रविवार, अप्रैल 28, 2013

नारी सशक्तिकरण: हौसले से बदल डाली तकदीर की तस्वीरें






- महिला हस्तशिल्पियों ने बयां की नारी सशक्तिकरण की कहानी
- हाथ के हुनर को बनाया आत्मनिर्भरता का हथियार
- विषम परिस्थितियों में नहीं मानी हार
रचना वर्मा,नोएडा: ख्वाबों की ताबीरों के लिए हिम्मत और हौसलों का हासिल ही सब कुछ है, क्या हुआ जो तालीम का मौका नहीं मिला, क्या हुआ जो शहरों में रहने का सिलसिला नहीं मिला,अपने हुनर से किस्मत का रूख मोड़ ख्वाबों को धरातल पर ला खड़ा किया। देश के विभिन्न राज्यों से सेक्टर-21 ए स्टेडियम में गांधी शिल्प बाजार में आई प्रत्येक महिला हस्त शिल्पी की अपनी कहानी है, लेकिन सुदूर गांवों में रहने वाली इन महिलाओं ने अपनी कला से नारी सशक्तीकरण को देश में सच कर दिखाया है। यहां लगी 150 स्टॉल में 25 फीसद इन महिलाओं की हैं। अपने परिवार में ही नहीं बल्कि गांव में इनकी सफलता अन्य महिलाओं को भी प्रेरणा दे रही है।
हुनर से संभाला तलाक के बाद परिवार: अलीगढ़ के अमीनिशा की 32 वर्षीय शाहना के जिंदादिल मिजाज को देख शायद ही कोई इस महिला के दर्द का अनुमान लगा पाएं। 11 वर्ष पहले पति ने तीन बच्चों के साथ उन्हें अकेला छोड़ दिया, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अपने हाथ के हुनर को ही मुफलिसी और मुसीबत से निकलने का हथियार बना डाला। 10 वीं पास अमीना एपलिक और पैच वर्क के काम से अपना अलग मुकाम बनाया। वह बताती हैं कि जिंदगी में सफल होने के लिए हिम्मत और हौसला होना चाहिए। उनकी स्टॉल पर पैच वर्क का सामान लेने आने वाले भी उनकी खुशमिजाजी के कायल हुए बिना नहीं रहते।
घर-घर जाकर बेचा कांथा: 15 वर्ष पहले जब पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के उत्तराकोना गांव की पदमा घर-घर जाकर कांथा (कपड़े पर कढ़ाई) के कपड़े बेचा करती थी, तो उन्होंने सोचा भी नहीं था कि उनका ये काम उन्हें ही नहीं उनके परिवार को अलग पहचान दिलाएगा। वह बताती हैं कि शादी के बाद उन्होंने परिवार की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए ये काम सीखा। कई बार लोग कपड़े पर काम करने को नहीं देते थे, लेकिन उन्होंने भी ठान ली कि पीछे नहीं हटना। मौजूदा समय में उनके कांथा वर्क की मुम्बई तक मांग है। उनके अंडर 150 लड़कियां रोजगार पा रही है। महीने में 10 से 20 हजार की कमाई हो ही जाती है।
ससुराल में जमाई धाक: कोलकता की 35 वर्षीय सीमा बनर्जी को शीप लेदर के काम में महारत हासिल है। शादी से पहले वह ये काम किया करती थी, लेकिन उसके बाद भी उन्होंने अपने इस शौक को इस कदर बढ़ाया कि उनके सुसराल वाले उनके कायल हो गए। शीप लेदर के पर्स और अन्य सामान बनाकर वह आस्ट्रेलिया, कनाडा, यूएस में भी अपने काम को पहचान दिला चुकी है। उनके इस व्यवसाय से उनके पति भी जुड़ गई हैं।
पत्थर को तराश कर बनाती है क्रिस्टल: तमिलनाडु के त्रिचनापल्ली की मंजुला और सुलोचना कठोर पत्थरों को क्रिस्टल की खूबसूरत मालाओं में तब्दील करती है। तांबे के तार में भी इन क्रिस्टल को पिरोना का काम करती है। दोनों बताती है कि इससे परिवार की आय भी बढ़ती है और उनके खुद के खर्चे का इंतजाम भी हो जाता है।
राज्य स्तरीय अवार्ड तक बनाई पहचान: आठ साल की उम्र में कांथा स्टिच का काम पकड़ा और उसे इस मुकाम तक रजिया ने लाकर छोड़ा, जहां कोलकता ही नहीं बल्कि पूरे देश में उनका कांथा मशहूर होने लगा। ऐसे रूढि़वादी परिवार में जहां औरत के सिर से पल्लू हटने को भी बड़ी गलती माना जाता है, सिर पर पल्लू रखकर ही उन्होंने सफलता की इबारत लिख डाली।
जूट के बैग से पल रहा परिवार का पेट: बिमला ने शादी के बाद पति की गरीबी का रोना नहीं रोया, बल्कि उनके जूट के बैग बनाने के कारोबार में रम गई। पति जूट के बैग बनाते है और वह उनकी कटिंग करती है। उनकी स्टॉल में सजे जूट के बैग उनकी कलात्मकता को बताते हैं। वह कहती हैं कि उन्हें संतुष्टि है कि उनका परिवार चल रहा है।
अपनी कमाई से आत्मनिर्भरता का अहसास:सेक्टर-31 निवासी 33 वर्षीय अक्षिता अग्र्रवाल के चेहरे पर उनके आत्मनिर्भरता का अहसास साफ झलकता है। शादी के बाद आकांक्षा ने अपनी कमाई करने के लिए पुराने कपड़े से मल्टी परपज पाउच के हुनर को निखारा। आज उन्होंने अपने इस काम से पांच जरूरतमंद लड़कियों को रोजगार दिया है।
अविवाहित रहकर संभाली परिवार की जिम्मेदारी: असम की 50 वर्षीय मीना अविवाहित है। उन्हें असम सिल्क के काम में प्रवीणता है। गोवाहटी में अपने परिवार की वह सर्वेसर्वा है। उन्होंने अपने काम से परिवार की जिम्मेदारियों को बखूबी अंजाम दिया है।
हर एक का संघर्ष सफलता की कहानी: इटोंजा की 40 वर्षीय रूबीना ने पति के कैंसर से भी हार नहीं मानी और कुशलता के साथ चिकन के कारोबार संभाला। गुजरात की गीता, सीता ने भी जरी के काम को परिवार के पालन का जरिया बना डाला। अरूणाचल की टोका रूपा ने कागज के फूलों, आंन्ध्रा के गांव निम्मलकुंटा की ममता ने बकरी के चमड़े पर कलमकारी हस्तकला के रंग बिखेरे, बिहार की अंजू केसर और परिवार की जरूरतों को पूरा किया।
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रचना वर्मा


इस उजली तस्वीर में है स्याह भी बहुत कुछ





- 1952 के बाद जिले को नहीं मिली महिला विधायक
- पीएनडीटी एक्ट के तहत मात्र दो अल्ट्रासाउंड केंद्रों पर कार्रवाई
- बालिकाओं की संख्या में भी जिला पिछड़ा
- आधी आबादी साक्षरता में भी रह गई पीछे
संवाददाता,नोएडा: नारी सशक्तीकरण की एक उजली तस्वीर है आज का दौर, लेकिन इस तस्वीर में अभी भी ऐसे कई स्याह पहलू जिन्हें उजला किए बिना आधी आबादी को अपने अस्तिव की जंग जीतना मुश्किल लगता है। फिर चाहे वह शिक्षा देने के मामले में लड़कियों के साथ होता भेदभाव हो या फिर कन्या भ्रूण हत्या का भयावह सत्य।
 लिंगानुपात में प्रदेश में चौथा संवेदनशील जिला गौतमबुद्ध नगर:  भ्रूण हत्या में यूपी के 10 जिलों में गौतमबुद्धनगर चौथे स्थान पर है। यहां प्रति हजार लड़कों पर वर्ष 2011 में 852 लड़कियां है। एक हजार पुरुषों पर स्त्रियां 10 वर्ष पहले यह संख्या 841 थी।  वहीं 0-6 वर्ष के आयु वर्ग में भी जिला बदनाम है। यहां एक हजार लड़कों पर मात्र 845 बच्चियां है। साल 2011 की जनगणना में पश्चिमी यूपी का लिंगानुपात 908 से नीचे हैं। गौतम बुद्ध नगर यूपी के 71 जिलों में दूसरी बार लिंगानुपात में सबसे फिसड्डी रहा। लिंगानुपात का ये भारी अंतर कहता है, कहीं कुछ गड़बड़ तो जरूर है। पश्चिमी यूपी आने वाले समय में बेटियों को तरसेगा।
पीसीपीएनडीटी एक्ट का जिले में हाल: जन्म से पूर्व लिंग परीक्षण प्री कंस्पेशन एंड प्रीनेटल डाइगनोस्टिक एक्ट(पीसीपीएनडीटी) के तहत अपराध है, लेकिन पूरे प्रदेश में इस एक्ट का प्रभावी प्रयोग नहीं हो पाया है। यूपी में इसके तहत वर्ष 2002 से 2013 तक 57 कोर्ट केस रजिस्टर हुए। इसमें से केवल आठ का निपटारा हुआ, लेकिन सजा किसी को नहीं हुई। जिले में इस एक्ट के तहत वर्ष 2005 में सेक्टर-12 और 22 के अल्ट्रासाउंड केंद्रों का रजिस्ट्रेशन रद्द किया गया। ये केस अदालत में लंबित है।
जिले के अनाथ आश्रमों लड़कियों हैं अधिक: जिले के अनाथ आश्रम सबूत है कि लड़कियों को लेकर समाज की मानसिकता में अधिक बदलाव नहीं आया है। यहां रहने वाले बच्चों में लड़कियों की संख्या अधिक है। सेक्टर-12 स्थित साईं कृपा आश्रम के 42 बच्चों में केवल 14 ही लड़के हैं। सेक्टर-19 ग्र्रेस होम के 106 बच्चों में 60 फीसद लड़कियां हैं। सीडब्ल्यूसी के बालगृह में भी वर्ष 2011 में दो से चार महीने की तीन नवजात बच्चियां आईं।
पीएनडीटी एक्ट पर भारी सामाजिक भ्रांतियां : सुप्रीम कोर्ट में कन्या भ्रूण हत्या को लेकर पब्लिक इंटरस्ट में लिटिगेशन डालने वाली एडवोकेट कमलेश जैन कहती हैं कि हमारे समाज में बेटियों को लेकर इतने मिथ है कि मां बेटी को पैदा करने से पहले 10 बार सोचती है। पुत्र के पिता को मुखाग्नि देने से ही मोक्ष मिलता है, खानदान का नाम उसी से चलता है इस तरह के कई मिथ है। इस सदी में कंचकों को तरसती पीढ़ी अभी भी नहीं समझती की बेटियां सृष्टि के लिए कितनी जरूरी है। बेटा होने पर परिवार में मां का रूतबा बढऩे की परंपरा अभी भी कायम है। वह बताती है कि पीएनडीटी एक्ट को पीसीपीएनडीटी कर दिया गया, लेकिन अभी भी यह आइपीसी के बराबर प्रभावी नहीं हैं। ट्रायल के दौरान चिकित्सक को सस्पेंड नहीं किया जाता। सजा और जुर्माना भी कोई खास नहीं है अधिकतम तीन साल की सजा और जुर्माने के तौर पर कम से कम एक हजार से अधिकतम 50 हजार से कम ही जुर्माना होता है। अल्ट्रा साउंड केंद्र का पंजीकरण रद्द करने की कार्रवाई होती है,लेकिन उसमें काफी समय लगता है। इसके साथ ही जांच में जाने वाले चिकित्सकों को कोई सुरक्षा नहीं मिलती, इसलिए सेक्स डाइगनोज कराने वालों के हौसले बुलंद है। ़
राजनीतिक परिदृश्य में भी आधी आबादी हाशिए पर: जिले के राजनीतिक परिदृश्य में भी महिलाएं हाशिए पर है। फरवरी 2012 में हुए विधान सभा चुनावों में दादरी, जेवर और नोएडा विधान सभा सीट पर किसी भी राजनीतिक पार्टी ने महिलाओं को टिकट नहीं दिया। 62 नामांकनों में चार महिला प्रत्याशी मैदान में उतरी थी। जिले में 1952 में धूममानिकपुर से चुनी गई विधायक सत्यवती के बाद कोई महिला विधायक नहीं बनी। जिले से संसद के गलियारों तक भी कोई महिला नहीं पहुंच पाई।  
 औसत साक्षरता में पिछड़ी आधी आबादी: जिले में  10 वर्षों के अंतराल में विकास के काफी बड़े दौर तय किए,लेकिन एक चीज जो पीछे थी और पीछे ही रह गई। ये है 10 वर्षों में पुरूष और महिला के औसतन साक्षरता प्रतिशत। वर्ष 2001 में पुरुषों का साक्षरता फीसद 81.26 था तो महिलाओं का 57.70 और 2012 में पुरूष की साक्षरता दर बढ़कर 90.23 फीसद पहुंची, तो महिलाएं 72.78 पर आकर रूक गई।
 लड़कियों की शिक्षा में भी बदहाली: प्रदेश में 10 वीं के बाद स्कूल छोडऩे वाली छात्राओं की बढ़ती संख्या भी इसका प्रमाण है। 2010 में 15 लाख 48 हजार 405 छात्राओं ने 10 वीं में पंजीकरण करवाया, लेकिन मात्र 14 लाख 23 हजार 425 छात्राओं ने परीक्षा दी। इसमें 10 लाख 94 हजार 967 छात्राएं उत्तीर्ण हुई, लेकिन इनमें से 11 वीं कक्षा में नौ लाख 67 हजार 713 छात्राओं ने पंजीकरण कराया। माध्यमिक शिक्षा अभियान में सामने आया कि इनमें से एक लाख 27 हजार 254 छात्राओं ने 10 वीं के बाद पढ़ाई छोड़ दी। 11 वीं में पंजीकरण न करवाने का यह आंकड़ा भयावह है, यहीं हाल जिले में आठवीं के बाद स्कूल छोडऩे वाली लड़कियों का भी है। इससे जिले और प्रदेश में लड़कियों की शिक्षा पर भी सवालिया निशान लगता है।
असुरक्षा लड़कियों की शिक्षा में बाधक: जिलें में यूपी बोर्ड के सेकेंडरी और हायर सेकेंडरी के कुल 124 स्कूल हैं। इनमें दो सरकारी,  45 एडेड और 77 अनअडेड स्कूल है। इन स्कूलों में कम ही छात्राएं पहुंच पाती है। इसके पीछे एक बड़ा कारण है, इन स्कूलों का दूर-दराज होना। इससे गांव देहातों में रहने वाले अभिभावक लड़कियों को स्कूल नहीं भेजते। सरकार द्वारा लड़कियों को शिक्षा तक खींचने की 'कन्या विद्या धन और पढ़े बेटी -बढ़े बेटीÓ जैसी अच्छी योजनाओं पर ही असुरक्षा भारी पड़ती है।
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रचना वर्मा

आधे फलक के चांद-सितारे नहीं मेरे हिस्से का पूरा आसमां चाहिए





- कुश्ती में मुकाम और लड़कियों के लिए प्रेरणा
- पेट्रोल पंप पर लड़कों की तरह काम करने पर है गर्व
- महिलाओं को समर्पित एक महिला

रचना वर्मा,नोएडा:
कॉमन इंट्रो  ''मुझे मेरे हिस्से का पूरा आसमां चाहिए, आधे फलक के चांद-सितारों से नहीं सजेगी मेरी दुनिया, मुझे दुनिया में आधी नहीं पूरी आबादी का हक चाहिए, बेचारी अबला नहीं और न ही आंखों में पानी, अब मुझे बदलनी है खुद की कहानी, जिन्दगानी के स्याह अंधेरों में रोशनी की लौ जलाने की कोशिश जारी है, भरोसा है मुझे, विश्वास है कायम कि एक दिन वो नई सुबह जरूर आएगी जब नारी अबला नहीं सबला बन दुनिया के फलक पर अलग मुकाम पाएंगी।ÓÓ इस जज्बे के साथ आठ मार्च को अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस पर ये अपने अस्तिव का उत्सव मनाएंगी। दुष्कर्म, दहेज हत्या, कन्या भ्रूण हत्या और अपने ही घरों में दोयम और निरीह करार दी जाने वाली नारी शक्ति इतने अत्याचारों, भेदभाव के बाद भी अपने अस्तित्व का पुरजोर अहसास करा रही है, हर क्षेत्र में अपने सार्थक प्रयासों से वह कह रही है हम किसी से कम नहीं। ये सच भी है, क्योंकि इस वर्ष महिला दिवस की थीम द जेंडर एजेंडा गेनिंग मोमेंटम भी यही गुनगुना रही हैं।
बबीता ने दी सादुल्लापुर की लड़कियों को प्रेरणा: गांव के माहौल में जहां लड़कियों को स्कूल भेजने में भी लोग सौ बार सोचते हैं, उसी गांव की बबीता नागर ने पुरूष वर्चस्व के क्षेत्र कुश्ती दंगल में अपना अलग मुकाम बना डाला। लगभग 12 हजार की आबादी वाले इस गांव में उन्हीं की बदौलत कई लड़कियों के सपने साकार होने को है। ग्र्रामीण बच्चियों को केवल स्कूल ही नहीं बल्कि खेल के मैदानों में भी भविष्य बनाने के लिए भेज रहे हैं। किसान परिवार से ताल्लुक रखने गांव की बबिता नागर के बुलंद इरादों का यह परिणाम है। मौजूदा समय में बबिता दिल्ली में सब इंस्पेक्टर पद पर तैनात हैं। राष्ट्रीय स्तर की रेसलर बबीता बताती हैं कि जब उन्होंने रेसलर बनने का सोचा तो उन्ही के ताऊजी मनीराम पहलवान ने उनके पिता प्रभुसिंह से कहा कि लड़कियों का क्षेत्र नहीं है, लड़की बिगड़ जाएगी, लेकिन पिता और मां शीला देवी के स्पोर्ट से उन्होंने अपने इस शौक को सुनहरे भविष्य में बदल डाला। वह कहती हैं कि पीठ पीछे गांव वाले उन्हें पागल कहा करते थे, लेकिन अब हाल यह है कि गांव के हर घर में उनकी मिसाल दी जाती है, हर बड़े समारोह में उनकी उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती है। प्रत्येक ग्र्रामीण अपनी बेटी को बबीता बनते देखना चाहता है। गांव की लड़कियां कुश्ती में पारंगत करने के लिए गांव में लड़कियों के लिए प्रशिक्षण केंद्र खोलने की तैयारी में हैं।
पसंद है लड़कों की तरह पेट्रोल पंप पर काम करना: सेक्टर-41 स्थित लेफ्टिनेंट विजयंत मोटर्स पेट्रोल पंप पर  पेट्रोल भरने का काम करने वाली  19 वर्षीय शालू को अपना ये काम काफी पसंद है। उन्हें बड़ा अच्छा लगता है कि वह भी लड़कों की तरह आठ घंटे लगातार भारी नोजल पकड़कर पेट्रोल भरती हैं। वह बताती हैं कि पेट्रोल पंप पर ग्र्राहकों की गाडिय़ों में लड़कों को पेट्रोल भरते देख सोचा करती थी, क्या वह भी इन लड़कों की तरह ये काम कर सकती हैं। घर की माली हालत अच्छी नहीं थी और वह परिवार की आर्थिक मदद करना चाहती थी, 10 वीं पास शालू ने पेट्रोल पंप पर काम करने की ठान ली। वह बताती हैं कि अब उनके पड़ोस के लोग भी अपनी बेटियों को पेट्रोल पंप पर काम करने के लिए मना नहीं करते।
औरतों को सपर्पित एक औरत: समाजसेवी ऊषा ठाकुर का नाम उन शोषित और पीडि़त महिलाओं के लिए किसी मसीहा सरीखा है, जिन्हें उन्होंने नई जिंदगी दी है। निठारी कांड को उजागर करने का श्रेय इसी महिला को जाता है। वर्ष 2009 में उन्होंने 40 अंधी लड़कियों को माफिया से छुड़ाया। दहेज हत्या, घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं, दुष्कर्म पीडि़ताओं की मदद को इस उम्र में भी वह तत्पर रहती है। वह कहती हैं कि उन्हें उनके काम करने पर कई बार धमकियां भी मिली, लेकिन शोषित और पीडि़तों के दर्द के आगे उनका ये परेशानी कुछ भी नहीं है। वह बताती हैं कि इन दिनों वह जिले से गुम हुए बच्चों पर काम कर रही हैं, गुम होने वाले 462 बच्चों में अधिक संख्या लड़कियों की है।
पक्के इरादों से सपने हुए साकार: दादी कहती हैं, लड़के झाड़ू नहीं लगाते, वह बर्तन भी नहीं मांजते, वह बाहर खेल सकते हैं, मुझे दादी बादाम नहीं देती, लेकिन सोनू भैय्या को रोज बादाम देती हैं,लेकिन क्यों ...25 वर्षीय प्रियंका आज भी जब अपनी डायरी में लिखे इन पुराने लम्हों को याद करती हैं, तो उसकी आंखों में आंसू छलक आते हैं। अपनी मेहनत के बल पर वह दिल्ली की एक मशहूर मैगजीन में काम कर रही है। वह बताती है कि संपन्न परिवार में पैदा होने के बाद भी एक लड़की होने का खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा। पत्रकारिता का कोर्स करने के लिए अपनों से ही लड़ाई लडऩी पड़ी, लेकिन संतोष इस बात का है कि पक्के इरादों ने उनके सपने साकार कर दिए।
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रचना वर्मा

शनिवार, अप्रैल 20, 2013

बलात्कार कानून की नहीं मानसिक सोच की लड़ाई

ये इंसान ही है जो सृष्टि पर सबसे सर्वोत्तम माना जाता है। इस उत्कृष्टता की पराकाष्ठा अब इस स्तर पर उतर आई है कि मासूम बच्चियां हवस का शिकार हो दम तोडऩे लगी हैं। मासूमों के साथ होने वाले ये दर्दनाक और वीभत्स हादसे कुछ कहते हैं... सजग हो जा ऐ इंसान की मातृशक्ति पर चलने वाली इस सृष्टि पर ये कहर अब और नहीं। मासूमों के देह से होता ये खिलवाड़ उस कुत्सित मानसिकता का भौंडा स्वरूप है जहां पुरुष की मानसिकता स्त्री को केवल यौन संतुष्टि का साधन समझती है। जब-तक नारी जाति का अस्तित्व उसके शरीर को लेकर तोला और मापा जाएगा, तब -तक हमारी बच्चियां हमारे खुद के घरों में भी महफूज नहीं होंगी। किसी भी कानून या प्रदर्शन से ये हादसे तब-तक नहीं रूक सकते, जब-तक  स्त्री को केवल और केवल वासना और उपभोग का पर्याय मानने की सोच नहीं बदलेगी। उसे केवल और केवल इंसान की तरह से देखने और समझने का नजरिया नहीं विकसित होगा। केवल शारीरिक भिन्नता से एक स्त्री इस दुनिया में किसी भी दिल और दिमाग रखने वाले इंसान की प्रताडऩा का शिकार कैसे हो सकती है। गर्भ धारण कर जीवन के नए अंकुर में जान फूंक कर उसे मानव का आकार देने वाली यही है, फिर आखिर क्यों उसी की कोख से जन्मा मानव रूपी पुरुष उसे हीन या मांस का एक लोथड़ा भर मान बैठता है। क्यों उसकी सोच उसे शारीरिक संबंध बनाकर पा लेने की सोच पर आकर खत्म हो जाती है। देश में ही नहीं पूरे विश्व में क्योंकर कोई स्त्री दामिनी, निर्भया का दर्द अनगिनत बार सहने को मजबूर हो। प्रत्येक घर में पत्नी के इतर मां, भाभी, बहन और बेटी जैसे पवित्र रिश्ते हैं और क्या ये रिश्ते घर की चारदीवारी पर ही सिमट जाते हैं। मौजूदा दौर में दिल यही सब मानने को मजबूर होता है,क्योंकि जिस भी घर में मां और बेटी है शायद ही उस घर का पुरुष किसी पराई स्त्री को गलत नजर से दिखने की कल्पना भी कर पाएं। कोई भी धर्म या समाज किसी भी पुरुष को ये सोच रखने की इजाजत नहीं देता, कानूनों के बल पर नहीं बल्कि ये लड़ाई सोच और मानसिक स्तर पर लड़कर जीतने की है। सरकार, राजनेताओं और राजनीतिक दलों पर आरोप लगाने से पहले समाज को स्वंय भी अपने अंदर झांककर देखना जरूरी है, हमारी सोच इस दिशा तक गिर गई है कि वासना शांत करने के लिए मासूम बच्चियों की तरफ नजर उठाने से भी इंसानी दिल को धिक्कारना गंवारा नहीं समझती। अब कोई गुडिय़ा रूसवा न हो और सिसकियों में अपना दर्द संभाले, इससे पहले ही संस्कारों के बीज हमको और आपको अपने घरों से बोने होंगे और समाज में इस पौधों को वृक्ष बनाकर छांव के लिए तैयार करना होगा।