रविवार, अगस्त 15, 2010

विकास ये कैसी भ्रांति

आजादी के 63 साल बीतने को आए और पूरा देश धूमधाम से स्वतंत्रता का पर्व मना रहा है, लेकिन स्वतंत्र होने के बाद भी आज के दिन देश के किसानों को क्यों लग रहा है कि वो अभी भी स्वतंत्र नहीं है। अलीगढ़ के पास किसानों ने अपनी जमीन अधिग्रहण के मुवावजे को लेकर ये कैसी क्रांति की, कि कई बुलडोजर जला दिए गए, थाने को आग के हवाले कर दिया गया। ये किस क्रांति की राह पर चल रहा है हमारा अन्नदाता, क्यों उसे धरती मां की गोद से उठकर इस हिंसक क्रांति को अंजाम दिया, ये सवाल हमारी पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए परेशानी का सबब बन सकता है। ऐसा नहीं है कि किसानों ने इससे पहले  क्रांति का बिगुल नहीं बजाया, लेकिन उनकी ये क्रांति देश हित के लिए थी। सन् 1857 की क्रांति में किसानों ने बढ़-चढकर भाग लिया। यहां तक रोटियों के जरिए क्रांति के संदेश एक जगह से दूसरी जगह पहुंचने लगे और इस क्रांति ने अंग्रेजों को दांतों तले अंगुली दबाने के लिए मजबूर कर दिया, लेकिन अब और तब के किसानों की एकजुटता के उद्देश्य में धरती-आसमान का अंतर है। आज हमारा किसान गन्ने का सर्मथन मूल्य बढ़ाने को लेकर सड़कों पर उतरता है तो कभी अपनी भूमि के मुवावजे को लेकर। आखिर क्यों धरती मां की कोख में अन्न की बालियां देखकर खुश होने वाला किसान इतना हिंसक हो उठा है कि अपनी मांगों को मनवाने के लिए मारपीट और आगजनी का सहारा लेने के मजबूर है।कृषिप्रधान हमारा देश किसानों के विकास को गंभीरता से नहीं ले रहा है। एक-तरफ बड़े-बड़े बिल्डर जमीन के अच्छे दामों का लालच देकर किसानों की जमीन मुंहमांगे दामों में खरीद रहे है, तो दूसरी तरफ बड़े- बड़े प्रोजेक्ट्स के लिए सरकार भी किसानों की भूमि का अधिग्रहण कर रही है। देश के विकास के नाम पर कृषियोग्य भूमि पर टॉउनशिप विकसित की जा रही है। इसे देश के विकास के पथ पर अग्रसर होने का मापदंड माना जा रहा है, लेकिन विकास का मतलब है चहुंमुखी प्रगति ना कि केवल एक तरफ विकास या झुकाव। यह स्थिति वास्तव में शोचनीय है.. ऐसा क्यों है कि किसान अपनी भूमि बेचने में रूचि लेने लगा है क्यों वो खेती नहीं करना चाहता,क्यों मुवावजे को लेकर वह सड़कों पर उतरने लगा है। देश के हर नागरिक की तरह किसानों को भी अधिकार है कि वह उन्नत जीवन शैली अपनाएं हाईटेक हो जाए, लेकिन इस कीमत पर नहीं कि वह खेती और अन्न उगाने के काम को तुच्छ और मुसीबत भरा मान ले। क्यों नहीं ऐसा कदम उठाए जाते कि किसान अपनी भूमि बेचने को मजबूर ना हो, कृषि से विमुख ना हो। क्या होगा यदि देश का हर -एक किसान अपनी भूमि बेच कृषि करना छोड़ दे। हाईटैक होने के लिए बड़े प्रोजेक्ट्स में सारी कृषियोग्य भूमि नप जाए। कल्पना कर के ही डर लगता है, क्योंकि अभी तो फिऱ भी किसान अन्न उगा रहा है और फिर भी देश में लाखों लोग भुखमरी के शिकार है। सरकार यदि किसी बड़े प्रोजेक्ट्स के लिए भूमि अधिग्रहण कर रही है तो उसे प्रोजेक्ट्स को अंजाम देने से पहले गंभीरता से कृषि योग्य भूमि और किसानों के बारे में विचार करना चाहिए, इसका विकल्प जरूर सोचना चाहिए, किसानों के लिए मुवावजे का ऐसा प्रबंध करना चाहिए, ताकि वो संतुष्ट भी और कृषि से विमुख ना हो। बड़ी-बड़ी टॉउनशिप का विस्तार करने वाले बिल्डरों और ग्रुपस पर भी कृषि भूमि के अधिग्रहण को लेकर लगाम लगानी चाहिए। गांवों में रहने वाली हमारी आधी आबादी को गांवों में ही अच्छे रोजगार, चिकित्सा, शिक्षा के साधन उपलब्ध करवाने का प्रयास करना चाहिए, ताकि देश का किसान अपने को हीन ना महसूस करें।
ये विचार शायद बहुतों के मन में आए होंगे विचार आने और उन्हें  कागज पर उतारने के बाद मेरे जैसे कई लोग अपने को देश का बहुत बड़ा हितैषी होने का भ्रम पाले है,लेकिन केवल सरकार, समाज ही नहीं बल्कि हम और आप जैसे लोग भी इन समस्याओं को गंभीरता से ले और अपनी तरफ से छोटा सा ही सही सार्थक प्रयास करने की पहल करें तो शायद स्थिति में सुधार की गुंजाइश की जा सकती है, फिर आजादी का जश्न वास्तव में जश्न होगा।

जय हिंद..

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