सोमवार, अप्रैल 02, 2018

भावनात्मकता के मोड़ पर हम क्यों कमजोर ?


अपनी कोख में जीवन के नए अंकुर को पोषण देने वाली सृष्टिस्वरूपा है नारी। धैर्य के साथ अपने घर को सदा के लिए त्याग जीवनसंगिनी बन एक नए परिवार की जिम्मेदारी संभाल लेती है वह, इतना सशक्त होने के बाद भी जाने क्यों एक पुरुष की बेवफाई के आगे वह इस कदर कमजोर हो जाती है कि अपना अस्तिव समाप्त करने जैसा आत्मघाती कदम तक उठा लेती है। सुनंदा पुष्कर के मामले में यहीं हुआ। वह हर तरह से एक सशक्त नारी थी। इस कदर वह भावनात्मक रूप से कमजोर होकर जीवन से हार कैसे मान सकती थी। जिन भावनाओं से नारी संसार को खूबसूरत बनाने का दम रखती है, उन्हीं के आगे हार का ये सवाल अब भी चुभता हैं कहीं। शायद पौराणिक काल से ही नारी अपनी इसी कमजोरी की वजह से दमन का शिकार होने को मजबूर हुई। हर युग में कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाली सहचर्या को पुरुष ने उसकी भावना के स्तर पर क्षीण करने का हथियार शायद बहुत पहले ही पहचान लिया था, इसी वजह से वह उसे इस मोड़ पर ले आता है जहां वह शराबी पति, पिता भाई से मार खाने के बाद भी उनसे जुड़ी रहने की विवशता से बंधी रहती है। भावनात्मकता की इस शक्ति को उसे अपने को हर स्थिति में सशक्त रखने के लिए इस्तेमाल करने की क्षमता विकसित करनी ही होगी। अन्यथा द्रौपदी का चीर हरण और निर्भया का बलात्कार हर युग की कहानी बनती रहेगी। ब्वॉयफ्रैंड के फोन न करने से परेशान होकर ट्रेन के आगे कूद जाने वाली, जहर खाकर जान दे देने वाली प्रवृतियों से बाहर आकर, कुछ सार्थक कर दिखाने की इच्छा बलवती करना बेहद जरूरी है। 


शनिवार, मार्च 17, 2018

हमें महिला दिवस क्यों मनाना चाहिए ?

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दुनिया में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को आधी आबादी का नाम दिया गया है. आधी आबादी है इसलिए महिला दिवस मनाना चाहिए और हमें अपने वजूद का अहसास कराना चाहिए. हमें आधी आबादी बनाया किसने समाज ने दुनिया ने. हमें आधी आबादी के तमगे से नवाज़ कर जब पहले ही आधा-अधूरा करार दिया गया, तो क्या  महिला दिवस का दिन मुकर्रर कर ये औरतों को पीछे धकेलने का एक पुरजोर कदम नहीं है ?
चंद ही दिन बीते हैं इस साल के महिला दिवस को गए हुए, लेकिन ये महिला दिवस भी कई महिलाओं को एक कमतरी के एहसास से भर गया. इस मसले को शुरू करने के लिए अनगिनत उदाहरण हैं हमारे पास, लेकिन अपने को पूरी आबादी कहलाने का कोई ठोस समाधान आज तक हमें नहीं दिखा. एक उदाहरण तो हालिया ही है. एक बड़ी कंपनी में महिला दिवस पर कांफ्रेस हॉल में सब एकत्र होते हैं और एक बड़ा सा केक काट कर महिला दिवस का हो हल्ला मचता है. सभी महिला कर्मचारियों को स्नैक्स का एक डिब्बा थमा के महिला सशक्तिकरण हो जाता है. लेकिन उसी ऑफिस के महिला वॉशरूम की कर्मचारी को उस गैदरिंग में शामिल नहीं किया जाता और न ही उसे स्नैक्स का डिब्बा दिया जाता है. वहां मौजूद अन्य महिला कर्मचारी न उस महिला को गैदरिंग में शामिल होने के लिए कहती हैं और न ही केक खाने को, लेकिन वॉशरूम में फर्श पर बिखरे पानी को साफ़ करने की नसीहत जरूर दे जाती हैं.
लोकल बस कीमहिलाएंलिखी सीटें चीख-चीख कर कहतीं हैं तुम कमजोर हो तुम महिला हो तुम्हें सीट चाहिए, लेकिन उसी सीट पर पुरुष बैठे हो और कोई महिला भरी बस में दुधमुंहे बच्चे को लेकर परेशान खड़ी हो. उसे इंसानियत के नाते सीट देनी चाहिए न कि महिला होने के नाते. यहीं महिला यात्रियों पर भी लागू होता है. लेकिन विडंबना ये है कि आप उस महिला को सीट देने को कहें तो तपाक से लीडर न बनने की नसीहत दे दी जाती है और बस से उतरने तक सब ऐसे घूरते हैं जैसे आप कोई अजूबी सी चीज़ हैं. हां हैं न हम अजूबी चीज़ क्योंकि हम औरत हैं और हमें केवल और केवल इंसान की तरह देखने की जहमत अभी तक नहीं उठाई गई हैं.
दुनिया में ये फ़ासला अभी तक पट नहीं पाया है. जिंदगी के कई मोड़ों पर ये खाई साफ़ दिखाई देती है. कोई पुरूष 10 साल छोटी महिला से शादी कर ले तो कोई उस महिला की तारीफ़ों के पुल नहीं बांधता, लेकिन पुरूष अपने से 10 साल बड़ी महिला से शादी कर ले तो जैसे वो एकाएक हीरो बन जाता है. गोया कि महिला पर उसने कोई एहसान किया हो. शादी में ये क्यों जरूरी है कि हमेशा लड़की ही लड़के की उम्र से कम होनी चाहिए. महिला किसी विवाहित पुरुष से शादी कर ले तो वह घर तोड़ने वाली का ख़िताब पाती है और कोई पुरूष किसी विवाहित महिला से शादी कर ले तो शायद ही दुनिया ने उसे कोई नाम दिया हो या लताड़ा हो. लड़की को ही शादी के बाद अपना घर छोड़कर लड़के के घर जाना होगा. इसके कुछ अपवाद भी है लेकिन बिरले ही है.
बिंदी लगाकर और मांग भर कर ही कोई महिला शादीशुदा क्यों कहलाती है, बिंदी न लगाने वाली विवाहित महिलाएं क्या अपने पति से प्यार नहीं करती. कोई विधवा होने का बाद दूसरी शादी कर ले तो समाज कितनी सहजता से इसे स्वीकार कर पाता है, लेकिन पुरुष के विधुर होते ही उसकी शादी की पुरजोर कोशिशें की जाती हैं.
किसी भी औरत का मां बनना और न बनना उसका नितांत अपना फ़ैसला है, लेकिन मां न बनने से औरत को अधूरी कहने का रिवाज़ क्यों कर ख़त्म नहीं होता. एक पुरुष अविवाहित रह सकता है, लेकिन एक महिला जब अविवाहित रहना चाहे तो क्यों समाज़ ये बात आसानी से पचा पाता है.
किसी लड़के के छाती के बाल शर्ट से झलक आएं तो उसका पौरूष झलकता है और गलती से किसी लड़की के कांख के बाल या ब्रा का स्ट्रेप दिख जाए तो वो बेपरवाह और बेशर्म कहलाती है. क्यों हम आदमी की तरह ही औरत के शरीर को सहजता से नहीं ले पाते. किसी महिला की अचानक मौत हो जाएं तो सब अफेयर, प्रेगनेंट के कयासों के साथ उसके कैरेक्टर का ऑपरेशन करने लगते हैं.
किसी अविवाहित लड़की के गर्भवती होने पर उसके लिए ही समाज कुलटा, बदचलन जैसे उपनामों से उसे नवाज़ता है, लेकिन उसे गर्भवती करने वाले पुरुष के लिए समाज को शायह ही अब तक कोई सटीक अपमानजनक शब्द विशेष मिल पाया हो. किसी की बेइज्जती करनी है तो शुरू हो जाइए मां बहन की गालियों से, क्यों आपसे बाप भाई की गाली से बेइज्जती नहीं करवाई जाती.
औरत से इश्क किया जा सकता है, लेकिन वो इश्क का इज़हार कर डाले तो बेहया हो जाती है, क्योंकि इश्क और सेक्स लिखती औरतें सब को भा सकती हैं, लेकिन इश्क और सेक्स करती औरतें ख़ुद –बख़ुद बेहया हो जाती हैं. इतना सब होने के बाद भी महिला दिवस का ढोल पीटना बेमानी और ख़ुद को दिन में सपने दिखाने सरीखा हैं.