शनिवार, सितंबर 20, 2008

आंतक का कोई चेहरा नहीं होता,लेकिन जिजिविषा हरपल एक नए रूप में दिखाई देती है

दिल्ली, अहमदाबाद या फिर देश के किसी भी कोने में आंतकियों द्वारा किए जा रहे बम धमाके केवल एक डरी हुई मानसिकता का परिणाम है। आंतकवाद फैलाने का काम कर रहे यह जेहादी और आंतकवादी असल में खुद ही डरे हुए है, इन्हें डर है कि इन चंद मुठ्ठी भर लोगों की कुत्सित मनोवृत्तियां पर कहीं अच्छे और पाक -साफ जज्बात हावी न हो जाए। दुनिया में कहीं भी आंतक के निगेहबान बने यह लोग क्या यह नहीं समझ पा रहे है कि ज़िन्दगी कभी नहीं हारती वह अपनी राह तलाश ही लेती है, चंद बम धमाके और जीवन की मौत उसे नहीं रोक पाते। देश के जिन राज्यों में भी आंतकवादियों ने बम धमाकों को अंजाम दिया वहां की आम आवाम इस सदमे से उबरने के लिए दुगुने जोश से उठ खड़ी होती है। वहीं मानवता को बचाने के लिए मोहन चंद शर्मा जैसे जांबाज जो अपनी जान की परवाह किए बिना आंतक को नेस्तानाबूद करने के लिए कमर कस लेते है, ऐसे शूरवीरों की भी यहां कमी नहीं है... इससे भी बड़ी बात आंतक के ये चेहरे कितने कमजोर होते है कि कुछ निहित स्वार्थों की वजह से यह अपना ही खून बहाने में नहीं झिझकते। इनमे इतना दम नहीं की यह जीवन को रोक पाए, बच्चे की निश्छल मुस्कान, युवाओं की आसमान, छू लेने की इच्छा, बुजुर्गों की हर-पल जीवन को नए अंदाज से देखने की जीवटता क्या यह आंतक इन्हें रोक पाया नहीं और ऐसा संभव भी नहीं है, इसलिए आंतक के इन सायों से हमे डरने की जरूरत नहीं.... आम आदमी से भय खाने की अब आंतक की बारी है। आंतक अब बस कुछ पल का ऐसा मेहमान है जो बस तब-तक टिका है जब-तक हम इस अनचाहे मेहमान की बेइज्जती नहीं शुरू कर देते। यह मेहमान ना हिंदु का है और ना ही मुसलमान का यह तो केवल चंद राह से भटके लोगों से अपनी तीमारदारी करवा रहा है, लेकिन यह तीमारदारी भी अब खुद ही चंद रोज की मेहमान है...

सोमवार, सितंबर 15, 2008

कुछ तो लोग कहेंगे

जीवन की धूप-छांव में ना जाने कितनी बार ऐसी परिस्थितयां आती है, जब हम चाहकर भी कुछ नहीं कर पाते, केवल सहन करने और सहने के सिवा हमारे पास कोई दूसरा रास्ता ही नहीं होता....इतनी बेबसी शायद दुनिया से विदा ले रहे इंसान को भी नहीं होती होगी, जितनी की भावनाओं, संवेदनाओं, अपने -पराए के बीच झूल रहे मन को होती है। उसे कुछ खोने का डर भी सता रहा होता है तो एकबारगी को मन वो सबकुछ मानने के लिए तैयार ही नहीं होता जो उसके साथ घट चुका होता है या घट रहा होता है, ऐसे समय में केवल और केवल कुछ अहसास लफ्ज की शक्ल में उतरने को बेताब होते है और हर इंसान शायद कुछ ऐसा ही महसूस करता होगा।
मेरी उस मनोदशा में जो मुझे सूझा वह किसी साहित्यिक कृति के नियमों की परवाह किए बिना कागज पर उतर आया। कुछ ऐसा ही इन शब्दों में मैंने बयां करने की कोशिश भर की है।

" वो राहें कहां से लांऊ, जिनकी मंजिलें होती है...
वो ख्वाब कहां से लांऊ, जिनकी ताबीरें होती है...
वो सब है मंजूर मुझे, जो मेरी तकदीर देती है...
गोया कि यकीं है मुझे, एक रोज वो भी आएगा...
जब गम मुझसे गश खाएगा..."
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" बेनूर सी निगाहों में पला था एक ख्वाब....
तस्व्वुरों की रोशनी में चमका था उसका रूवाब...
रूसवाईयों की मजलिस... आंधियों का गुबार....
तन्हाईयों की मंजिल, मेरी जिन्दगी का शबाब...."