्हें जलशोधक यंत्र नहीं विकसित करने पड़े। उन्होंने वेदों और अनुष्ठानों का असली मर्म समझा था, उसका व्यावहारिक प्रयोग जाना था न कि केवल देखा-देखी में धर्म को माना था। केवल एक दिन यानी 24 अक्टूबर की यमुना का स्वरूप यदि को धर्म का कोई असली मर्मज्ञ देख ले तो शायद उसकी आंखों में अश्रु बिंदु छलक आएंगे। कालिंदी कुंज में बहती यमुना पर पॉलीथीन बैग और तरह-तरह के कचरे के ढेर हैं। पर्यावरण विज्ञानी की भविष्यïवाणी कहती हैं कि नदियों के जीवन को बचाने के लिए सार्थक प्रयास करने की जरूरत है। वरना आने वाली पीढ़ी नदियों के अस्तिव को केवल किताबों में जान पाएगी।
परंपरा में शामिल हुआ आधुनिकता का खेल और नदियों में हुआ प्रदूषण का मेल: विकास के क्रम में मानव गंगा मां और यमुना मां और उनके शरण रहने वाले जलचरों की तकलीफ बढ़ाता जा रहा है। विकास और आधुनिकता के मेल में पूजा और पूजन सामग्र्रियां ऐसी हाईटेक हुईं कि फूल पत्तियों, मिट्टी की पूजा सामग्र्रियों की जगह प्लास्टिक की थैलियों, हानिकारक रंगों, धातु के कणों और अन्य खतरनाक वस्तुओं ने ली। 
विसर्जन, समर्पण से पहले सोच लो एक बार नदियां कराहती हैं: हर वर्ष गणपति, नवरात्र पर देव प्रतिमाओं के साथ लाखों टन प्लास्टिक और खतरनाक कचरा विसर्जन सोचते हैं कि देव प्रसन्न हो गए, लेकिन जब-तक इन पूजनीय नदियों को दूषित करते रहेंगे, कोई देवता खुश नहीं होगा, वह कुपित होगा, ऐसा हो भी रहा है, बाढ़, सूखा और न जाने क्या-क्या देवों के इस अप्रत्यक्ष कोप को समझना होगा। पॉलीथीन में पैक पूजन सामग्र्री डालने से पहले सोचना भी जरूरी है कि करोड़ों इंसानों की ये छोटी सी आस्था  नदियों के अस्तित्व पर संकट ला रही है। जब नदियां ही नहीं होगी तो कहां तपर्ण अर्पण, समर्पण होगा।  
नदियों के लिए बने जवाबदेह:  जामिया मिलिया इस्लामिया सिविल इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर गौहर महमूद का बताते हैं कि यमुना में बॉयलिजिकल ऑक्सीजन डिमांड(बीओडी) 10 होनी चाहिए,   लेकिन ये इस निर्धारित मानक को कब के तोड़ चुकी है। इस नदी में बीओडी  180 से 190 तक जा पहुंचा है।  रीति-रिवाज और परंपराएं भी जरूरी है, लेकिन नदी की स्वच्छता को ध्यान में रखकर। अनुष्ठानों के नाम पर प्लास्टर ऑफ पेरिस, खतरनाक रंग, पॉलीबैग नदीं में न बहाएं। यमुना पॉल्यूशन ऑथिरिटी जैसी सरकारी संस्थाएं लोगों को प्रशिक्षण दें। नदियों के किनारे जगह-जगह ट्रेनिंग ग्र्राउंड बनवाएं।  नदी किनारे होने वाले इन अनुष्ठानों पर टैक्स लगाए। ये छोटे-छोटे प्रयास भी बड़ा फर्क ला सकते हैं
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रचना वर्मा