शुक्रवार, जनवरी 09, 2009

कारवां गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे ।

महान कवि गोपालदास नीरज की यह काव्य रचना जीवन के कुछ "अनछुए " पहलुओं के इतने करीब लगी कि इस रचना को अपने संग्रह में शामिल करने से खुद को रोक नहीं पाई।

स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से

लुट गए श्रृंगार सभी बाग़ के, बबूल से

और हम खड़े खड़े बहार देखते रहे

कारवां गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे ।

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई

पांव जब तलक उठे कि ज़िंदगी निकल गई

पात-पात झर गए कि शाख़-शाख़ जल गई

चाह तो निकल सकी ना पर उमर निकल गई

गीत अश्रु बन गए, शब्द हो हवन गए

रात के सभी दिए धुआं-धुआं पहन गए

और हम झुके-झुके, मोड़ पर रुके-रुके

उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे

कारवां गुज़र गया...

क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा

क्या स्वरूप था कि देख आइना सिहर उठा

इस तरफ़ ज़मीन और आसमां उधर उठा

थामकर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा

एक दिन मगर छली वो हवा यहां चली

लुट गई कली-कली कि घुट गई कली-कली

और हम दबी नज़र, देह की दुकान पर

सांस की शराब का ख़ुमार देखते रहे

कारवां गुज़र गया...

आंख थी मिली कि अश्रु-अश्रु बीन लूं

होठ थे खुले कि चूम हर नज़र हसीन लूं

दर्द था दिया गया कि प्यार से यक़ीन लूं

और गीत यूं की रात से चराग़ छीन लूं

हो सका न कुछ मगर, शाम बन गई सहर

वह उठी लहर की ढह गए किले बिखर-बिखर

और हम लुटे-लुटे, वक्त से पिटे-पिटे

दाम गांठ के गवां, बाज़ार देखते रहे

कारवां गुज़र गया...

मांग भर चली थी एक जब नई-नई किरण

ढोलकें धुनक उठीं, ठुमक उठे चरण-चरण

शोर मच गया कि लो चली दुल्हन-चली दुल्हन

गांव सब उमड़ पड़ा, बह उठे नयन-नयन

पर तभी ज़हर भी, गाज़ एक वह गिरी

पुंछ गया सिंदूर, तार-तार हुई चूनरी

और हम अजान से, दूर के मकान से

पालकी लिए हुए कहार देखते रहे

कारवां गुज़र गया...

एक रोज़ एक गेह, चांद जब नया जगा

नौबतें बजीं, हुई छठी, डठौन रतजगा

कुंडली बनी कि जब मुहूर्त पुण्यमय लगा

इसलिए कि दे सके न मृत्यु जन्म को दग़ा

एक दिन पर हुआ, उड़ गया पला सुआ

कुछ न कर सके शगुन, ना काम आ सकी दुआ

और हम डरे-डरे, पीर नयन में भरे

ओढ़कर कफ़न पड़े, मज़ार देखते रहे

चाह थी न किंतु बार-बार देखते रहे

कारवां गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे ।।