अपनी कोख में जीवन के नए अंकुर को
पोषण देने वाली सृष्टिस्वरूपा है नारी। धैर्य के साथ अपने घर को सदा के लिए त्याग
जीवनसंगिनी बन एक नए परिवार की जिम्मेदारी संभाल लेती है वह, इतना सशक्त होने
के बाद भी जाने क्यों एक पुरुष की बेवफाई के आगे वह इस कदर कमजोर हो जाती है कि
अपना अस्तिव समाप्त करने जैसा आत्मघाती कदम तक उठा लेती है। सुनंदा पुष्कर के
मामले में यहीं हुआ। वह हर तरह से एक सशक्त नारी थी। इस कदर वह भावनात्मक रूप से
कमजोर होकर जीवन से हार कैसे मान सकती थी। जिन भावनाओं से नारी संसार को खूबसूरत
बनाने का दम रखती है, उन्हीं के आगे हार का ये सवाल अब भी
चुभता हैं कहीं। शायद पौराणिक काल से ही नारी अपनी इसी कमजोरी की वजह से दमन का
शिकार होने को मजबूर हुई। हर युग में कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाली सहचर्या को
पुरुष ने उसकी भावना के स्तर पर क्षीण करने का हथियार शायद बहुत पहले ही पहचान
लिया था, इसी वजह से वह उसे इस मोड़ पर ले आता है जहां वह
शराबी पति, पिता भाई से मार खाने के बाद भी उनसे जुड़ी रहने
की विवशता से बंधी रहती है। भावनात्मकता की इस शक्ति को उसे अपने को हर स्थिति में
सशक्त रखने के लिए इस्तेमाल करने की क्षमता विकसित करनी ही होगी। अन्यथा द्रौपदी
का चीर हरण और निर्भया का बलात्कार हर युग की कहानी बनती रहेगी। ब्वॉयफ्रैंड के
फोन न करने से परेशान होकर ट्रेन के आगे कूद जाने वाली, जहर
खाकर जान दे देने वाली प्रवृतियों से बाहर आकर, कुछ सार्थक
कर दिखाने की इच्छा बलवती करना बेहद जरूरी है।
अपनी ज़मीं अपना आसमां
सोमवार, अप्रैल 02, 2018
शनिवार, मार्च 17, 2018
हमें महिला दिवस क्यों मनाना चाहिए ?
https://rachnaverma.blogspot.in/2018/03/blog-post.html
दुनिया में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को आधी आबादी का नाम दिया गया है. आधी
आबादी है इसलिए महिला दिवस मनाना चाहिए और हमें अपने वजूद का अहसास कराना चाहिए.
हमें आधी आबादी बनाया किसने समाज ने दुनिया ने. हमें आधी आबादी के तमगे से नवाज़
कर जब पहले ही आधा-अधूरा करार दिया गया, तो क्या महिला दिवस का दिन मुकर्रर कर ये औरतों को पीछे
धकेलने का एक पुरजोर कदम नहीं है ?
चंद ही दिन बीते हैं इस
साल के महिला दिवस को गए हुए, लेकिन ये महिला दिवस भी कई महिलाओं को एक कमतरी के
एहसास से भर गया. इस मसले को शुरू करने के लिए अनगिनत उदाहरण हैं हमारे पास, लेकिन
अपने को पूरी आबादी कहलाने का कोई ठोस समाधान आज तक हमें नहीं दिखा. एक उदाहरण तो
हालिया ही है. एक बड़ी कंपनी में महिला दिवस पर कांफ्रेस हॉल में सब एकत्र होते
हैं और एक बड़ा सा केक काट कर महिला दिवस का हो हल्ला मचता है. सभी महिला
कर्मचारियों को स्नैक्स का एक डिब्बा थमा के महिला सशक्तिकरण हो जाता है. लेकिन
उसी ऑफिस के महिला वॉशरूम की कर्मचारी को उस गैदरिंग में शामिल नहीं किया जाता और
न ही उसे स्नैक्स का डिब्बा दिया जाता है. वहां मौजूद अन्य महिला कर्मचारी न उस
महिला को गैदरिंग में शामिल होने के लिए कहती हैं और न ही केक खाने को, लेकिन वॉशरूम में फर्श
पर बिखरे पानी को साफ़ करने की नसीहत जरूर दे जाती हैं.
लोकल बस की “महिलाएं ”
लिखी सीटें चीख-चीख कर
कहतीं हैं तुम कमजोर हो तुम महिला हो तुम्हें सीट चाहिए, लेकिन उसी सीट पर पुरुष
बैठे हो और कोई महिला भरी बस में दुधमुंहे बच्चे को लेकर परेशान खड़ी हो. उसे
इंसानियत के नाते सीट देनी चाहिए न कि महिला होने के नाते. यहीं महिला यात्रियों
पर भी लागू होता है. लेकिन विडंबना ये है कि आप उस महिला को सीट देने को कहें तो
तपाक से लीडर न बनने की नसीहत दे दी जाती है और बस से उतरने तक सब ऐसे घूरते हैं
जैसे आप कोई अजूबी सी चीज़ हैं. हां हैं न हम अजूबी चीज़ क्योंकि हम औरत हैं और हमें
केवल और केवल इंसान की तरह देखने की जहमत अभी तक नहीं उठाई गई हैं.
दुनिया में ये फ़ासला
अभी तक पट नहीं पाया है. जिंदगी के कई मोड़ों पर ये खाई साफ़ दिखाई देती है. कोई
पुरूष 10 साल छोटी महिला से शादी कर ले तो कोई उस महिला की तारीफ़ों के पुल नहीं बांधता, लेकिन पुरूष अपने से 10
साल बड़ी महिला से शादी कर ले तो जैसे वो एकाएक हीरो बन जाता है. गोया कि महिला पर
उसने कोई एहसान किया हो. शादी में ये क्यों जरूरी है कि हमेशा लड़की ही लड़के की
उम्र से कम होनी चाहिए. महिला किसी विवाहित पुरुष से शादी कर ले तो वह घर तोड़ने
वाली का ख़िताब पाती है और कोई पुरूष किसी विवाहित महिला से शादी कर ले तो शायद ही
दुनिया ने उसे कोई नाम दिया हो या लताड़ा हो. लड़की को ही शादी के बाद अपना घर
छोड़कर लड़के के घर जाना होगा. इसके कुछ अपवाद भी है लेकिन बिरले ही है.
बिंदी लगाकर और मांग भर
कर ही कोई महिला शादीशुदा क्यों कहलाती है, बिंदी न लगाने वाली विवाहित महिलाएं
क्या अपने पति से प्यार नहीं करती. कोई विधवा होने का बाद दूसरी शादी कर ले तो
समाज कितनी सहजता से इसे स्वीकार कर पाता है, लेकिन पुरुष के विधुर होते ही उसकी
शादी की पुरजोर कोशिशें की जाती हैं.
किसी भी औरत का मां बनना
और न बनना उसका नितांत अपना फ़ैसला है, लेकिन मां न बनने से औरत को अधूरी कहने का
रिवाज़ क्यों कर ख़त्म नहीं होता. एक पुरुष अविवाहित रह सकता है, लेकिन एक महिला
जब अविवाहित रहना चाहे तो क्यों समाज़ ये बात आसानी से पचा पाता है.
किसी लड़के के छाती के
बाल शर्ट से झलक आएं तो उसका पौरूष झलकता है और गलती से किसी लड़की के कांख के बाल
या ब्रा का स्ट्रेप दिख जाए तो वो बेपरवाह और बेशर्म कहलाती है. क्यों हम आदमी की
तरह ही औरत के शरीर को सहजता से नहीं ले पाते. किसी महिला की अचानक मौत हो जाएं तो
सब अफेयर, प्रेगनेंट के कयासों के साथ उसके कैरेक्टर का ऑपरेशन करने लगते हैं.
किसी अविवाहित लड़की के
गर्भवती होने पर उसके लिए ही समाज कुलटा, बदचलन जैसे उपनामों से उसे नवाज़ता है,
लेकिन उसे गर्भवती करने वाले पुरुष के लिए समाज को शायह ही अब तक कोई सटीक
अपमानजनक शब्द विशेष मिल पाया हो. किसी की बेइज्जती करनी है तो शुरू हो जाइए मां
बहन की गालियों से, क्यों आपसे बाप भाई की गाली से बेइज्जती नहीं करवाई जाती.
औरत से इश्क किया जा सकता
है, लेकिन वो इश्क का इज़हार कर डाले तो बेहया हो जाती है, क्योंकि इश्क और सेक्स
लिखती औरतें सब को भा सकती हैं, लेकिन इश्क और सेक्स करती औरतें ख़ुद –बख़ुद बेहया
हो जाती हैं. इतना सब होने के बाद भी महिला दिवस का ढोल पीटना बेमानी और ख़ुद को
दिन में सपने दिखाने सरीखा हैं.
गुरुवार, सितंबर 12, 2013
22 साल के दर्द की दवा तलाशती हूं....
सरबजीत सिंह की बहन से ये बातचीत उनके 3 सितंबर 2012 में नोएडा आगमन पर हुई थी, लेकिन किसी कारण वश ये दैनिक जागरण में प्रकाशित नहीं हुई। आज पुरानी फाइल चेक करते समय इस पर नजर पड़ी तो लगा कि इसे शेयर किया जाना चाहिए।
- पहले ही सरबजीत का मामला गंभीरता से लिया जाता तो घर होता वह
- भाई को वापस लाना ही लक्ष्य
''सरहदों की हदें इस कदर पक्की हैं कि तेरे-मेरे दर्द का उससे वास्ता नहीं, मेरे घर का एक टुकड़ा सरहद के उस पार आज भी है, चंद मीलों के इस फासले को सदियों में तब्दील कर डाला सियासतों के चंद सिलसिलों नेÓÓ पाक में बंद सरबजीत सिंह की दीदी दलबीर कौर के दिल में यहीं सवाल बार-बार उठता हैं कि आखिर उसके छोटे भाई का दोष क्या था, जो उसे अपनों से दूर होकर जिंदगी काटनी पड़ रही हैं। भाई की रिहाई के लिए अभिनेता रजा मुराद की मुहिम के तहत वह उनसे मिलने नोएडा आई थी। भाई के पाक कैदी होने का उनके परिवार को जो सिला मिला वह उन्होंने बयां किया।
नौ महीने तक पता नहीं था भाई का: दलबीर बताती हैं कि पंजाब के भिखीविंड में उनका किसान भाई सरबजीत सिंह खुशी से रह रहा था। 28 अगस्त 1990 को अचानक भाई गुम हो गया। दोस्तों, रिश्तेदारों में ढूंढा, लेकिन नौ महीने तक कुछ पता नहीं चला, अचानक घर में एक चिट्ठी आई। सरबजीत ने इसमें लाहौर कोर्ट में पहली पेशी का पूरा मजमून लिख डाला। पाक हुकूमत ने उसे सीधे साधे किसान से मनजीत कौर बम धमाके के आरोपी का तमगा दे डाला था, उसके बाद इतनी चिïिट्ठयां आई जिनकी गिनती भी नहीं की जा सकती।
हुकूमत ने नहीं लिया गंभीरता से: उनके परिवार की इस दिक्कत को शुरूआती दौर में हिन्दोस्तान की सरकार से गंभीरता से नहीं लिया, वरना अब तक भाई रिहा हो गया होता। उसे एक आम नागरिक की तरह रिहा कराने के बदले उसकी रिहाई की मांग भी आंतकवादी मुद्दे को लेकर की जाती। ये कहना है दलबीर कौर का। वह बताती हैं कि तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव से लेकर गृहमंत्री से वह इस मामले को लेकर मिलती रहीं थी। इस मामले को हवा मीडिया में आने के बाद मिली वह मीडिया की शुक्रगुजार हैं। मीडिया से उनकी अपील है कि सितंबर में प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री की प्रस्तावित पाक यात्रा से पहले इस मुद्दे को उठाएं तो शायद वह इस वर्ष की दीपावली अपने भाई के साथ मना पाएं।
पल-पल कमी महसूस होती है सरबजीत की: सरबजीत पिता के बाद परिवार में दूसरा मर्द था। जब वह गुम हुआ छोटी बेटी पूनम 23 दिन और बड़ी बेटी स्वपनदीप कौर दो ïवर्ष की थी। बेटियों के सिर बाप का प्यार का साया छीन गया। पैरेंट्स मीटिंग में भाभी सुखप्रीत अकेली जाती, बच्चे पिता के बारे में पूछते तो उसकी आंखों से आंसू झरते। घर की आर्थिक स्थिति भी खराब हो चली थी। पिता सुलखन भाई की फोटो को सोने से पहले सैल्यूट करते और कहते 'साब जी में सोने चला, तुमसे मिलना चाहता हूं, जल्दी आ जाओं कहीं तुम्हारे आने से पहले न चल दूं।Ó गांव के किसी भी समारोह में जाते भाई को याद कर रोते रहते। एक दिन इसी दुख में चल बसे।
खुशी देकर गम दिया: वह बताती है जब मीडिया में हर तरफ उनके भाई की रिहाई की खबरें चल रही थी, परिवार में जश्न का माहौल था। अचानक जैसे घर में मातम छा गया, क्योंकि भाई की जगह सुरजीत की रिहाई हुई। हालांकि ये अच्छा हुआ कि किसी को तो उसके घर वापस आने को मिला।
22 साल से राखी को इंतजार: वह कहती हैं कि विवाहित होने के नाते कई बार उन्हें भाई की रिहाई की इस मुहिम के लिए ससुरालवालों के खिलाफ भी जाना पड़ा, लेकिन उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य ही भाई को वापस लाना बना लिया है। 22 साल से उनकी राखी भाई की कलाई का इंतजार करती रहीं। वह बाघा बार्डर पर जाकर फौजियों को राखी बांधती रहीं, लेकिन जब भी वहां जाती दो सरहदों पर खिंची उस लाइन को घंटों देखा करती। सोचती ये न होती लाहौर और बाघा साथ मिलकर प्यार का गीत गाते।
राहुल गांधी के लिए दुआ: वर्ष 2008 में राहुल गांधी ने सरबजीत के मामले को गंभीरता से लिया। इसके बाद सोनिया जी, गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे, विदेश मंत्री एसएम कृष्णा ने भी उनके मन में उम्मीद जगाई है। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के बेटे अभिजीत मुखर्जी की पहल के लिए उनका परिवार अहसानमंद है। पाक में असमां जहांगीर, एनजीओ और आसिफ अली जरदारी की ईमानदार कोशिशों के साथ ही अपने देश के हर एक बाशिंदे से मिले सहयोग को सलाम करती है।
---------------------
रचना वर्मा
शुक्रवार, सितंबर 06, 2013
जीवन सरीखी है बांसुरी : पंडित हरिप्रसाद चौरसिया
पंडित हरिप्रसाद चौरसिया का ये साक्षात्कार संपादक जी ने महज ये कह कर छपवाने से इंकार कर दिया था कि इसका नोएडा से क्या मतलब. कौन पढ़ेगा पंडित हरिप्रसाद चौरसिया को नोएडा में. इसे मैंने अपने ब्लॉग में स्थान देना उचित समझा.
- बांसुरी अजेय है और रहेगी
-हुनर की तुलना करना ठीक नहीं
- संगीत की एक है बोली
''मुझे अंग्रेजी अधिक नहीं आती, बच्चों हिंदी में बात करूंगा तो समझ जाएओ ना "चेहरे पर विस्मित कर देने वाली कृष्ण सरीखी मुस्कान, अधरों से कुछ दूरी पर हाथों में बांसुरी... कुछ इस अंदाज में मशहूर बांसुरी वादक पंडित हरिप्रसाद चौरसिया सरला चोपड़ा डीएवी सेंटनेरी स्कूल के छात्रों से रूबरू हुए थे. इस दौरान उन्होंने बांसुरी और उसके भविष्य को लेकर विशेष बातचीत की।
चंद्रमा और बल्ब के प्रकाश की तुलना नहीं: बांसुरी वादन के शिखर पर पहुंचने वाले पंडित चौरसिया न बांसुरी वादन का भविष्य उज्जवल बताया। उन्होंने कहा कि आधुनिक वाद्य यंत्रों के बीच आज भी बांसुरी अजेय है, क्योंकि बल्ब का प्रकाश अलग है और चंद्रमा का अलग। बांसुरी भूत में थी, वर्तमान में है और भविष्य में भी रहेगी। ये वाद्य पूरे विश्व में अपनी पहचान बना चुका है। भले ही नई पीढ़ी बांस की बनी बांसुरी न बजाती हो, लेकिन कहीं स्टील तो कहीं अन्य वस्तुओं से बनी बांसुरी वह अपने संगीत में शामिल कर चुकी है।
जीवन सरीखी है बांसुरी: बांसुरी सबसे पुराना वाद्य यंत्र है। भगवान श्रीकृष्ण की सोच ने इसे लोक वाद्य बनाया और उन्ही की तरह ये हर जगह पहुंच गई। इसका निर्माण कारखाने में नहीं होता। एक तरह से बांसुरी मानव जीवन सरीखी है, इसकी उम्र और जीवन -मरण भी अनिश्चित है। इसके लिए जंगलों से चुन के बांस लेना पड़ता है, वह बांस सीधा और गांठ रहित होना आवश्यक होता है। इसके निर्माण के बाद मानव जीवन की तरह ही इसके चलने का कोई पता नहीं होता।
सामान्य और साधारण ही होता है अप्रितम: पंडित चौरसिया ने कहा कि जो भी सादगी से परिपूर्ण है, वह मधुर है, सुंदर, अप्रितम है, संगीत के साथ भी ये बात लागू होती है। ये जरूरी नहीं आगे आने वाले बांसुरी वादन की पीढ़ी उनकी बांसुरी वादन की विरासत को आगे बढ़ाए, इसलिए वह हुनर की तुलना को सही नहीं समझते। जिस तरह हर फूल की अपनी खूबसूरती होती है, उसी तरह हर एक के हुनर की अपनी खासियत होती है।
संगीत का एक है मजहब: बांसुरी पर ओम जय जगदीश भी बजता है और जिंगल बेल जिंगल बेल भी दोनों ही संगीत का रूप है भले ही भाषा अलग हो। संगीत कहीं का भी हो, उसके स्वर लय एक है। संगीत किसी देश या क्षेत्र विशेष का नहीं होता, बस हमारे विचारों का अंतर ही इसे देश काल की परिधि में बांधता है। ये बात फिल्मी संगीत पर भी लागू होती है, स्वर अच्छे लगे, लय, ताल ठीक हो, अच्छे से लिखा गीत हो तो फिल्मी संगीत भी अच्छा है। इतना ही कहंूगा कि जो जिसको भा जाएं वो अच्छा है।
संघर्ष में है जीवन का आनंद: पंडित चौरसिया बताते हैं कि उनके पिता उन्हें कुश्ती के दांव सीखा पहलवान बनाने के इच्छुक थे। पिता की इस इच्छा से उन्हें जीवन से संघर्ष करने की सीख मिली। जिस तरह कुश्ती में जीतने के लिए संघर्ष करना पड़ता है, उसी तरह जीवन के हर क्षेत्र हर विषय में संघर्ष हैं, क्योंकि संघर्ष में ही जीवन का आनंद है
--------------------
गुरुवार, जून 27, 2013
साल रहा अपनी ही जमीं में जमींदोज होने का दर्द
केदारनाथ अापदा पर लिखी गई मेरी रिपोर्ट जिसे दैनिक जागरण ने प्रकाशित करना जरूरी
नहीं समझा था.
- राहत सामग्र्री को भी तरसे आपदाग्र्रस्त इलाकों के बाशिंदे
- घर-बार सब ले गया पानी का बहाव, अब जिंदगी के बहाव की चिंता रही साल
- भूखे-प्यासे बच्चों की जिंदगी बचाने के लिए नमक भी मुश्किल से नसीब
... अपनी ही जमीं में जमींदोज हो जाना और पल-पल जिन्दगी की टूटती सांसों को थामने की जद्दोजेहद लगे रहना, कुछ ऐसे ही असहनीय और अकल्पनीय दर्द को प्राकृतिक आपदाग्र्रस्त उत्तराखंड के स्थानीय बाशिंदे रोज झेल रहे हैं। आपदा में फंसे तीर्थयात्रियों और पर्यटकों को वहां से बाहर निकलने के लिए शासन-प्रशासन सब एक जुट है, लेकिन यहां की मिïट्टी में रचे-बसे लोगों को उनके पैरो तले जमीन और छत दिलाने की कोशिश का कहीं निंशा तक नहीं दिखता। ये केवल चमोली के गांव नारायणबगड़ की ही हकीकत नहीं बल्कि आपदाग्र्रस्त देवभूमि के जर्रे-जर्रे का यही हाल है। आपदा के मारे इन लोगों के पास अपनी ही मिïट्टी में दम साधने के सिवा कोई चारा नहीं बचा है।
एक था नारायणबगड़: कर्णप्रयाग से ग्वालदम को जाने वाला मुख्य मार्ग चमोली के नारायणबगड़ गांव की पहचान था। अंग्र्रेजों का बनाए 150 वर्ष पहले बनाए नारायणबगड़ पुल का ऐतिहासिक महत्व का गवाह था। इस इलाके में 150 लोग अपनी गुजर -बसर ढाबो और छोटे-मोटे व्यवसाय कर चला लेते थे, लेकिन 15 जून के बाद यहां का मंजर पूरी तरह बदल गया है। 40-50 लोगों के रोजी-रोटी का सहारा छिन गया, घर-द्वार सब आपदा ने लील लिया। इन स्थानीय लोगों का यहां रहना इनकी मजबूरी ही नहीं बल्कि अपनी जन्मभूमि से जुड़ाव भी है। इन लोगों को एयर लिफ्ट करके यहां से बाहर जाने की आस नहीं, लेकिन हेलीकॉप्टर की राहत सामग्र्री का इंतजार जरूर है। इस पर भी पर्यटकों और यात्रियों को आपदाग्र्रस्त इलाके से बाहर निकालने चिंता में इन स्थानीय बाशिंदों की अनदेखी हो रही है। दवाईयां तो दूर रसद भी यहां नहीं पहुंच पा रही है।
आंखों में बेघर होने का दर्द और सिर पर 15 भूखे पेट पालने की चिंता: ढाबा चलाकर विरेन्द्र सिंह कठैत और उनकी पत्नी पार्वती 15 लोगों को परिवार पालते थे।
ये दंपत्ति अपने चार बच्चों के साथ ही स्वर्गीय बड़े भाई के तीन बच्चों के साथ ही बहन के चार बच्चों का भी पेट पाल रहे थे। अब न इनके पास ढाबा रहा और न घर। पार्वती की आंखों में आंसू रूकने का नाम नहीं ले रहे, आगे बच्चों के भविष्य क्या होगा यही सोच कर वह गश खाकर गिर जाती हैं। विरेन्द्र सिंह ने बताया कि सड़क किनारे ढाबे के ढहने के बाद उन्होंने जैसे -तैसे प्राथमिक स्कूल में शरण ली। उनके गांव के कुछ लोगों की मदद से उन्हें थोड़े चावल मिले है उन्हें पानी में नमक मिलाकर वह बच्चों को दे रहे है। हर सुबह उन्हें यह चिंता रहती हैं कि बच्चों को कहीं कुछ हो न जाएं। प्रशासन या अन्य किसी बाहरी सहायता उन्हें नहीं मिली है।
घर की चाबी की गुच्छा है संपत्ति के नाम पर: आंगनवाड़ी कार्यकर्ता जानकी अपनी बेटी और बूढ़े पिता के साथ सड़क पर है, पानी के रेले में ढहते किराए के आशियाने की याद कर वह फफक पड़ती है। तलाकशुदा इस महिला का कहना है कि उन्हें समझ नहीं आ रहा हैं कि वह कहां जाएंगी, न आमदनी का सहारा रहा और न घर का ठिकाना। उनके पास संपत्ति के नाम पर तीन चाबियों वाला गुच्छा भर ही रह गया। आंखों की कोर में बार-बार आती नमी को पोछते हुए इतना ही कहती हैं कि शासन यहां से लोगों के बाहर निकलाने और उनकी कुशलता के लिए तो प्रयास कर रहे हैं, लेकिन वह तो यहीं के रहने वाले है वह कहां जाएं। किसी भी प्रकार की सहायता न मिलने से उनके लोग भूख और प्यास से बेहाल है।
गिरीश तिवारी की केदारनाथ से दी गई जानकारी के बाद मेरे द्वारा लिखी गया हाल-ए- केदारनाथ
शुक्रवार, जून 21, 2013
मासूम आंखों में समाया प्रकृति का भयावह रूप
- समझ आया आपदा में भोजन का महत्व
- प्रकृति के लिए न बने कठोर
- डूबते मकान और सड़के देख डर बैठ गया मन में
छह जून को हम 14 छात्रों का दल इनमी ट्रैंकिंग दल के साथ दिल्ली से ऋषिकेश के लिए निकला। सात जून सुबह ऋषिकेश बेस कैंप पहुंचे। कल्पना भी नहीं की थी वापसी में उस बेस कैंप का नामोनिशां तक नहीं रहेगा। सात जून से 20 जून घर पहुंचने तक मेरी आंखों में पानी में डूबती सड़कों और मकानों का मंजर खौफ जगाता रहा। प्रकृति के इस भयावह रूप के दर्शन मैंने अपने पांच साल की ट्रैकिंग में कभी नहीं किए थे। घर सही सलामत वापस लौट कर मुझे इतना समझ आ गया कि हमें पर्यावरण के प्रति कठोर नहीं होना चाहिए, पेड़ काटने पर लगाम लगानी चाहिए, अपनी नदियों को प्रदूषण से बचाना चाहिए। इस वाकये के बाद मैं और मेरे दोस्त पर्यावरण संरक्षण के लिए जागरूकता फैलाने में अपना पूरा योगदान देंगे। टिहरी जैसे डैम बनाने से पहले 10 बार सोचना चाहिए।
सात जून को ऋषिकेश बेस कैंप से हम केदारनाथ से भी आगे दियारा टॉप के लिए निकले कम से कम जमीन से 11,000 फीट ऊपर दियारा चारगाह में चार दिन बिताने के बाद हम वापस लौट रहे थे, अंदाजा भी नहीं था कि नीचे इतनी तबाही मची हुई है, 15 जून को बारिश हो रही थी, हमारे साथ गए इंस्ट्रक्टर फोन पर मौसम का हाल पूछ- पूछ कर हमारे दल को आगे लेकर बढ़ रहे थे। रास्ते में पानी के साथ बहते बड़े-बड़े मकान, पानी पर तैरते कार, ट्रक और बचाने की गुहार लगाते लोग, पानी में डूबती जाती लंबी-लंबी सड़के देख हम सभी काफी डर गए। 16 जून की सुबह हम उत्तरकाशी पहुंचे, लेकिन पता चला की जिस ऋषिकेश के जिस बैस कैंप में हम ठहरे थे, वह बह गया। हमारे दल के लिए वह सबसे बड़ा सदमा था। छह लड़कों और आठ लड़कियों के हमारे दल में कई बच्चे होम सिकनेस का शिकार हो गए। दो लड़कियां की हालत ज्यादा बिगड़ गई। अलग-अलग तरह के भयावह ख्याल आ रहे थे, घर नहीं पहुंच पाएं तो बस के चलते-चलते रोड धस गई तो, हम सब आपस में ऐसी ही बातें कर रहे थे। उत्तरकाशी के राधिका होटल में हमारा दल रूका था और 10 दिनों में भेलपूरी और ब्रेड बटर ही हमारा भोजन था। हमारे इंस्ट्रकटर पानी और भोजन बरबाद न करने को कह रहे थे और हम सबको पहली बार पता चला कि भोजन का महत्व क्या है। हम सारे होटल की छत पर खड़े होकर प्रकृति की विनाशकारी शक्ति का आकलन अपने- अपने अंदाज में कर रहे थे। हमारे सामने बिल्डिंग जमीनदोंज हो रही थी, लोग अफरा-तफरी में भाग रहे थे। इस बीच हमारे इंस्ट्रक्टर्स को हमारे अभिभावकों के लगातार फोन आ रहे थे, वह हमारे बारे में काफी चिंतित थे। हमारे इंस्ट्रक्टर्स हमसे तैयार रहने को कह रहे थे। 19 जून को बारिश की रफ्तार कम हुई और हम बस के जरिए ऋषिकेश पहुंचे और यहां से दिल्ली के लिए निकले। 20 जून की रात दो बजे हम दिल्ली पहुंचे। लगभग 18 घंटे की इस यात्रा में हम यहीं मना रहे थे कि घर पहुंच जाएं। दिल्ली पहुंचते ही सभी के मां -पापा गले लग कर हमें प्यार कर रहे थे, कई बच्चों की मम्मियां रो रही थी। मैं हमेशा ट्रैकिंग से आकर अपने रूम में चला जाता था, लेकिन इस बार ऐसा पता नहीं क्या था कि मां को गले लगाकर कुछ मिनट तक सोचता रहा।
प्रस्तुति : 14 वर्षीय करन नाग, सेक्टर-36 नोएडा
रविवार, मई 19, 2013
हां मैं हिरोइन हूं...
बचपन में एक बार मेरी बुआ ने मुझे 'हिरोईनÓ कहा तो मैं ऐसी बिदकी जैसे कि किसी ने मुझे विषैला डंक मार दिया हो, उस छोटे से पहाड़ी कस्बे अल्मोड़ा की आबो हवा में पली एक लड़की के लिए 'हिरोईनÓ का अर्थ शायद उतना ही भद्दा और अभद्र था जैसे कोई गाली। ये उस वक्त की बात है जब शायद मैं 20 वर्ष के उस सुहाने से दौर से गुजर रही थी, जब मन सपनों के आकाश में उड़ान भरा करता था और कल्पना के सागर में गोते लगाया करता था। उस दौर और आज के दौर में हिरोईन का अर्थ मेरे लिए कितना व्यापक हो गया ये मुझे आज एक चैनल पर हिरोईन मूवी के देखते समय हुआ। पत्रकारिता के इस पेशे में रहते हुए उम्र का तीसवे पड़ाव पर मुझे भी अपनी स्थिति उस हिरोईन जैसी ही लगी। हालांकि हिरोईन जैसी सफलता का आकाश तो मैंने नहीं छुआ, लेकिन एक छोटे से कस्बे से आकर दिल्ली -एनसीआर के पत्रकारिता जगत में एक छोटा सी जगह बना ली। पत्रकारिता का जगत फिल्मी दुनिया से ज्यादा अलग नहीं है, बस अंतर इतना ही है कि यहां पर्दे पर अभिनय नहीं होता, वास्तविक अभिनय जरूर होता है, वहीं नैतिक मूल्यों से परे कि प्रतिस्पर्धा। मीडिया हॉउस में विशेषकर प्रिंट मीडिया में सजावटी तौर पर महिलाओं और युवतियों का प्रतिनिधित्व है। यहां भी काबिलियत को कम चिकने चमकते चेहरों पर करियर का ग्र्राफ टिका करता है। शायद यौवन की दहलीज पर पत्रकारिता में कदम रखने के बाद भी मैं ये समझ नहीं पाई थी, क्योंकि ईमानदारी से पत्रकारिता और रिपोर्टिंग का जुनून मेरे सिर पर सवार था, पर उम्र के 36 वें पड़ाव पर मेरा हाल भी हिरोईन फिल्म के किरदार मेघा अरोड़ा की तरह असुरक्षा की भावना से भरा रहता है। लगने लगा है 11 वर्ष इस पेशे में खून पसीना लगा दिया, लेकिन अब भी खाली हाथ और ऐसा एकाकीपन जो शायद कभी खत्म ही न हो। कभी-कभी इस पेशे में आ रही युवा फैशनपरस्त लड़कियों से भी स्वंय को असुरक्षित महसूस करने का भाव। उसमें मेरे अपने पेशे के प्रति मेरा समर्पण भी मुंह चिढ़ाने लगता है।
सदस्यता लें
संदेश (Atom)