गुरुवार, सितंबर 12, 2013

22 साल के दर्द की दवा तलाशती हूं....


सरबजीत सिंह की बहन से ये बातचीत उनके 3 सितंबर 2012 में नोएडा आगमन पर हुई थी, लेकिन किसी कारण वश ये दैनिक जागरण में प्रकाशित नहीं हुई। आज पुरानी फाइल चेक करते समय इस पर नजर पड़ी तो लगा कि इसे शेयर किया जाना चाहिए। 



- मीडिया से की अपील प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री की पाक यात्रा से पहले उठाए इस मुद्दे को
- पहले ही सरबजीत का मामला गंभीरता से लिया जाता तो घर होता वह
- भाई को वापस लाना ही लक्ष्य
''सरहदों की हदें इस कदर पक्की हैं कि तेरे-मेरे दर्द का उससे वास्ता नहीं, मेरे घर का एक टुकड़ा सरहद के उस पार आज भी है, चंद मीलों के इस फासले को सदियों में तब्दील कर डाला सियासतों के चंद सिलसिलों नेÓÓ पाक में बंद सरबजीत सिंह की दीदी दलबीर कौर के दिल में यहीं सवाल बार-बार उठता हैं कि आखिर उसके छोटे भाई का दोष क्या था, जो उसे अपनों से दूर होकर जिंदगी काटनी पड़ रही हैं। भाई की रिहाई के लिए अभिनेता रजा मुराद की मुहिम के तहत वह उनसे मिलने नोएडा आई थी। भाई के पाक कैदी होने का उनके परिवार को जो सिला मिला वह उन्होंने बयां किया।
नौ महीने तक पता नहीं था भाई का: दलबीर बताती हैं कि पंजाब के भिखीविंड में उनका किसान भाई सरबजीत सिंह खुशी से रह रहा था। 28 अगस्त 1990 को अचानक भाई गुम हो गया। दोस्तों, रिश्तेदारों में ढूंढा, लेकिन नौ महीने तक कुछ पता नहीं चला, अचानक घर में एक चिट्ठी आई। सरबजीत ने इसमें लाहौर कोर्ट में पहली पेशी का पूरा मजमून लिख डाला। पाक हुकूमत ने उसे सीधे साधे किसान से मनजीत कौर बम धमाके के आरोपी का तमगा दे डाला था, उसके बाद इतनी चिïिट्ठयां आई जिनकी गिनती भी नहीं की जा सकती।
हुकूमत ने नहीं लिया गंभीरता से: उनके परिवार की इस दिक्कत को शुरूआती दौर में हिन्दोस्तान की सरकार से गंभीरता से नहीं लिया, वरना अब तक भाई रिहा हो गया होता। उसे एक आम नागरिक की तरह रिहा कराने के बदले उसकी रिहाई की मांग भी आंतकवादी मुद्दे को लेकर की जाती। ये कहना है दलबीर कौर का। वह बताती हैं कि तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव से लेकर गृहमंत्री से वह इस मामले को लेकर मिलती रहीं थी। इस मामले को हवा मीडिया में आने के बाद मिली वह मीडिया की शुक्रगुजार हैं। मीडिया से उनकी अपील है कि सितंबर में प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री की प्रस्तावित पाक यात्रा से पहले इस मुद्दे को उठाएं तो शायद वह इस वर्ष की दीपावली अपने भाई के साथ मना पाएं।
पल-पल कमी महसूस होती है सरबजीत की: सरबजीत  पिता के बाद परिवार में दूसरा मर्द था। जब वह गुम हुआ छोटी बेटी पूनम 23 दिन और बड़ी बेटी स्वपनदीप कौर दो ïवर्ष की थी। बेटियों के सिर बाप का प्यार का साया छीन गया। पैरेंट्स मीटिंग में भाभी सुखप्रीत अकेली जाती, बच्चे पिता के बारे में पूछते तो उसकी आंखों से आंसू झरते। घर की आर्थिक स्थिति भी खराब हो चली थी। पिता सुलखन भाई की फोटो को सोने से पहले सैल्यूट करते और कहते 'साब जी में सोने चला, तुमसे मिलना चाहता हूं, जल्दी आ जाओं कहीं तुम्हारे आने से पहले न चल दूं।Ó गांव के किसी भी समारोह में जाते भाई को याद कर रोते रहते। एक दिन इसी दुख में चल बसे।
खुशी देकर गम दिया: वह बताती है जब मीडिया में हर तरफ उनके भाई की रिहाई की खबरें चल रही थी, परिवार में जश्न का माहौल था। अचानक जैसे घर में मातम छा गया, क्योंकि भाई की जगह सुरजीत की रिहाई हुई। हालांकि ये अच्छा हुआ कि किसी को तो उसके घर वापस आने को मिला।
22 साल से राखी को इंतजार: वह कहती हैं कि विवाहित होने के नाते कई बार उन्हें भाई की रिहाई की इस मुहिम के लिए ससुरालवालों के खिलाफ भी जाना पड़ा, लेकिन उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य ही भाई को वापस लाना बना लिया है। 22 साल से उनकी राखी भाई की कलाई का इंतजार करती रहीं। वह बाघा बार्डर पर जाकर फौजियों को राखी बांधती रहीं, लेकिन जब भी वहां जाती दो सरहदों पर खिंची उस लाइन को घंटों देखा करती। सोचती ये न होती लाहौर और बाघा साथ मिलकर प्यार का गीत गाते।
राहुल गांधी के लिए दुआ: वर्ष 2008 में राहुल गांधी ने सरबजीत के मामले को गंभीरता से लिया। इसके बाद सोनिया जी, गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे, विदेश मंत्री एसएम कृष्णा ने भी उनके मन में उम्मीद जगाई है। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के बेटे अभिजीत मुखर्जी की पहल के लिए उनका परिवार अहसानमंद है। पाक में असमां जहांगीर, एनजीओ और आसिफ अली जरदारी की ईमानदार कोशिशों के साथ ही अपने देश के हर एक बाशिंदे से मिले सहयोग को सलाम करती है।
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रचना वर्मा

शुक्रवार, सितंबर 06, 2013

जीवन सरीखी है बांसुरी : पंडित हरिप्रसाद चौरसिया


पंडित हरिप्रसाद चौरसिया का ये साक्षात्कार संपादक जी ने महज ये कह कर छपवाने से इंकार कर दिया था कि इसका नोएडा से क्या मतलब. कौन पढ़ेगा पंडित हरिप्रसाद चौरसिया को नोएडा में. इसे मैंने अपने ब्लॉग में स्थान देना उचित समझा.

- बांसुरी अजेय है और रहेगी
-हुनर की तुलना करना ठीक नहीं
- संगीत की एक है बोली

 ''मुझे अंग्रेजी अधिक नहीं आती, बच्चों हिंदी में बात करूंगा तो समझ जाएओ ना "चेहरे पर विस्मित कर देने वाली कृष्ण सरीखी मुस्कान, अधरों से कुछ दूरी पर हाथों में  बांसुरी... कुछ इस अंदाज में मशहूर बांसुरी वादक पंडित हरिप्रसाद चौरसिया सरला चोपड़ा डीएवी सेंटनेरी स्कूल के छात्रों से रूबरू हुए थे. इस दौरान उन्होंने बांसुरी और उसके भविष्य को लेकर विशेष बातचीत की।
चंद्रमा और बल्ब के प्रकाश की तुलना नहीं: बांसुरी वादन के शिखर पर पहुंचने वाले पंडित चौरसिया न  बांसुरी वादन का भविष्य उज्जवल बताया। उन्होंने कहा कि आधुनिक वाद्य यंत्रों के बीच आज भी बांसुरी अजेय है, क्योंकि बल्ब का प्रकाश अलग है और चंद्रमा का अलग। बांसुरी भूत में थी, वर्तमान में है और भविष्य में भी रहेगी। ये वाद्य पूरे विश्व में अपनी पहचान बना चुका है। भले ही नई पीढ़ी बांस की बनी बांसुरी न बजाती हो, लेकिन कहीं स्टील तो कहीं अन्य वस्तुओं से बनी बांसुरी वह अपने संगीत में शामिल कर चुकी है।
जीवन सरीखी है बांसुरी: बांसुरी सबसे पुराना वाद्य यंत्र है। भगवान श्रीकृष्ण की सोच ने इसे लोक वाद्य बनाया और उन्ही की तरह ये हर जगह पहुंच गई। इसका निर्माण कारखाने में नहीं होता। एक तरह से बांसुरी मानव जीवन सरीखी है, इसकी उम्र और जीवन -मरण भी अनिश्चित है। इसके लिए जंगलों से चुन के बांस लेना पड़ता है, वह बांस सीधा और गांठ रहित होना आवश्यक होता है। इसके निर्माण के बाद मानव जीवन की तरह ही इसके चलने का कोई पता नहीं होता।
सामान्य और साधारण ही होता है अप्रितम: पंडित चौरसिया ने कहा कि जो भी सादगी से परिपूर्ण है, वह मधुर है, सुंदर, अप्रितम है, संगीत के साथ भी ये बात लागू होती है। ये जरूरी नहीं आगे आने वाले बांसुरी वादन की पीढ़ी उनकी बांसुरी वादन की विरासत को आगे बढ़ाए, इसलिए वह हुनर की तुलना को सही नहीं समझते। जिस तरह हर फूल की अपनी खूबसूरती होती है, उसी तरह हर एक के हुनर की अपनी खासियत होती है।
संगीत का एक है मजहब: बांसुरी पर ओम जय जगदीश भी बजता है और जिंगल बेल जिंगल बेल भी दोनों ही संगीत का रूप है भले ही भाषा अलग हो। संगीत कहीं का भी हो, उसके स्वर लय एक है। संगीत किसी देश या क्षेत्र विशेष का नहीं होता, बस हमारे विचारों का अंतर ही इसे देश काल की परिधि में बांधता है। ये बात फिल्मी संगीत पर भी लागू होती है, स्वर अच्छे लगे, लय, ताल ठीक हो, अच्छे से लिखा गीत हो तो फिल्मी संगीत भी अच्छा है। इतना ही कहंूगा कि जो जिसको भा जाएं वो अच्छा है।
संघर्ष में है जीवन का आनंद: पंडित चौरसिया बताते हैं कि उनके पिता उन्हें कुश्ती के दांव सीखा पहलवान बनाने के इच्छुक थे। पिता की इस इच्छा से उन्हें जीवन से संघर्ष करने की सीख मिली। जिस तरह कुश्ती में जीतने के लिए संघर्ष करना पड़ता है, उसी तरह जीवन के हर क्षेत्र हर विषय में संघर्ष हैं, क्योंकि संघर्ष में ही जीवन का आनंद है
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गुरुवार, जून 27, 2013

साल रहा अपनी ही जमीं में जमींदोज होने का दर्द


केदारनाथ अापदा पर लिखी गई मेरी रिपोर्ट जिसे दैनिक जागरण ने प्रकाशित करना जरूरी
 नहीं समझा था.

- राहत सामग्र्री को भी तरसे आपदाग्र्रस्त इलाकों के बाशिंदे
- घर-बार सब ले गया पानी का बहाव, अब जिंदगी के बहाव की चिंता रही साल 
- भूखे-प्यासे बच्चों की जिंदगी बचाने के लिए नमक भी मुश्किल से नसीब 
... अपनी ही जमीं में जमींदोज हो जाना और पल-पल जिन्दगी की टूटती सांसों को थामने की जद्दोजेहद लगे रहना, कुछ ऐसे ही असहनीय और अकल्पनीय दर्द को प्राकृतिक आपदाग्र्रस्त उत्तराखंड के स्थानीय बाशिंदे रोज झेल रहे हैं। आपदा में फंसे तीर्थयात्रियों और पर्यटकों को वहां से बाहर निकलने के लिए शासन-प्रशासन सब एक जुट है, लेकिन यहां की मिïट्टी में रचे-बसे लोगों को उनके पैरो तले जमीन और छत दिलाने की कोशिश का कहीं निंशा तक नहीं दिखता। ये केवल चमोली के गांव नारायणबगड़ की ही हकीकत नहीं बल्कि आपदाग्र्रस्त देवभूमि के जर्रे-जर्रे का यही हाल है। आपदा के मारे इन लोगों के पास अपनी ही मिïट्टी में दम साधने के सिवा कोई चारा नहीं बचा है।
एक था नारायणबगड़: कर्णप्रयाग से ग्वालदम को जाने वाला मुख्य मार्ग चमोली के नारायणबगड़ गांव की पहचान था। अंग्र्रेजों का  बनाए 150 वर्ष पहले बनाए नारायणबगड़ पुल का ऐतिहासिक महत्व का गवाह था। इस इलाके में 150 लोग अपनी गुजर -बसर ढाबो और छोटे-मोटे व्यवसाय कर चला लेते थे, लेकिन 15 जून के बाद यहां का मंजर पूरी तरह बदल गया है। 40-50 लोगों के रोजी-रोटी का सहारा छिन गया, घर-द्वार सब आपदा ने लील लिया। इन स्थानीय लोगों का यहां रहना इनकी मजबूरी ही नहीं बल्कि अपनी जन्मभूमि से जुड़ाव भी है। इन लोगों को एयर लिफ्ट करके यहां से बाहर जाने की आस नहीं, लेकिन हेलीकॉप्टर की राहत सामग्र्री का इंतजार जरूर है। इस पर भी पर्यटकों और यात्रियों को आपदाग्र्रस्त इलाके से बाहर निकालने चिंता में इन स्थानीय बाशिंदों की अनदेखी हो रही है। दवाईयां तो दूर रसद भी यहां नहीं पहुंच पा रही है।
आंखों में बेघर होने का दर्द और सिर पर 15 भूखे पेट पालने की चिंता: ढाबा चलाकर विरेन्द्र सिंह कठैत और उनकी पत्नी पार्वती 15 लोगों को परिवार पालते थे।
ये दंपत्ति अपने चार बच्चों के साथ ही स्वर्गीय बड़े भाई के तीन बच्चों के साथ ही बहन के चार बच्चों का भी पेट पाल रहे थे। अब न इनके पास ढाबा रहा और न घर। पार्वती की आंखों में आंसू रूकने का नाम नहीं ले रहे, आगे बच्चों के भविष्य क्या होगा यही सोच कर वह गश खाकर गिर जाती हैं। विरेन्द्र सिंह ने बताया कि सड़क किनारे ढाबे के ढहने के बाद उन्होंने जैसे -तैसे प्राथमिक स्कूल में शरण ली। उनके गांव के कुछ लोगों की मदद से उन्हें थोड़े चावल मिले है उन्हें पानी में नमक मिलाकर वह बच्चों को दे रहे है। हर सुबह उन्हें यह चिंता रहती हैं कि बच्चों को कहीं कुछ हो न जाएं। प्रशासन या अन्य किसी बाहरी सहायता उन्हें नहीं मिली है।
घर की चाबी की गुच्छा है संपत्ति के नाम पर: आंगनवाड़ी कार्यकर्ता जानकी अपनी बेटी और बूढ़े पिता के साथ सड़क पर है, पानी के रेले में ढहते किराए के आशियाने की याद कर वह फफक पड़ती है। तलाकशुदा इस महिला का कहना है कि उन्हें समझ नहीं आ रहा हैं कि वह कहां जाएंगी, न आमदनी का सहारा रहा और न घर का ठिकाना। उनके पास संपत्ति  के नाम पर तीन चाबियों वाला गुच्छा भर ही रह गया। आंखों की कोर में बार-बार आती नमी को पोछते हुए इतना ही कहती हैं कि शासन यहां से लोगों के बाहर निकलाने और उनकी कुशलता के लिए तो प्रयास कर रहे हैं, लेकिन वह तो यहीं के रहने वाले है वह कहां जाएं। किसी भी प्रकार की सहायता न मिलने से उनके लोग भूख और प्यास से बेहाल है।


गिरीश तिवारी की केदारनाथ से दी गई जानकारी के बाद मेरे द्वारा लिखी गया हाल-ए- केदारनाथ

शुक्रवार, जून 21, 2013

मासूम आंखों में समाया प्रकृति का भयावह रूप



- समझ आया आपदा में भोजन का महत्व
- प्रकृति के लिए न बने कठोर
- डूबते मकान और सड़के देख डर बैठ गया मन में

 छह जून को हम 14 छात्रों का दल इनमी ट्रैंकिंग दल के साथ दिल्ली से ऋषिकेश के लिए निकला। सात जून सुबह ऋषिकेश बेस कैंप पहुंचे। कल्पना भी नहीं की थी वापसी में उस बेस कैंप का नामोनिशां तक नहीं रहेगा। सात जून से 20 जून घर पहुंचने तक मेरी आंखों में पानी में डूबती सड़कों और मकानों का मंजर खौफ जगाता रहा। प्रकृति के इस भयावह रूप के दर्शन मैंने अपने पांच साल की ट्रैकिंग में कभी नहीं किए थे। घर सही सलामत वापस लौट कर मुझे इतना समझ आ गया कि हमें पर्यावरण के प्रति कठोर नहीं होना चाहिए, पेड़ काटने पर लगाम लगानी चाहिए, अपनी नदियों को प्रदूषण से बचाना चाहिए। इस वाकये के बाद मैं और मेरे दोस्त पर्यावरण संरक्षण के लिए जागरूकता फैलाने में अपना पूरा योगदान देंगे। टिहरी जैसे डैम बनाने से पहले 10 बार सोचना चाहिए।
सात जून को ऋषिकेश बेस कैंप से हम केदारनाथ से भी आगे दियारा टॉप के लिए निकले कम से कम जमीन से 11,000 फीट ऊपर दियारा चारगाह में चार दिन बिताने के बाद हम वापस लौट रहे थे, अंदाजा भी नहीं था कि नीचे इतनी तबाही मची हुई है, 15 जून को बारिश हो रही थी, हमारे साथ गए इंस्ट्रक्टर फोन पर मौसम का हाल पूछ- पूछ कर हमारे दल को आगे लेकर बढ़ रहे थे। रास्ते में पानी के साथ बहते बड़े-बड़े मकान, पानी पर तैरते कार, ट्रक और बचाने की गुहार लगाते लोग, पानी में डूबती जाती लंबी-लंबी सड़के देख हम सभी काफी डर गए। 16 जून की सुबह हम उत्तरकाशी पहुंचे, लेकिन पता चला की जिस ऋषिकेश के जिस बैस कैंप में हम ठहरे थे, वह बह गया। हमारे दल के लिए वह सबसे बड़ा सदमा था। छह लड़कों और आठ लड़कियों के हमारे दल में कई बच्चे होम सिकनेस का शिकार हो गए। दो लड़कियां की हालत ज्यादा बिगड़ गई। अलग-अलग तरह के भयावह ख्याल आ रहे थे, घर नहीं पहुंच पाएं तो बस के चलते-चलते रोड धस गई तो, हम सब आपस में ऐसी ही बातें कर रहे थे।   उत्तरकाशी के राधिका होटल में हमारा दल रूका था और 10 दिनों में भेलपूरी और ब्रेड बटर ही हमारा भोजन था। हमारे इंस्ट्रकटर पानी और भोजन बरबाद न करने को कह रहे थे और हम सबको पहली बार पता चला कि भोजन का महत्व क्या है। हम सारे होटल की छत पर खड़े होकर प्रकृति की विनाशकारी शक्ति का आकलन अपने- अपने अंदाज में कर रहे थे। हमारे सामने बिल्डिंग जमीनदोंज हो रही थी, लोग अफरा-तफरी में भाग रहे थे। इस बीच हमारे इंस्ट्रक्टर्स को हमारे अभिभावकों के लगातार फोन आ रहे थे, वह हमारे बारे में काफी चिंतित थे। हमारे इंस्ट्रक्टर्स हमसे तैयार रहने को कह रहे थे। 19 जून को बारिश की रफ्तार कम हुई और हम बस के जरिए ऋषिकेश पहुंचे और यहां से दिल्ली के लिए निकले। 20 जून की रात दो बजे हम दिल्ली पहुंचे। लगभग 18 घंटे की इस यात्रा में हम यहीं मना रहे थे कि घर पहुंच जाएं। दिल्ली पहुंचते ही सभी के मां -पापा गले लग कर हमें प्यार कर रहे थे, कई बच्चों की मम्मियां रो रही थी। मैं हमेशा ट्रैकिंग से आकर अपने रूम में चला जाता था, लेकिन इस बार ऐसा पता नहीं क्या था कि मां को गले लगाकर कुछ मिनट तक सोचता रहा।
प्रस्तुति : 14 वर्षीय करन नाग, सेक्टर-36 नोएडा

रविवार, मई 19, 2013

हां मैं हिरोइन हूं...



बचपन में एक बार मेरी बुआ ने मुझे 'हिरोईनÓ कहा तो मैं ऐसी बिदकी जैसे कि किसी ने मुझे विषैला डंक मार दिया हो, उस छोटे से पहाड़ी कस्बे अल्मोड़ा की आबो हवा में पली एक लड़की के लिए 'हिरोईनÓ का अर्थ शायद उतना ही भद्दा और अभद्र था जैसे कोई गाली। ये उस वक्त की बात है जब शायद मैं 20 वर्ष के उस सुहाने से दौर से गुजर रही थी, जब मन सपनों के आकाश में उड़ान भरा करता था और कल्पना के सागर में गोते लगाया करता था। उस दौर और आज के दौर में हिरोईन का अर्थ मेरे लिए कितना व्यापक हो गया ये मुझे आज एक चैनल पर हिरोईन मूवी के देखते समय हुआ। पत्रकारिता के इस पेशे में रहते हुए उम्र का तीसवे पड़ाव पर मुझे भी अपनी स्थिति उस हिरोईन जैसी ही लगी। हालांकि हिरोईन जैसी सफलता का आकाश तो मैंने नहीं छुआ, लेकिन एक छोटे से कस्बे से आकर दिल्ली -एनसीआर के पत्रकारिता जगत में एक छोटा सी जगह बना ली। पत्रकारिता का जगत फिल्मी दुनिया से ज्यादा अलग नहीं है, बस अंतर इतना ही है कि यहां पर्दे पर अभिनय नहीं होता, वास्तविक अभिनय जरूर होता है, वहीं नैतिक मूल्यों से परे कि प्रतिस्पर्धा। मीडिया हॉउस में विशेषकर प्रिंट मीडिया में सजावटी तौर पर महिलाओं और युवतियों का प्रतिनिधित्व है। यहां भी काबिलियत को कम चिकने चमकते चेहरों पर करियर का ग्र्राफ टिका करता है। शायद यौवन की दहलीज पर पत्रकारिता में कदम रखने के बाद भी मैं ये समझ नहीं पाई थी, क्योंकि ईमानदारी से पत्रकारिता और रिपोर्टिंग का जुनून मेरे सिर पर सवार था, पर उम्र के 36 वें पड़ाव पर मेरा हाल भी हिरोईन फिल्म के किरदार मेघा अरोड़ा की तरह असुरक्षा की भावना से भरा रहता है। लगने लगा है 11 वर्ष इस पेशे में खून पसीना लगा दिया, लेकिन अब भी खाली हाथ और ऐसा एकाकीपन जो शायद कभी खत्म ही न हो। कभी-कभी इस पेशे में आ रही युवा फैशनपरस्त लड़कियों से भी स्वंय को असुरक्षित महसूस करने का भाव। उसमें मेरे अपने पेशे के प्रति मेरा समर्पण भी मुंह चिढ़ाने लगता है। 

रविवार, अप्रैल 28, 2013

नारी सशक्तिकरण: हौसले से बदल डाली तकदीर की तस्वीरें






- महिला हस्तशिल्पियों ने बयां की नारी सशक्तिकरण की कहानी
- हाथ के हुनर को बनाया आत्मनिर्भरता का हथियार
- विषम परिस्थितियों में नहीं मानी हार
रचना वर्मा,नोएडा: ख्वाबों की ताबीरों के लिए हिम्मत और हौसलों का हासिल ही सब कुछ है, क्या हुआ जो तालीम का मौका नहीं मिला, क्या हुआ जो शहरों में रहने का सिलसिला नहीं मिला,अपने हुनर से किस्मत का रूख मोड़ ख्वाबों को धरातल पर ला खड़ा किया। देश के विभिन्न राज्यों से सेक्टर-21 ए स्टेडियम में गांधी शिल्प बाजार में आई प्रत्येक महिला हस्त शिल्पी की अपनी कहानी है, लेकिन सुदूर गांवों में रहने वाली इन महिलाओं ने अपनी कला से नारी सशक्तीकरण को देश में सच कर दिखाया है। यहां लगी 150 स्टॉल में 25 फीसद इन महिलाओं की हैं। अपने परिवार में ही नहीं बल्कि गांव में इनकी सफलता अन्य महिलाओं को भी प्रेरणा दे रही है।
हुनर से संभाला तलाक के बाद परिवार: अलीगढ़ के अमीनिशा की 32 वर्षीय शाहना के जिंदादिल मिजाज को देख शायद ही कोई इस महिला के दर्द का अनुमान लगा पाएं। 11 वर्ष पहले पति ने तीन बच्चों के साथ उन्हें अकेला छोड़ दिया, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अपने हाथ के हुनर को ही मुफलिसी और मुसीबत से निकलने का हथियार बना डाला। 10 वीं पास अमीना एपलिक और पैच वर्क के काम से अपना अलग मुकाम बनाया। वह बताती हैं कि जिंदगी में सफल होने के लिए हिम्मत और हौसला होना चाहिए। उनकी स्टॉल पर पैच वर्क का सामान लेने आने वाले भी उनकी खुशमिजाजी के कायल हुए बिना नहीं रहते।
घर-घर जाकर बेचा कांथा: 15 वर्ष पहले जब पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के उत्तराकोना गांव की पदमा घर-घर जाकर कांथा (कपड़े पर कढ़ाई) के कपड़े बेचा करती थी, तो उन्होंने सोचा भी नहीं था कि उनका ये काम उन्हें ही नहीं उनके परिवार को अलग पहचान दिलाएगा। वह बताती हैं कि शादी के बाद उन्होंने परिवार की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए ये काम सीखा। कई बार लोग कपड़े पर काम करने को नहीं देते थे, लेकिन उन्होंने भी ठान ली कि पीछे नहीं हटना। मौजूदा समय में उनके कांथा वर्क की मुम्बई तक मांग है। उनके अंडर 150 लड़कियां रोजगार पा रही है। महीने में 10 से 20 हजार की कमाई हो ही जाती है।
ससुराल में जमाई धाक: कोलकता की 35 वर्षीय सीमा बनर्जी को शीप लेदर के काम में महारत हासिल है। शादी से पहले वह ये काम किया करती थी, लेकिन उसके बाद भी उन्होंने अपने इस शौक को इस कदर बढ़ाया कि उनके सुसराल वाले उनके कायल हो गए। शीप लेदर के पर्स और अन्य सामान बनाकर वह आस्ट्रेलिया, कनाडा, यूएस में भी अपने काम को पहचान दिला चुकी है। उनके इस व्यवसाय से उनके पति भी जुड़ गई हैं।
पत्थर को तराश कर बनाती है क्रिस्टल: तमिलनाडु के त्रिचनापल्ली की मंजुला और सुलोचना कठोर पत्थरों को क्रिस्टल की खूबसूरत मालाओं में तब्दील करती है। तांबे के तार में भी इन क्रिस्टल को पिरोना का काम करती है। दोनों बताती है कि इससे परिवार की आय भी बढ़ती है और उनके खुद के खर्चे का इंतजाम भी हो जाता है।
राज्य स्तरीय अवार्ड तक बनाई पहचान: आठ साल की उम्र में कांथा स्टिच का काम पकड़ा और उसे इस मुकाम तक रजिया ने लाकर छोड़ा, जहां कोलकता ही नहीं बल्कि पूरे देश में उनका कांथा मशहूर होने लगा। ऐसे रूढि़वादी परिवार में जहां औरत के सिर से पल्लू हटने को भी बड़ी गलती माना जाता है, सिर पर पल्लू रखकर ही उन्होंने सफलता की इबारत लिख डाली।
जूट के बैग से पल रहा परिवार का पेट: बिमला ने शादी के बाद पति की गरीबी का रोना नहीं रोया, बल्कि उनके जूट के बैग बनाने के कारोबार में रम गई। पति जूट के बैग बनाते है और वह उनकी कटिंग करती है। उनकी स्टॉल में सजे जूट के बैग उनकी कलात्मकता को बताते हैं। वह कहती हैं कि उन्हें संतुष्टि है कि उनका परिवार चल रहा है।
अपनी कमाई से आत्मनिर्भरता का अहसास:सेक्टर-31 निवासी 33 वर्षीय अक्षिता अग्र्रवाल के चेहरे पर उनके आत्मनिर्भरता का अहसास साफ झलकता है। शादी के बाद आकांक्षा ने अपनी कमाई करने के लिए पुराने कपड़े से मल्टी परपज पाउच के हुनर को निखारा। आज उन्होंने अपने इस काम से पांच जरूरतमंद लड़कियों को रोजगार दिया है।
अविवाहित रहकर संभाली परिवार की जिम्मेदारी: असम की 50 वर्षीय मीना अविवाहित है। उन्हें असम सिल्क के काम में प्रवीणता है। गोवाहटी में अपने परिवार की वह सर्वेसर्वा है। उन्होंने अपने काम से परिवार की जिम्मेदारियों को बखूबी अंजाम दिया है।
हर एक का संघर्ष सफलता की कहानी: इटोंजा की 40 वर्षीय रूबीना ने पति के कैंसर से भी हार नहीं मानी और कुशलता के साथ चिकन के कारोबार संभाला। गुजरात की गीता, सीता ने भी जरी के काम को परिवार के पालन का जरिया बना डाला। अरूणाचल की टोका रूपा ने कागज के फूलों, आंन्ध्रा के गांव निम्मलकुंटा की ममता ने बकरी के चमड़े पर कलमकारी हस्तकला के रंग बिखेरे, बिहार की अंजू केसर और परिवार की जरूरतों को पूरा किया।
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रचना वर्मा


इस उजली तस्वीर में है स्याह भी बहुत कुछ





- 1952 के बाद जिले को नहीं मिली महिला विधायक
- पीएनडीटी एक्ट के तहत मात्र दो अल्ट्रासाउंड केंद्रों पर कार्रवाई
- बालिकाओं की संख्या में भी जिला पिछड़ा
- आधी आबादी साक्षरता में भी रह गई पीछे
संवाददाता,नोएडा: नारी सशक्तीकरण की एक उजली तस्वीर है आज का दौर, लेकिन इस तस्वीर में अभी भी ऐसे कई स्याह पहलू जिन्हें उजला किए बिना आधी आबादी को अपने अस्तिव की जंग जीतना मुश्किल लगता है। फिर चाहे वह शिक्षा देने के मामले में लड़कियों के साथ होता भेदभाव हो या फिर कन्या भ्रूण हत्या का भयावह सत्य।
 लिंगानुपात में प्रदेश में चौथा संवेदनशील जिला गौतमबुद्ध नगर:  भ्रूण हत्या में यूपी के 10 जिलों में गौतमबुद्धनगर चौथे स्थान पर है। यहां प्रति हजार लड़कों पर वर्ष 2011 में 852 लड़कियां है। एक हजार पुरुषों पर स्त्रियां 10 वर्ष पहले यह संख्या 841 थी।  वहीं 0-6 वर्ष के आयु वर्ग में भी जिला बदनाम है। यहां एक हजार लड़कों पर मात्र 845 बच्चियां है। साल 2011 की जनगणना में पश्चिमी यूपी का लिंगानुपात 908 से नीचे हैं। गौतम बुद्ध नगर यूपी के 71 जिलों में दूसरी बार लिंगानुपात में सबसे फिसड्डी रहा। लिंगानुपात का ये भारी अंतर कहता है, कहीं कुछ गड़बड़ तो जरूर है। पश्चिमी यूपी आने वाले समय में बेटियों को तरसेगा।
पीसीपीएनडीटी एक्ट का जिले में हाल: जन्म से पूर्व लिंग परीक्षण प्री कंस्पेशन एंड प्रीनेटल डाइगनोस्टिक एक्ट(पीसीपीएनडीटी) के तहत अपराध है, लेकिन पूरे प्रदेश में इस एक्ट का प्रभावी प्रयोग नहीं हो पाया है। यूपी में इसके तहत वर्ष 2002 से 2013 तक 57 कोर्ट केस रजिस्टर हुए। इसमें से केवल आठ का निपटारा हुआ, लेकिन सजा किसी को नहीं हुई। जिले में इस एक्ट के तहत वर्ष 2005 में सेक्टर-12 और 22 के अल्ट्रासाउंड केंद्रों का रजिस्ट्रेशन रद्द किया गया। ये केस अदालत में लंबित है।
जिले के अनाथ आश्रमों लड़कियों हैं अधिक: जिले के अनाथ आश्रम सबूत है कि लड़कियों को लेकर समाज की मानसिकता में अधिक बदलाव नहीं आया है। यहां रहने वाले बच्चों में लड़कियों की संख्या अधिक है। सेक्टर-12 स्थित साईं कृपा आश्रम के 42 बच्चों में केवल 14 ही लड़के हैं। सेक्टर-19 ग्र्रेस होम के 106 बच्चों में 60 फीसद लड़कियां हैं। सीडब्ल्यूसी के बालगृह में भी वर्ष 2011 में दो से चार महीने की तीन नवजात बच्चियां आईं।
पीएनडीटी एक्ट पर भारी सामाजिक भ्रांतियां : सुप्रीम कोर्ट में कन्या भ्रूण हत्या को लेकर पब्लिक इंटरस्ट में लिटिगेशन डालने वाली एडवोकेट कमलेश जैन कहती हैं कि हमारे समाज में बेटियों को लेकर इतने मिथ है कि मां बेटी को पैदा करने से पहले 10 बार सोचती है। पुत्र के पिता को मुखाग्नि देने से ही मोक्ष मिलता है, खानदान का नाम उसी से चलता है इस तरह के कई मिथ है। इस सदी में कंचकों को तरसती पीढ़ी अभी भी नहीं समझती की बेटियां सृष्टि के लिए कितनी जरूरी है। बेटा होने पर परिवार में मां का रूतबा बढऩे की परंपरा अभी भी कायम है। वह बताती है कि पीएनडीटी एक्ट को पीसीपीएनडीटी कर दिया गया, लेकिन अभी भी यह आइपीसी के बराबर प्रभावी नहीं हैं। ट्रायल के दौरान चिकित्सक को सस्पेंड नहीं किया जाता। सजा और जुर्माना भी कोई खास नहीं है अधिकतम तीन साल की सजा और जुर्माने के तौर पर कम से कम एक हजार से अधिकतम 50 हजार से कम ही जुर्माना होता है। अल्ट्रा साउंड केंद्र का पंजीकरण रद्द करने की कार्रवाई होती है,लेकिन उसमें काफी समय लगता है। इसके साथ ही जांच में जाने वाले चिकित्सकों को कोई सुरक्षा नहीं मिलती, इसलिए सेक्स डाइगनोज कराने वालों के हौसले बुलंद है। ़
राजनीतिक परिदृश्य में भी आधी आबादी हाशिए पर: जिले के राजनीतिक परिदृश्य में भी महिलाएं हाशिए पर है। फरवरी 2012 में हुए विधान सभा चुनावों में दादरी, जेवर और नोएडा विधान सभा सीट पर किसी भी राजनीतिक पार्टी ने महिलाओं को टिकट नहीं दिया। 62 नामांकनों में चार महिला प्रत्याशी मैदान में उतरी थी। जिले में 1952 में धूममानिकपुर से चुनी गई विधायक सत्यवती के बाद कोई महिला विधायक नहीं बनी। जिले से संसद के गलियारों तक भी कोई महिला नहीं पहुंच पाई।  
 औसत साक्षरता में पिछड़ी आधी आबादी: जिले में  10 वर्षों के अंतराल में विकास के काफी बड़े दौर तय किए,लेकिन एक चीज जो पीछे थी और पीछे ही रह गई। ये है 10 वर्षों में पुरूष और महिला के औसतन साक्षरता प्रतिशत। वर्ष 2001 में पुरुषों का साक्षरता फीसद 81.26 था तो महिलाओं का 57.70 और 2012 में पुरूष की साक्षरता दर बढ़कर 90.23 फीसद पहुंची, तो महिलाएं 72.78 पर आकर रूक गई।
 लड़कियों की शिक्षा में भी बदहाली: प्रदेश में 10 वीं के बाद स्कूल छोडऩे वाली छात्राओं की बढ़ती संख्या भी इसका प्रमाण है। 2010 में 15 लाख 48 हजार 405 छात्राओं ने 10 वीं में पंजीकरण करवाया, लेकिन मात्र 14 लाख 23 हजार 425 छात्राओं ने परीक्षा दी। इसमें 10 लाख 94 हजार 967 छात्राएं उत्तीर्ण हुई, लेकिन इनमें से 11 वीं कक्षा में नौ लाख 67 हजार 713 छात्राओं ने पंजीकरण कराया। माध्यमिक शिक्षा अभियान में सामने आया कि इनमें से एक लाख 27 हजार 254 छात्राओं ने 10 वीं के बाद पढ़ाई छोड़ दी। 11 वीं में पंजीकरण न करवाने का यह आंकड़ा भयावह है, यहीं हाल जिले में आठवीं के बाद स्कूल छोडऩे वाली लड़कियों का भी है। इससे जिले और प्रदेश में लड़कियों की शिक्षा पर भी सवालिया निशान लगता है।
असुरक्षा लड़कियों की शिक्षा में बाधक: जिलें में यूपी बोर्ड के सेकेंडरी और हायर सेकेंडरी के कुल 124 स्कूल हैं। इनमें दो सरकारी,  45 एडेड और 77 अनअडेड स्कूल है। इन स्कूलों में कम ही छात्राएं पहुंच पाती है। इसके पीछे एक बड़ा कारण है, इन स्कूलों का दूर-दराज होना। इससे गांव देहातों में रहने वाले अभिभावक लड़कियों को स्कूल नहीं भेजते। सरकार द्वारा लड़कियों को शिक्षा तक खींचने की 'कन्या विद्या धन और पढ़े बेटी -बढ़े बेटीÓ जैसी अच्छी योजनाओं पर ही असुरक्षा भारी पड़ती है।
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रचना वर्मा

आधे फलक के चांद-सितारे नहीं मेरे हिस्से का पूरा आसमां चाहिए





- कुश्ती में मुकाम और लड़कियों के लिए प्रेरणा
- पेट्रोल पंप पर लड़कों की तरह काम करने पर है गर्व
- महिलाओं को समर्पित एक महिला

रचना वर्मा,नोएडा:
कॉमन इंट्रो  ''मुझे मेरे हिस्से का पूरा आसमां चाहिए, आधे फलक के चांद-सितारों से नहीं सजेगी मेरी दुनिया, मुझे दुनिया में आधी नहीं पूरी आबादी का हक चाहिए, बेचारी अबला नहीं और न ही आंखों में पानी, अब मुझे बदलनी है खुद की कहानी, जिन्दगानी के स्याह अंधेरों में रोशनी की लौ जलाने की कोशिश जारी है, भरोसा है मुझे, विश्वास है कायम कि एक दिन वो नई सुबह जरूर आएगी जब नारी अबला नहीं सबला बन दुनिया के फलक पर अलग मुकाम पाएंगी।ÓÓ इस जज्बे के साथ आठ मार्च को अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस पर ये अपने अस्तिव का उत्सव मनाएंगी। दुष्कर्म, दहेज हत्या, कन्या भ्रूण हत्या और अपने ही घरों में दोयम और निरीह करार दी जाने वाली नारी शक्ति इतने अत्याचारों, भेदभाव के बाद भी अपने अस्तित्व का पुरजोर अहसास करा रही है, हर क्षेत्र में अपने सार्थक प्रयासों से वह कह रही है हम किसी से कम नहीं। ये सच भी है, क्योंकि इस वर्ष महिला दिवस की थीम द जेंडर एजेंडा गेनिंग मोमेंटम भी यही गुनगुना रही हैं।
बबीता ने दी सादुल्लापुर की लड़कियों को प्रेरणा: गांव के माहौल में जहां लड़कियों को स्कूल भेजने में भी लोग सौ बार सोचते हैं, उसी गांव की बबीता नागर ने पुरूष वर्चस्व के क्षेत्र कुश्ती दंगल में अपना अलग मुकाम बना डाला। लगभग 12 हजार की आबादी वाले इस गांव में उन्हीं की बदौलत कई लड़कियों के सपने साकार होने को है। ग्र्रामीण बच्चियों को केवल स्कूल ही नहीं बल्कि खेल के मैदानों में भी भविष्य बनाने के लिए भेज रहे हैं। किसान परिवार से ताल्लुक रखने गांव की बबिता नागर के बुलंद इरादों का यह परिणाम है। मौजूदा समय में बबिता दिल्ली में सब इंस्पेक्टर पद पर तैनात हैं। राष्ट्रीय स्तर की रेसलर बबीता बताती हैं कि जब उन्होंने रेसलर बनने का सोचा तो उन्ही के ताऊजी मनीराम पहलवान ने उनके पिता प्रभुसिंह से कहा कि लड़कियों का क्षेत्र नहीं है, लड़की बिगड़ जाएगी, लेकिन पिता और मां शीला देवी के स्पोर्ट से उन्होंने अपने इस शौक को सुनहरे भविष्य में बदल डाला। वह कहती हैं कि पीठ पीछे गांव वाले उन्हें पागल कहा करते थे, लेकिन अब हाल यह है कि गांव के हर घर में उनकी मिसाल दी जाती है, हर बड़े समारोह में उनकी उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती है। प्रत्येक ग्र्रामीण अपनी बेटी को बबीता बनते देखना चाहता है। गांव की लड़कियां कुश्ती में पारंगत करने के लिए गांव में लड़कियों के लिए प्रशिक्षण केंद्र खोलने की तैयारी में हैं।
पसंद है लड़कों की तरह पेट्रोल पंप पर काम करना: सेक्टर-41 स्थित लेफ्टिनेंट विजयंत मोटर्स पेट्रोल पंप पर  पेट्रोल भरने का काम करने वाली  19 वर्षीय शालू को अपना ये काम काफी पसंद है। उन्हें बड़ा अच्छा लगता है कि वह भी लड़कों की तरह आठ घंटे लगातार भारी नोजल पकड़कर पेट्रोल भरती हैं। वह बताती हैं कि पेट्रोल पंप पर ग्र्राहकों की गाडिय़ों में लड़कों को पेट्रोल भरते देख सोचा करती थी, क्या वह भी इन लड़कों की तरह ये काम कर सकती हैं। घर की माली हालत अच्छी नहीं थी और वह परिवार की आर्थिक मदद करना चाहती थी, 10 वीं पास शालू ने पेट्रोल पंप पर काम करने की ठान ली। वह बताती हैं कि अब उनके पड़ोस के लोग भी अपनी बेटियों को पेट्रोल पंप पर काम करने के लिए मना नहीं करते।
औरतों को सपर्पित एक औरत: समाजसेवी ऊषा ठाकुर का नाम उन शोषित और पीडि़त महिलाओं के लिए किसी मसीहा सरीखा है, जिन्हें उन्होंने नई जिंदगी दी है। निठारी कांड को उजागर करने का श्रेय इसी महिला को जाता है। वर्ष 2009 में उन्होंने 40 अंधी लड़कियों को माफिया से छुड़ाया। दहेज हत्या, घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं, दुष्कर्म पीडि़ताओं की मदद को इस उम्र में भी वह तत्पर रहती है। वह कहती हैं कि उन्हें उनके काम करने पर कई बार धमकियां भी मिली, लेकिन शोषित और पीडि़तों के दर्द के आगे उनका ये परेशानी कुछ भी नहीं है। वह बताती हैं कि इन दिनों वह जिले से गुम हुए बच्चों पर काम कर रही हैं, गुम होने वाले 462 बच्चों में अधिक संख्या लड़कियों की है।
पक्के इरादों से सपने हुए साकार: दादी कहती हैं, लड़के झाड़ू नहीं लगाते, वह बर्तन भी नहीं मांजते, वह बाहर खेल सकते हैं, मुझे दादी बादाम नहीं देती, लेकिन सोनू भैय्या को रोज बादाम देती हैं,लेकिन क्यों ...25 वर्षीय प्रियंका आज भी जब अपनी डायरी में लिखे इन पुराने लम्हों को याद करती हैं, तो उसकी आंखों में आंसू छलक आते हैं। अपनी मेहनत के बल पर वह दिल्ली की एक मशहूर मैगजीन में काम कर रही है। वह बताती है कि संपन्न परिवार में पैदा होने के बाद भी एक लड़की होने का खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा। पत्रकारिता का कोर्स करने के लिए अपनों से ही लड़ाई लडऩी पड़ी, लेकिन संतोष इस बात का है कि पक्के इरादों ने उनके सपने साकार कर दिए।
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रचना वर्मा

शनिवार, अप्रैल 20, 2013

बलात्कार कानून की नहीं मानसिक सोच की लड़ाई

ये इंसान ही है जो सृष्टि पर सबसे सर्वोत्तम माना जाता है। इस उत्कृष्टता की पराकाष्ठा अब इस स्तर पर उतर आई है कि मासूम बच्चियां हवस का शिकार हो दम तोडऩे लगी हैं। मासूमों के साथ होने वाले ये दर्दनाक और वीभत्स हादसे कुछ कहते हैं... सजग हो जा ऐ इंसान की मातृशक्ति पर चलने वाली इस सृष्टि पर ये कहर अब और नहीं। मासूमों के देह से होता ये खिलवाड़ उस कुत्सित मानसिकता का भौंडा स्वरूप है जहां पुरुष की मानसिकता स्त्री को केवल यौन संतुष्टि का साधन समझती है। जब-तक नारी जाति का अस्तित्व उसके शरीर को लेकर तोला और मापा जाएगा, तब -तक हमारी बच्चियां हमारे खुद के घरों में भी महफूज नहीं होंगी। किसी भी कानून या प्रदर्शन से ये हादसे तब-तक नहीं रूक सकते, जब-तक  स्त्री को केवल और केवल वासना और उपभोग का पर्याय मानने की सोच नहीं बदलेगी। उसे केवल और केवल इंसान की तरह से देखने और समझने का नजरिया नहीं विकसित होगा। केवल शारीरिक भिन्नता से एक स्त्री इस दुनिया में किसी भी दिल और दिमाग रखने वाले इंसान की प्रताडऩा का शिकार कैसे हो सकती है। गर्भ धारण कर जीवन के नए अंकुर में जान फूंक कर उसे मानव का आकार देने वाली यही है, फिर आखिर क्यों उसी की कोख से जन्मा मानव रूपी पुरुष उसे हीन या मांस का एक लोथड़ा भर मान बैठता है। क्यों उसकी सोच उसे शारीरिक संबंध बनाकर पा लेने की सोच पर आकर खत्म हो जाती है। देश में ही नहीं पूरे विश्व में क्योंकर कोई स्त्री दामिनी, निर्भया का दर्द अनगिनत बार सहने को मजबूर हो। प्रत्येक घर में पत्नी के इतर मां, भाभी, बहन और बेटी जैसे पवित्र रिश्ते हैं और क्या ये रिश्ते घर की चारदीवारी पर ही सिमट जाते हैं। मौजूदा दौर में दिल यही सब मानने को मजबूर होता है,क्योंकि जिस भी घर में मां और बेटी है शायद ही उस घर का पुरुष किसी पराई स्त्री को गलत नजर से दिखने की कल्पना भी कर पाएं। कोई भी धर्म या समाज किसी भी पुरुष को ये सोच रखने की इजाजत नहीं देता, कानूनों के बल पर नहीं बल्कि ये लड़ाई सोच और मानसिक स्तर पर लड़कर जीतने की है। सरकार, राजनेताओं और राजनीतिक दलों पर आरोप लगाने से पहले समाज को स्वंय भी अपने अंदर झांककर देखना जरूरी है, हमारी सोच इस दिशा तक गिर गई है कि वासना शांत करने के लिए मासूम बच्चियों की तरफ नजर उठाने से भी इंसानी दिल को धिक्कारना गंवारा नहीं समझती। अब कोई गुडिय़ा रूसवा न हो और सिसकियों में अपना दर्द संभाले, इससे पहले ही संस्कारों के बीज हमको और आपको अपने घरों से बोने होंगे और समाज में इस पौधों को वृक्ष बनाकर छांव के लिए तैयार करना होगा। 

शुक्रवार, मार्च 15, 2013

मेरी कूची कहेगी तेरी कहानी प्रकृति रानी





- निर्भयापुर की कलाकार चित्रों से दे रही पर्यावरण संरक्षण का संदेश
- सुनामी को भी उकेरा तस्वीरों में
- प्रकृति से प्यार और लोक कला के संरक्षण की मिसाल

: ''मेरी कूची के रंग कह देंगे, तेरी कहानी है ओ प्रकृति रानी, तेरे ही रूप से सारा जहान है, तस्वीर में रंगों की रवानी तुझसे है, मानव का जीवन भी तुमसे है, वृक्षों को लगाना है, बस मानव को ये समझाना है....ÓÓ मन के इन उद्गारों को 40 वर्षीय मोयना चित्रकार चित्रों में ही बहुत संजीदगी से उतारती हैं। वह ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं है, लेकिन पटचित्र के माध्यम से वह पर्यावरण संरक्षण और विदेशों में भी भारतीय संस्कृति के बीज बो रही हैं। सेक्टर-21 ए स्टेडियम में गांधी शिल्प बाजार में आईं ये लोक कलाकार अपनी कलाकृतियों से समाजिक मुद्दों पर जागरूकता ला रही है।
सुनामी का दर्द ही नहीं सीता की व्यथा भी: उनकी कलाकृतियों में सुनामी का दर्द है तो तस्वीरों से बयां होती रामायण में सीता के रूप में नारी जाति की व्यथा भी उभर आती है। उनकी रामायण के चित्रों वाली किताब न्यूयार्क बेस्ट सेलर्स में हैं। अपनी कला के लिए राज्य स्तरीय पुरस्कार प्राप्त मोयना नारी सशक्तीकरण का भी जीवंत उदाहरण है। अपनी कला के जरिए वह परिवार का पालन-पोषण ही नहीं कर रही, बल्कि अपनी आत्मनिर्भरता से पश्चिम बंगाल के छोटे से गांव निर्भयपुर ग्र्रामीण महिलाओं के लिए मिसाल बनी हुई है।
नारी है प्रकृति का स्वरूप: पांच ïवर्ष की नन्ही उम्र में ही मोयना को प्रकृति का संसार भाने लगा था। मामी को प्राकृतिक रंगों से पटचित्र बनाते देख कर उनका भी पटचित्र कला की तरफ सहज रूझान हो गया। उनका कहना है कि नारी प्रकृति का ही स्वरूप है, उसे समझना हो तो प्रकृति से बेहतर कोई नहीं। उन्होंने बताया कि पटचित्र कला पूरी तरह से प्रकृति से जुड़ी हुई है। प्राकृतिक रंगों से तैयार हुई पट चित्र की कलाकृतियों में प्रकृति की तस्वीर ही बयां होती है।
रंगों का संसार है प्रकृति में: मोयना बताती है कि रंगों को तैयार करने से लेकर हाथ से बनाए हुए कपड़े पर तस्वीर उकेरने तक का काम पटचित्र कला में प्राकृतिक तरीके से किया जाता है। इससे प्रकृति को किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचता। इस कला में प्रयोग होने वाला पीला रंग हल्दी से, ईट से लाल रंग, अपराजिता के फूल से नीला और समुद्र के शंख से सफेद रंग तैयार होता है। यहीं नही हाथ से बनाया कपड़ा जिस पर चित्र बनाए जाते हैं, उसे चिपकाने के लिए बेल का गोंद प्रयोग में लाया जाता है। जब इतना सबकुछ प्रकृति से मिलता है, तो उसकी तस्वीर और उसे बचाना भी हमारा कर्तव्य है। वह कहती हैं कि एक तस्वीर बनाने में कम से कम तीन दिन लगते हैं। उनका कहना है कि तस्वीर 50 रुपये की हो या 30 हजार की उसमें दिया संदेश लोगों तक पहुंचना चाहिए।
सीधे उतर आती है तस्वीर: कागज पर रेखाचित्र उकरेने की जगह मोयना अपने विचारों को सीधे अपने चित्रों में जगह देती है। 'ओ जन गन सोबाई मिलेÓ उनके द्वारा पेड़ों लगाने का संदेश देने वाला गीत है, इस गीत को ही उन्होंने अपने चित्रों में उकेर डाला है। इसमें पेड़ों से जड़ी-बूटी मिलने का संदेश है, तो पेड़ बिना सूने मरूस्थल का भी चित्रण है। वह कहती हैं कि इस तस्वीर के माध्यम से वह पूरे देश को पेड़ लगाने का संदेश देना चाहती है। इसके साथ ही देवी-देवताओं के अलावा उनके चित्रों में लोक कथाएं भी स्थान पाती हैं।




रविवार, मार्च 03, 2013

कोई सुन ले मेरी सिसकियां...




-  यमुना में घुलता जा रहा है जहर
- जीवनदायिनी नदियों में आस्था के नाम पर जहर घोलना भी है देवों का अपमान
- कहीं देर न हो जाए और यमुना गुम जाए
 'कोई सुन ले मेरी सिसकियां कि आस्था के सैलाब में मेरा दर्द भी कराहता है। अब न बहाओ आस्था के नाम पर मेरे सीने में जहर, कि दफन हो जाउंगी एक दिन, न नजर आउंगी एक दिन और तुम ही कहोगे ये तो नाला है, इसमें कहां आस्था आराम पाएगी।Ó विजयदशमी पर इस वर्ष भी यमुना के आंचल में पूजन सामग्र्री के नाम पर टनों प्लास्टिक के बैग, मेटल, हानिकारक सामग्र्री से बनी सजावट सामग्र्री बहाई गई। जीवन दायिनी यमुना नदी का स्वरूप दिन प्रतिदिन बिगड़ता ही जा रहा है। यमुना के ठहरे हुए पानी के ऊपर जमी गंदगी और पानी में खतरनाक रसायनों के कारण बना झाग चेतावनी देता दिखाई पड़ रहा है कि इसे जल्द नहीं थामा गया तो यमुना को पहचानना तो दूर खोजना भी मुश्किल होगा।   
हिंदू संस्कृति हैं प्रकृति का आदर: हिंदू संस्कृति का नाम ही प्रकृति का आदर है। जल जंगल जमीन और हमारी नदियां इस पावन संस्कृति की पहचान है। गंगा को जमीन पर लाने के लिए भागीरथ ने तप किया और धरती को गंगा नसीब हुई, उसी की संगी साथी बनी यमुना, कृष्णा, कावेरी इन नदियों पर आस्था के नाम पर प्रदूषण इतना बढ़ चुका हैं कि ये कलप रही है। ऐसा न हो कि ये नदियां धरती के नक्शे से गायब हो जाएं, इस युग में शायद ही कोई भागीरथ बन पाएं और कठिन तप कर पानी की धारा जमीन पर खींच लाएं। 
वेदों और अनुष्ठानों का जाने असली अर्थ: हमारे जिन पूर्वजों ने  श्राद्ध और नवरात्र जैसे धार्मिक अनुष्ठानों का रास्ता बताया, उन्होंने प्रकृति का स्वरूप कभी नहीं बिगाड़ा। उन्होंने नदियों को गंदा नहीं किया, पेड़ों को नहीं काटा। उसके बदले उन प्राकृतिक संसाधानों ने उनका आदर किया। पानी के शुद्धिकरण के लिए उन्हें जलशोधक यंत्र नहीं विकसित करने पड़े। उन्होंने वेदों और अनुष्ठानों का असली मर्म समझा था, उसका व्यावहारिक प्रयोग जाना था न कि केवल देखा-देखी में धर्म को माना था। केवल एक दिन यानी 24 अक्टूबर की यमुना का स्वरूप यदि को धर्म का कोई असली मर्मज्ञ देख ले तो शायद उसकी आंखों में अश्रु बिंदु छलक आएंगे। कालिंदी कुंज में बहती यमुना पर पॉलीथीन बैग और तरह-तरह के कचरे के ढेर हैं। पर्यावरण विज्ञानी की भविष्यïवाणी कहती हैं कि नदियों के जीवन को बचाने के लिए सार्थक प्रयास करने की जरूरत है। वरना आने वाली पीढ़ी नदियों के अस्तिव को केवल किताबों में जान पाएगी।
परंपरा में शामिल हुआ आधुनिकता का खेल और नदियों में हुआ प्रदूषण का मेल: विकास के क्रम में मानव गंगा मां और यमुना मां और उनके शरण रहने वाले जलचरों की तकलीफ बढ़ाता जा रहा है। विकास और आधुनिकता के मेल में पूजा और पूजन सामग्र्रियां ऐसी हाईटेक हुईं कि फूल पत्तियों, मिट्टी की पूजा सामग्र्रियों की जगह प्लास्टिक की थैलियों, हानिकारक रंगों, धातु के कणों और अन्य खतरनाक वस्तुओं ने ली। 
विसर्जन, समर्पण से पहले सोच लो एक बार नदियां कराहती हैं: हर वर्ष गणपति, नवरात्र पर देव प्रतिमाओं के साथ लाखों टन प्लास्टिक और खतरनाक कचरा विसर्जन सोचते हैं कि देव प्रसन्न हो गए, लेकिन जब-तक इन पूजनीय नदियों को दूषित करते रहेंगे, कोई देवता खुश नहीं होगा, वह कुपित होगा, ऐसा हो भी रहा है, बाढ़, सूखा और न जाने क्या-क्या देवों के इस अप्रत्यक्ष कोप को समझना होगा। पॉलीथीन में पैक पूजन सामग्र्री डालने से पहले सोचना भी जरूरी है कि करोड़ों इंसानों की ये छोटी सी आस्था  नदियों के अस्तित्व पर संकट ला रही है। जब नदियां ही नहीं होगी तो कहां तपर्ण अर्पण, समर्पण होगा।  
नदियों के लिए बने जवाबदेह:  जामिया मिलिया इस्लामिया सिविल इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर गौहर महमूद का बताते हैं कि यमुना में बॉयलिजिकल ऑक्सीजन डिमांड(बीओडी) 10 होनी चाहिए,   लेकिन ये इस निर्धारित मानक को कब के तोड़ चुकी है। इस नदी में बीओडी  180 से 190 तक जा पहुंचा है।  रीति-रिवाज और परंपराएं भी जरूरी है, लेकिन नदी की स्वच्छता को ध्यान में रखकर। अनुष्ठानों के नाम पर प्लास्टर ऑफ पेरिस, खतरनाक रंग, पॉलीबैग नदीं में न बहाएं। यमुना पॉल्यूशन ऑथिरिटी जैसी सरकारी संस्थाएं लोगों को प्रशिक्षण दें। नदियों के किनारे जगह-जगह ट्रेनिंग ग्र्राउंड बनवाएं।  नदी किनारे होने वाले इन अनुष्ठानों पर टैक्स लगाए। ये छोटे-छोटे प्रयास भी बड़ा फर्क ला सकते हैं
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रचना वर्मा   

बुधवार, फ़रवरी 13, 2013

मासूमियत का दौर स्याह अंधेरों में गुम न हो जाए


मासूमियत का दौर स्याह अंधेरों में गुम न हो जाएं
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बच्चों को यौन शोषण और हिंसा बचाव के लिए चुप्पी तोड़े
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दिल्ली एनसीआर के बच्चे हो रहे यौन शोषण का शिकार 
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लड़कियों और लड़कों में यौन शोषण का बराबर है स्तर 

बचपन का मासूम दौर कच्ची मिट्टी सरीखा होता है, इस कच्ची मिट्टी में जरा सी ठेस लग जाएं तो ताउम्र उसकी टीस सालती रहती है। बचपन में यौन हिंसा और शोषण के शिकार हुए बच्चों के लिए ये दर्द उनकी जिंदगी में नासूर की तरह चुभता है। 40 वर्ष की मनु की आंखों में किशोरवय का वह दौर आज भी आंसू और दहशत ला देता है, उस घिनौने स्पर्श का अहसास उन्हें चैन नहीं लेने देता। मनु जैसे जाने कितने ही बच्चे होते हैं जो बचपन में यौन हिंसा का शिकार होते हैं और ताउम्र उसका दर्द झेलने को मजबूर। दिल्ली -एनसीआर में काम कर रहे एक एनजीओ और चाइल्ड लाइन के  आंकड़े चौकाने वाले है। इस क्षेत्र में आर्थिक रूप से कमजोर और शोषित वर्ग में बच्चों का यौन शोषण बड़ी समस्या है। मासूमियत का ये दौर यौन हिंसा और शोषण से जिंदगी का स्याह दौर न बने इस दिशा में जागरूकता बेहद जरूरी है।
हमने-तुमने भी कहीं न कहीं झेला है वह अनचाहा स्पर्श: शर्म हया और समाज का डर समाज को जीने लायक बनाता है, लेकिन कुछ मामलों में यहीं चीजें इंसान की जिंदगी में कड़वा जहर घोल डालती है। उच्च वर्गीय सेक्टर- 15 निवासी 40 वर्षीय मनु और 42 वर्षीय मीना के लिए अधेड़ उम्र में पहुंच कर भी उनके बचपन में हुए यौन शोषण का दौर भयानक स्वप्न बन लौट-लौट आता है। मनु बताती हैं कि उन्हें ट्यूशन पढ़ाने आने वाला ट्यूटर उन्हें गलत तरीके से छूता था। उनके परिवार में उस ट्यूटर का इतना आदर था कि वह कुछ कह नहीं पाई। आज भी उनके घर में वह उसी आदर से आता जाता है। मीना के चाचा बचपन में उससे ओरल सेक्स करते रहें और वह मर-मर के जीती रही। उनका कहना है कि दिल्ली सामूहिक दुष्कर्म कांड के बाद उनमें हिम्मत बंधी और उन्होंने इस बात को अपनी सहेली से साझा किया। वह आज 33 वर्ष के है,लेकिन पढ़ाई के लिए रिश्तेदार के यहां रहते हुए यौन शोषण का दौर याद कर उनकी रूह कांप उठती है। ये लोग ही क्यों ऐसे कई लोग है, जो बचपन में ये सब झेलते है और जवानी से लेकर बुढ़ापे तक इस सदमे को सहते हैं।
रूला डालेगी इन बच्चों की दास्तां :
चुप्पी तोड़ो एनजीओ के दिल्ली -एनसीआर के स्लम इलाकों और गांवों में बाल यौन शोषण और हिंसा के खिलाफ चलाए गए अभियान के तहत बच्चों के मुंह से कई चौकाने वाले तथ्य सामने आए। नोएडा में सेक्टर-41 और 135 के इलाकों में आर्थिक रूप से कमजोर और शोषित वर्ग के बच्चों ने आपबीती सुनकर कोई भी संवेदनशील इंसान आहत हुए बिना नहीं रहेगा। पहचान गुप्त रखने के लिए बच्चों के नाम बदल दिए गए हैं। 11 वर्ष के राम की आपबीती ' वह मुझे बेल्ट से मारता था और पेंट उतारने को कहता और उसके बाद गंदी हरकत करता, मुझे काफी तकलीफ होती थी।Ó
नौ वर्ष की सीता ने बताया कि वह घर में नहीं रहना चाहती। एनजीओ के सदस्यों के प्यार से पूछने पर उसने बताया कि उसका शराबी पिता यौन शोषण करता है। 11 वर्ष की रेशमा ने बताया कि उसके घर में उसके भाई का दोस्त रहने आया था। रात में छत पर सोते वक्त उसने रेशमा के मुंह में कपड़ा ठूंसा और उसके साथ दुष्कर्म किया। सुबह वह चला गया, लेकिन डर के मारे रेशमा ने किसी से कुछ नहीं कहा। 10 वर्ष की गौरी के पड़ोस में रहने वाले अंकल उसके छत पर अकेले होने पर फांद कर वहां आ गए और उसे गंदी हरकतें करने लगे। गौरी ने बताया कि इससे वह खुद से ही शर्मिंदा हो गई। मासूमियत के खिलाफ हैवानियत का खेल की बानगी भर है। चुप्पी तोड़ो के संस्थापक संजय सिंह का बताते हैं कि बच्चों को सेफ और अनसेफ टच समझाने, लैंगिक संवेदनशीलता और बाल यौन शोषण के लिए फिल्म दिखाने के साथ ही उन्हें चुप न रहो मां से कहने के लिए प्रेरित किया गया। बच्चों को प्रश्नावली के जरिए चाइल्ड लाइन सहित अन्य कई बाते जानने को दी गईं। उन्होंने बताया कि सर्वे से पता चला कि 92 फीसद स्कूली छात्र सेफ और अनसेफ के बारे में समझते हैं। चाइल्ड हेल्प लाइन नंबर 1098 की रिकॉल वैल्यू 99 फीसद आंकी गई। उधर साईं कृपा अनाथालय की संचालिका अंजना राजगोपाल बताती है कि उनके अनाथआश्रम में एक लड़की का ऐसा ही केस है। उसका पिता ही उसके साथ दुराचार करता था। इससे वह घर से भाग आई थी। उन्होंने उसका केस लड़ा और बाद में उसे उसकी मां के पास भेजा।
बाल यौन शोषण पर के कुछ तथ्य : यूनिसेफ और दिल्ली के एनजीओ सेव दि चिल्ड्रन के सहयोग से महिला और बाल विकास मंत्रालय द्वारा 2007 की स्टडी
- देश में सामान्यत: बाल यौन शोषण (सीएसए) से पीडि़त प्रतिशत 53
-बच्चों के यौन शोषण में 50 फीसद विश्वासपात्र और परिचित ही होते हैं।
-लड़कों और लड़कियों में बाल शोषण का स्तर बराबर है।
-नेपाल, बिहार, बंगाल, ओडिसा, आंध्र प्रदेश और उत्तर-पूर्वी भारत से दिल्ली -एनसीआर में विस्थापित (माइग्र्रेट) में सीएसए का फीसद 40.1 से 67.44 तक है। इन राज्यों में बच्चों पर यौन हमलों का प्रतिशत भी अन्य राज्यों से अधिक है।
- दिल्ली में 65.64 फीसद लड़के यौन हिंसा और शोषण के शिकार। दिल्ली बाल शोषण में अव्वल है।
- 53.22 फीसद बच्चे कई तरह के बाल शोषण झेलते हैं।
- 21.90 फीसद बच्चे गंभीर 50.76 अन्य तरह के यौन शोषण का सामना करते हैं
- 5.69 फीसद बच्चों पर यौन हमले होते हैं।
- कामकाजी, स्ट्रीट चिल्ड्रेन और इंस्टीट्यूशनल केयर में यौन शोषण का का सामना करते हैं।
मासूमियत रहे सुरक्षित, जवाबदेही, सर्तकता जरूरी :
- बच्चे को लोगों के गलत हाव-भाव, गलत इशारों और व्यवहार के बारे में बताएं, ताकि ऐसा होने पर वह तुरंत बता सकें। घर का और परिचित का फोन नंबर बच्चे को याद कराएं, ताकि वह दूसरे को बता कर तुरंत घर संपर्क कर सकें।
- कोशिश करें कि बच्चे को संकोची न बनाएं। उसकी शिक्षकों से समय-समय पर जानकारी लेते रहें।
- बच्चे के लगातार गुमसुम रहने और असामान्य व्यवहार को नजरअंदाज न करें। इस तरह की अनहोनी होने पर बच्चों को सहज करने के पूरे प्रयास करें हो सकें तो काउंसलर के पास ले जाएं।
-बच्चों को यौन शिक्षा देने की खासी जरूरत है, लेकिन उसमें इतना सलीका और सरलता होनी चाहिए, जिससे वह इसे आसानी से समझ सकें और भ्रमित न हो। बच्चों को खेल में ही ऐसी जानकारी दी जाएं तो उन्हें इस संवेदनशील विषय को समझने में आसानी होगी।
महिला और बाल विकास मंत्रालय ने बाल अपराधों के खिलाफ ड्राफ्ट और बाल अधिकारों के प्रोटेक्शन के लिए नेशनल और स्टेट कमीशन के गठन को लेकर अच्छे कदम उठाए, लेकिन इसे प्रभावी बनाने के लिए सरकार के साथ सिविल सोसायटी, कम्युनिटी सभी को एक मंच पर आकर कार्य करना होगा।
बच्चों के खिलाफ यौन हिंसा सचेत होना जरूरी :
बीते वर्ष 11 साल की खुशबू का एक हैवान ने यौन शोषण करने के साथ ही उसे अमानवीय शारीरिक यातनाएं दी, उसका सदमा से वह अब भी उबर नहीं पाईं।
 सितंबर 2012 में गाजियाबाद के स्कूल की  एक छह वर्षीय बच्ची बस चालक और क्लीनर की यौन हिंसा की शिकार हुई।
वर्ष 2012 में दिल्ली में तीन साल के एक मासूम बच्चे के साथ कैब चालक ने दुष्कर्म किया।
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सोमवार, फ़रवरी 11, 2013

मासूमों के साथ ये कैसा खिलवाड़




- बचपन को स्याह बनाने वालों के खिलाफ मिलकर चलाएं मुहिम
- स्कूल के साथ अभिभावक भी रहें सचेत और जागरूक
- बचपन की अल्हड़ हंसी कायम रहे, इसके लिए बच्चे को भी दे जानकारी
रचना वर्मा,नोएडा: ''मेरी मासूमियत से तुम क्यों खेलते हो, मेरे बचपन का अल्हड़पन स्याह अंधेरों में क्योंकर धकेलते हो, बचपन के इस मासूम दौर से क्या तुम नहीं गुजरे, जो अब उस पर ही बुरी नीयत रखते हो, बचपन का ये अल्हड़पन समाज में मौजूद कुछ हैवानों की वजह से ताउम्र का सदमा झेलने को बेबस हो जाता है। स्कूली बसों में बच्चों के साथ यौनाचार के मामले सोचने पर मजबूर करते हैं कि घर से बाहर ये नन्ही सी जानें कितनी महफूज है। शुक्रवार को गाजियाबाद में स्कूल बस के चालक और क्लीनर की करतूत से महज 6 साल की नन्हीं बच्ची का बचपन खौफ बन गया वहीं दिल्ली में तीन साल के एक मासूम बच्चे का बचपन स्कूल कैब के चालक की हैवानियत की भेंट चढ़ गया। सुरक्षित रहे आपके और हमारे बच्चे इस दिशा में आपको और हमको मिलकर सार्थक प्रयास करने होंगे।
सुरक्षा का माहौल खुद ही पैदा करना होगा: घर परिवार के अंदर भी बच्चों के साथ यौनाचार के मामले नए नहीं है, घर से बाहर बच्चों के साथ इस तरह के हादसों से इंकार नहीं किया जा सकता। यूनिसेफ और दिल्ली के एनजीओ सेव दि चिल्ड्रन के सहयोग से महिला और बाल विकास मंत्रालय द्वारा करवाई गई स्टडी इसका प्रमाण है। स्टडी बताती है कि केवल लड़कियां ही नहीं लड़के भी चाइल्ड एब्यूज के बराबर पीडि़त होते हैं। बच्चों के सेक्सुएल एब्यूजर्स में 50 फीसद विश्वासपात्र और परिचित ही होते हैं। अधिकांश बच्चे इस बात की शिकायत नहीं कर पाते हैं।  53.22 फीसद बच्चे कई तरह के सेक्सुएल एब्यूज झेलते हैं। इनमें 21.90 फीसद बच्चे गंभीर 50.76 अन्य तरह के सेक्सुएल एब्यूज के शिकार बनते हैं। 5.69 फीसद बच्चों पर सेक्सुएल हमले होते हैं। आंध्र प्रदेश, असम, बिहार और दिल्ली में बच्चों को सेक्सुएल एब्यूज के मामलों का प्रतिशत सबसे अधिक और इन प्रदेशों में बच्चों पर सेक्सुएल हमले का प्रतिशत भी अन्य राज्यों से अधिक है। इनमें कामकाजी, स्ट्रीट चिल्ड्रेन के और इंस्टीट्यूशनल केयर में सेक्सुएल एब्यूज का सामना करते हैं। मंत्रालय ने बाल अपराधों के खिलाफ ड्राफ्ट और बाल अधिकारों के प्रोटेक्शन के लिए नेशनल और स्टेट कमीशन के गठन को लेकर अच्छे कदम उठाए, लेकिन इसे प्रभावी बनाने के लिए सरकार के साथ सिविल सोसायटी, कम्युनिटी सबको एक मंच पर आकर काम करना होगा।
सुरक्षित तो कोई जगह नहीं, जवाबदेही,सर्तकता जरूरी :बच्चों के साथ यौनाचार के बढ़ते मामलों को देखा जाए तो कोई भी जगह सुरक्षित नहीं है, चाहे फिर सड़क हो या बस, लेकिन जागरूकता से मासूमों के साथ हो रही इस खिलवाड़ को रोका जा सकता है। स्कूल बसों में बच्चों के साथ बस में बैठे अंतिम बच्चे के उतरने तक स्कूल के शिक्षक या जवाबदेह स्टाफ का होना जरूरी है। उधर सड़कों पर दौडऩे वाली स्कूली वैन में बच्चों के साथ ऐसा कोई जवाबदेह शख्स हो ये कम ही होता है। ऐसे में स्कूल की जिम्मेदारी बनती है कि परखे हुए पुरूष या महिला स्टाफ को ही स्कूल बस ड्यूटी में शामिल करें। वैन में बच्चों को स्कूल भेजने वाले अभिभावकों को भी वैन चालकों के आचार, व्यवहार और विचार का गहन अध्ययन और जांच- पड़ताल के बाद ही इसे लगाना चाहिए।
वरिष्ठ छात्रों को शामिल करें मॉनिटरिंग में: समरविल स्कूल की प्रधानाचार्य एन अरूल राज कहती हैं कि उनका पूरा प्रयास रहता है कि स्कूल बस के प्रत्येक छात्र की सुरक्षा सुनिश्चित करें। इसके लिए एक शिक्षक हमेशा ड्यूटी पर रहता है, इसमें कोशिश होती है कि महिला शिक्षिका ही हो। उन्होंने स्कूल के सीनियर छात्रों को भी ऐसा प्रशिक्षण दे रखा है कि वह बस में अलर्ट रहें और अपना और जूनियर का ध्यान रखें। नेहरू इंटरनेशनल स्कूल की प्रधानाचार्य अलीना दयाल कहती हैं कि हमारे यहां स्कूल बस में शिक्षक शुरू से लेकर अंत तक रहती है। उनका मानना है कि स्कूलों को बाहर से बस हायर ही नहीं करनी चाहिए,जरूरत पडऩे पर हायर करनी भी पड़े तो कंडक्टर और ड्राइवर का पूरा वेरिफिकेशन करें। स्कूल के साथ ही अभिभावक भी सुनिश्चित करें कि उनका बच्चा अकेला न उतरे, विशेषकर छोटे बच्चे। ऐसा होने पर तुरंत स्कूल को सूचित करें। इसके साथ ही ड्राइवर और क्लीनर के हाव-भाव पर संदेह होने पर भी स्कूल में बताएं।
सकते और डर के साए में अभिभावक: सेक्टर-19 निवासी हरिता का कहना है कि इस तरह के हादसे सदमे में डालने वाले हैं। स्कूल और अभिभावकों को सचेत रहना चाहिए। स्कूल के साथ ही अभिभावकों को भी बच्चों को हैंडल करने वाले स्टाफ पर पैनी नजर रखनी चाहिए। सावधानी और सर्तकता ही नन्हे बच्चों के बचाव का रास्ता है। उनका कहना है कि असावधानी स्कूलों व अभिभावकों दोनों से हो सकती हैं। कई बार शिक्षक तो कई बार अभिभावकों की लापरवाही से इस तरह की घटनाएं होती हैं।
स्कूलों से अपील ध्यान से करें स्टाफ का चुनाव: एसएसपी प्रïवीण कुमार का कहना है कि इस तरह की घटनाएं न हो, इसके लिए वह जिले के स्कूलों से अपील करते हैं कि स्कूल स्टाफ का चुनाव ध्यान से करें। स्कूली बस में चलने वाले स्टाफ पर लगातार नजर रखें। इसके साथ ही बस के ड्राइवर और कंडक्टर की जानकारी लोकल पुलिस स्टेशन में जरूर दे। 

ताकि हंसता-मुस्कुराता रहे बचपन:
- स्कूलों को छात्रों को लाने ले जाने वाली वैन प्रतिबंधित करनी चाहिए, क्योंकि इनकी जवाबदेही स्कूल नहीं लेता। इसमें छात्रों की सुरक्षा के लिए कोई व्यवस्था नहीं होती।
- अभिभावकों को बच्चे का दाखिला कम दूरी के स्कूल में कराना चाहिए। जहां से वह स्वंय जाकर बच्चों को ला सकें। स्कूल दूर होने पर सुनिश्चित करें बच्चे के लिए स्कूली बस लें हायर वैन या बस नहीं।
- बच्चे को लोगों के गलत हाव-भाव, गलत इशारों और व्यवहार के बारे में बताएं, ताकि ऐसा होने पर वह तुरंत बता सकें। घर का और परिचित का फोन नंबर बच्चे को याद कराएं, ताकि वह दूसरे को बता कर तुरंत घर संपर्क कर सकें।
- समय-समय पर बच्चे की स्कूल बस में जाकर स्टाफ पर नजर रखें, आपत्तिजनक व्यवहार होने पर स्कूल को सूचित करें।
- कोशिश करें कि बच्चे को संकोची न बनाएं। उसकी शिक्षकों से समय-समय पर जानकारी लेते रहें।
- बच्चे के लगातार गुमसुम रहने और असामान्य व्यवहार को नजरअंदाज न करें। इस तरह की अनहोनी होने पर बच्चों को सहज करने के पूरे प्रयास करें हो सकें तो काउंसलर के पास ले जाएं।
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रचना वर्मा

शनिवार, फ़रवरी 09, 2013

हर मजहब को मजहबे इश्क बना देता है ये अहसास



- वैलेंटाइन पर यादें फिर मुस्कुराई
- प्रेम अजर, अमर है कोई दीवार कोई परिस्थिति उसे नहीं तोड़ पाई
- एक तरफा नहीं दो तरफा होता है ये अहसास
' नर्म अहसासों की जुबां पढ़ लेती है खामोश आंखों में इश्क का अफसाना, दिलों के मुल्क में बस इश्क का मजहब चलता है.. कुछ इस तरह इश्क करने वाले दुनियावी बातों से दूर दिल की बस्ती बसाने के लिए हर हद से गुजर जाते हैं। हर सदी में हर दौर में इनके फसाने अमर हो जाते हैं,उनका इश्क वैलेंटाइन डे का मोहताज नहीं होता, पर इस विशेष दिन में उनकी यादें जरूर ताजा कर देता है। शहर में भी कुछ ऐसे ही इश्क के इबादतगार है, जिनकी जिंदगी के इस खूबसूरत लम्हे को इस समय याद करना लाजिमी हो जाता है।
इश्क केवल और केवल इश्क समझता है: गुडिय़ा और सोनू की खुशहाल विवाहित जिंदगी को देख भले ही लोग मिसाल देते हो, लेकिन इश्क की इस शमां को जलाए रखने के लिए दोनों ने तूफानों के दौर भी झेले हैं। गुडिय़ा मुस्लिम और सोनू हिंदू परिवार से ताल्लुक रखते हैं। जुलाई 2002 में नोएडा के डिग्र्री कॉलेज की सीढिय़ों पर फॉर्म भर रही गुडिय़ा को सोनू ने फॉर्म भरना सिखाया, लेकिन दोनों की नहीं पता था कि ये फॉर्म ही उनकी जिंदगी का इश्क के स्कूल में दाखिला करा देगा। इसके बाद कोई मुलाकात नहीं और बात नहीं, लेकिन नवंबर में कॉलेज परिसर में दोनों एक बार फिर मिलते हैं, औपचारिक अभिवादन के बाद दोनों फिर अपने रास्ते चल दिए, लेकिन कहते है न कि इश्क का अहसास जब दोनों तरफ से हो तो कायनात भी दो प्रेमियों को मिलाने के सारे बंदोबस्त कर देती हैं। सोनू बताते है कि गुडिय़ा ने उन्हें लैंड लाइन फोन पर शाम 5.30 बजे प्रपोज किया था। दोनों ने अपनी चाहत को अंजाम तक पहुंचाना चाहा, लेकिन वहीं मजहब की दीवार आगे खड़ी थी। सोनू के परिवार ने उनकी शादी का पुरजोर विरोध किया, लेकिन उन्होंने गुडिय़ा से वादा किया था कि एक सप्ताह के अंदर वह उससे विवाह करेंगे। सोनू ने अपना घर छोड़ दिया और गुडिय़ा को लेकर किराए के एक मकान में आ गए। वर्ष 2008 में दोनों ने शादी कर ली। उनके घर में खुशी यानी उनकी बेटी आने वाली थी। अंतत: सोनू के परिवार ने भी उन्हें अपना लिया। सोनू और गुडिय़ा का मानना है कि चाहत एक तरफा होती है, लेकिन प्यार दो तरफा होता है और जब ये होता है तो कोई दीवार इसके आगे नहीं टिकती।
जिंदगी की तूफानों में रहती है इश्क की लौ रोशन: सेक्टर-40 निवासी इस दंपत्ति को भले ही लोग सहानुभूति की निगाहों से देखते हो, लेकिन कोई इनसे पूछे कि कैसे कठिन परिस्थितियों में भी अपने इश्क लौ जगाए हुए हैं। आज से पांच वर्ष पहले टैडी डे पर निशा को राजीव का दिया पिंक कलर का टैडी उनके कमरे में प्यार के अहसास को जगाए रखता है। दोनों के विवाह को 12 वर्ष हो गए हैं, लेकिन शादी को तीन वर्षों बाद ही निशा लकवाग्र्रस्त हो गईं। प्रेम के बंधन से विवाह में बंधे राजीव को कई लोगों ने दूसरे विवाह की सलाह दे डाली, लेकिन राजीव की सांसों में निशा का प्यार ही धड़कता है। वह इस खतरनाक बीमारी में भी निशा को छोटेच्बच्चे की तरह संभालते हैं। राजीव कहते है कि प्रेम परिस्थितियों के साथ नहीं बदलता, वह तो होता है और अजर अमर रहता है।

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