गुरुवार, जुलाई 29, 2010

आज भी है वहीं खड़े हम


सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी की कविता की ये पंक्तियां -
वह तोड़ती पत्थर इलाहाबाद के पथ पर
ना जाने कितने दिनों से मेरे मन को झकजोर कर रही थी। इन पंक्तियों ने मुझे अतीत के पन्नों पर गुम हो गया एक मर्मपर्शी वाकया याद करा दिया। तब देश में मंहगाई को लेकर तांडव नहीं मच रहा था। साल २००४ में दैनिक भास्कर फरीदाबाद से मेरा तबादला गुड़गांव ब्यूरों कर दिया गया था, जाने मैंनेजमेंट को क्या सूझी थी कि उसे मात्र तीन हजार की तनख्वाह पाने वाले रिपोर्टर को एनआरआई के पसंददीदा शहर गुड़गांव में भेजना मुफीद लगा। रिहायशी मंहगी होने के कारण में फरीदाबाद से ही गुड़गांव .अप -डॉउन करती थी..मेरे ऐसे ही एक सफर के दौरान अप्रैल माह की सुबह हरियाणा रोड़वेज फरीदाबाद की बस जब जाम लगने की वजह से कुछ देर के लिए गुड़गांव इफको चौक के पास जाकर रूकी। अनमने मन से मैं भी बाहर की तर्‌फ देखने लेगी। इतने कोलाहाल भरी सड़क पर जब सभी को अपने गंत्वय तक पहुंचने की जल्दी हो शायद मेरा भी ध्यान उस घटना की तरफ नहीं जाता, लेकिन एक दुधमुंहे बच्चे के क्रंदन ने मेरा ध्यान पेवामेंट की तरफ खींचा। एक मरियल सी कंजड़ महिला अपनी पंरपरागत मैली पोशाक में अपने वक्षों से लगाकर किसी तरह अपने बच्चे को चुप कराने का प्रयास कर रही थी। उसकी फटी चोली से दिख रहा शरीर उसके कुपोषण की कहानी बयान करने के लिए काफी था, मैं समझ गई की बच्चा क्यों रो रहा है। जब मां के अंदर कुछ नहीं होगा तो कैसे अपने बच्चे को स्तनपान करा पाएगी। वह महिला एक हाथ से बच्चे को थामें इधर-उधर कुछ ढूंढने का प्रयास कर रही थी, उसे पास में ही पड़ी एक सूखी रोटी दिख गई और वह तुंरत उस ओर चल दी। शायद आपको ये कल्पना लगे, लेकिन उस वक्त आए हवा के झोकें से वह रोटी उड़कर दूर जाने लगी तो वह महिला भी उस तरफ भागी, लेकिन हाय रे भाग्य दूसरी तरफ से एक कुत्ता भी उस रोटी पर नजर गड़ाए बैठा था और पलक झपकते ही वह रोटी ले भागा। ठगी सी नजरों से वह औरत रोते-बिलखते अपने बच्चे के साथ दूर तक उस कुत्ते को देखती रही.. जैसे कह रही हो इंसानों की इस दुनिया में जब मेरी नस्ल वालों ने ही मुझे नहीं पूछा तो तुम तो जानवर हो तुम से क्या गिला। ग्रीन सिग्नल हुआ और बस आगे बढ़ गई...इस वाकये ने मेरे अंदर कुछ ऐसा जोश पैदा किया कि मैंने गुड़गांव में उसी सीमित सेलरी जीने का मन बना लिया और इसके बाद मैं घर -परिवार से लेकर सभी को इस वाकये को सुनाकर खाना ना बरबाद करने का लेक्चर देने लगी। बार-बार कहती कि हम  लापरवाही से अन्न बरबाद करते है और दुनिया में लाखों लोगों के पेट पर लात मारते है। इस वाकये ने अनजाने में ही मुझे जीवन की एक बड़ी सीख दे दी। खैर बात आई गई हो गई, लेकिन कुछ समय से मंहगाई को लेकर जो बवाल मच रहा है। उस स्थिति को देखकर एकबार फिर से ये वाकया मेरे मानस पटल पर वापस उथल-पुथल मचाने लगा। हमारे देश की आधी आबादी तब भी भूखे मरती थी, जब मंहगाई नहीं थी और आज भी भूखी मर रही है, जब मंहगाई है इतने समय बाद भी विकास की अंधी दौड़ में सबसे तीव्र विकास के पथ पर अग्रसर विकासशील देश का तमगा लेकर खुश हो रहे हमारे देश की स्थिति में क्या वास्तव में सुधार आ पाया है। आजादी के पहले अंग्रेजी हुकूमत की वजह से आम इंसान खाने को तरसता था और आजादी के 60 सालों बाद भी वहीं स्थिति है। उस पर एक- दूसरे को नीचा दिखाने में लगी राजनीतिक पार्टियां स्थिति को सुधारने की बजाय और बदरंग करती है। मंहगाई को लेकर 5 जुलाई 2010 को विभिन्न राजनीतिक पार्टियों का देश व्यापी बंद लगभग 20 हजार करोड़ का आथिर्क नुकसान करा गया। इस बंद की जगह ये पार्टियां मंहगाई को काबू में करने के लिए कोई सार्थक पहल करती तो कुछ बात बन सकती थी, मसलन अपनी अकूत संपत्ति में से कुछ भाग ये राजनेता देश की आर्थिक स्थिति को संभालने के लिए दे सकते या फिर जब-तक स्थिति सामान्य नहीं हो जाती, तब-तक अपने विभागीय खर्चों में कटौती कर पाते, नहीं लेकिन ऐसा नहीं है यहां तो अपने देश केंद्रीय कृषि मंत्री जैसे नेता है,जिन्हें आईसीसी अध्यक्ष पद मिल जाए तो उन्हें देश में मिली अन्य जिम्मेदारियां भारी लगने लगती है। लाखों टन अनाज सड़े, लोग भूखे मरे उन्हें इससे क्या लेना-देना,उनका पेट तो भर ही रहा है। दूसरी तरफ देश नाक बचाने के कॉमनवेल्थ गेम्स के नाम पर करोड़ो रूपए स्वाहा किए जा रहे है..अरे कोई इन्हें समझाए.. जो वर्तमान में हमारे देश की स्थिति है, जिसमे नक्सलवाद, आतंकवाद, मंहगाई का तांडव मचा है, क्या ये जगजाहिर नहीं है, इससे क्या देश की नाक नीचे नहीं हो रही है।