गुरुवार, अक्तूबर 15, 2009

रचनात्मकता नियमों में बंधी है क्या



रचनात्मकता किसी समय और लेखनी के नियम नहीं मानती... वो तो जब -तब खुद ही कागज पर आकर शब्दों की शक्ल ले लेती है. मेरी इन दो पंक्तियों  के साथ भी ऐसा ही कुछ है..मेरे लाख चाहने के बाद भी मैं इन्हें छंद और लय में आगे बढ़ने मैं खुद को असमर्थ पा रही हूँ ...फिर भी आगे बढ़ने की कोशिश की है... 


किस मोड़ पर लाकर छोड़ा है। जीवन एक बिछोड़ा है।
पल-पल ऐसा तोड़ा है, हंसी को जैसे जोड़ा है।
अल्हड स्वपन सलोने मन के आने से भी है अब कतराते ..
आंसू दर्द से होड़ लगाते ..हम फिर भी है सह जाते


बुधवार, सितंबर 23, 2009

हम लांघ गए शायद संतोष की सीमाएं.


गज़ल की ये पंक्तियां मुझे अपने इतने करीब लगी कि मैं आम्रपाली से इसे अपने संग्रह में शामिल करने से खुद को रोक नहीं पाई।



सीनें में धधकती हैं आक्रोष की ज्वालाएं...हम लांघ गए शायद  संतोष की सीमाएं..पग-पग पर प्रतिष्ठित हैं पथभ्रष्ट दुराचारी....इस नक्शे में हम खुद को किस बिन्दु से दर्शाएं....बांसों का घना जंगल, कुछ काम न आएगा, हां खेल दिखाएंगी कुछ अग्नि शलाकाएं...बीरानी बिछा दी है मौसम के बुढ़ापे ने, कुछ गुल न खिला बैठें यौवन की निराशाएं...तस्वीर दिखानी है भारत की तो दिखला दो, कुछ तैरती पतवारें, कुछ डूबती नौकाएं...

बुधवार, अगस्त 12, 2009

अन्नदाता ही जहां है मोहताज

अन्नदाता ही जहां खुदकुशी करने पर मजबूर हो, ऐसा देश कब तक विकास पथ पर बढ़ेगा। देश का चहुंमुखी विकास हो रहा है रक्षा, अनुसंधान, तकनीकी सभी तरफ से, लेकिन क्या ये विकास सही अर्थों में विकास है.. नहीं कतई नहीं...कृषि प्रधान इस देश की नियति है मानसून प्रधान कृषि और इस व्यवसाय पर देश की आधी आबादी निर्भर करती है यानि गांवों में बसने वाला किसान हमारा अन्नदाता। जब हमारा अन्नदाता ही केवल कुछ रूपयों के लिए खुदकुशी का रास्ता इख्तियार करें तो इस विकास को क्या कहेंगे आप। हाल ही में यूपी के 70 साल के एक किसान ने केवल इसलिए कीटनाशक पीकर आत्महत्या कर ली कि वह अपनी पोती के ब्याह के लिए लिया गया एक लाख रूपए का कर्जा चुकाने में असमर्थ था.. क्योंकि सूखे के कारण उसके फसल से होने वाली आमदनी खत्म हो गई। यूपी ही क्यों कामोबेश देश के सभी राज्यों में किसानों की यहीं स्थिति है..161 जिलें सूखा प्रभावित घोषित कर दिए गए..और आला हुक्मरानों ने राज्यों द्वारा प्रभावित किसानों को दी जाने वाली डीजल सब्सिडी की 50 प्रतिशत भरपाई करने की घोषणा भी कर दी, लेकिन क्या इससे खुदकुशी करने वाले किसानों के परिवारों कोई राहत मिल पाएगी ये कहना मुश्किल है, क्योंकि ये हमारे देश की विडम्बना है कि यहां मर्ज का इलाज तब शुरू किया जाता है जब वह लाईलाज बन जाता है। क्यों भुखमरी से निपटने के लिए तैयार किए गए राष्ट्रीय ग्रामीण गांरटी योजना जैसे कार्यक्रम सफल नहीं होते, क्यों पहले से ही ऐसे इंतजाम नहीं किए जाते कि हर पेट को अन्न और हर हाथ को काम मिले... क्योंकि ना तो सरकारी तंत्र और न ही हमारी कार्यप्रणाली में ये मुद्दे प्राथमिकता के तौर पर लिए जाते है, हमारे यहां तो एक किसान की मौत से ज्यादा तव्वजो दी जाती है, टेस्ट मैच कहां होंगे, आईपीएल कहां खेला जाएगा, किस खिलाड़ी का मेडिकल टेस्ट कब होगा.. कौन किसान कहां मरा, कैसे मरा इससे हमें क्या लेना-देना.. बीसीसीआई जैसी बड़ी संस्थाएं क्या अपने खजाने में से इस आधी आबादी के लिए कुछ करने का माद्दा नहीं रखती। नहीं.. क्यों सूखे के समय किसानों की आर्थिक दशा सुधारने के लिए ऐसे सुरक्षात्मक इंतजाम नहीं किए जाते जो किसी मंत्री की तबियत खराब होने पर, किसी सेलीब्रेटी को हादसे उबारने के लिए किए जाते है.. अन्न को मोहताज जब अन्नदाता ही होगा, तो फिर ऐसे विकास और प्रगति पर हमें फक्र नहीं बल्कि शर्म आनी चाहिए।

कोई पैकरे एहसास से ढाले हमकों

रात में चैनल सर्फिंग करते हुए अचानक मैं एक चैनल पर आकर रूक गई, इस चैनल पर चुनाव सर्वेक्षण की तरह ही महिलाओं की स्थिति पर दर्शकों से प्रश्न पूछे गए थे और उन प्रश्नों का परिणाम चैनल दिखा रहा था... मसलन ऑफिस में महिला बॉस होने पर पुरूष की क्या मनोस्थिति होती है॥ क्या महिलाओं का पहनावा ही छेड़छाड और बलात्कार का कारण होता है॥ फंला... फंला॥ आदि। इन प्रश्नों के जवाब सुनकर भी मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि हमेशा की तरह ही महिलाओं को ही तलवार की नोंक पर रखा गया था, गोया कि नैतिकता और चरित्रता का ठेका तो महिलाओं के कांधों पर ही होता है। आश्चर्य तो इस बात पर हुआ कि २१ वीं सदीं जिसे महाविकास का काल कहा जाता था, वहां भी महिलाओं को लेकर पुरूष मानसिकता में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। क्यों प्रकृति की देन हमारी शारीरिक संरचना ही हमेशा निशाने पर होती है, क्यों कोई पुरूषों की शारीरिक संचरना पर टिप्पणी नहीं करता।क्यों उनके हर पहनावे को जायज ठहराया जाता है। क्यों पुरूषों को अपनी शारीरिक संरचना को लेकर अभद्र बातें सुनने को नहीं मिलती, क्यों उन्हें लेकर सवाल-जवाबों की वो लंबी फेहरिस्त नहीं होती जिसका अक्सर महिलाओं को सामना करना पड़ता है। क्यों कि नारी को केवल उसकी शारीरिक बनावट को अलग रखकर केवल इंसान के तौर नहीं लिया जाता। कहीं भी तरक्की करने वाली महिला का सीधा संबंध उसकी मेहनत से ना जोड़कर नाहक ही शारीरिक रिश्तों से जोड़ दिया जाता है। मुझे भी अपने कार्यक्षेत्र में ये सुनने को कई बार मिला लड़की है ना इसलिए न्यूज आसानी से मिल जाती है, क्यों किसी ने ये नहीं देखा कि जला देने वाली धूप में भी यहीं लड़की रोज अपनी बीट पर जाकर मेहनत करती है, फोन पर खबरों का इंतजाम नहीं करती। काम करने के बाद भी ये सुनने को मिलना की तुम लड़की हो अगर मैंने तुम्हारी तरक्की के लिए कहा तो लोग गलत अर्थ में लेंगे॥रह भर कर कहीं मेहनत का थोड़ा बहुत क्रेडिट मिला भी तो उसकी खुशी होने के जगह दुख ही हुआ, क्योंकि फिर वहीं शरीर आड़े आ गया॥ " यार तुमको अगर अपनी तरक्की पानी है तो एक काम करना होगा जो कि तुम्हारे बस का नहीं है" ये जुमला मेरा एक पुरूष सहयोगी अपने पुरूष साथी से कह रहा था॥ क्या कहूं कि उसके ये शब्द मेरे कानों में पिघले शीशे से भी बुरा असर कर रहे थे॥ ये तो एक बार ही है, लेकिन ऑफिस में बैठकर अनगिनत बार मुझे अपने काम के लिए नहीं बल्कि इन जुमलों से बाहर आने के लिए मानसिक व्यायाम करना पड़ा। महिलाओं के काम को क्यों उनकी मेहनत के आधार पर नहीं तोला जाता, क्यों हर निगाह उनके काम को उनके शरीर के आधार पर नापती है... और मैं कहती हूं कि यदि महिला के कार्यस्थल पर किसी पुरुष सहयोगी के साथ संबंध है भी तो उसको उसके काम और तरक्की से जोड़ना किस हद तक सही है। प्रकृति ने ही पुरूष और नारी का संबंध ऐसा बनाया है कि उनका एक-दूसरे की तरफ झुकाव होना स्वाभाविक है, फिर क्यों नारी इन सब वजहों के लिए दोषी ठहराई जाती है। एक दो मामलों को छोड़ दे तो शायद ही पुरूषों को अपने कार्यस्थल पर अपनी तरक्की होने पर इस तरह के जुमलों का सामना करना पड़ता हो। बेनजीर भुट्टो हो इंदिरा गांधी हो या किरन बेदी या फिर मदर टेरेसा कहीं ना कहीं उन्हें भी ये दंश भरे जुमले सुनने को जरूर मिले होंगे चाहे पल भर के लिए ही सही॥ प्रकृति के दी इस शारीरिक बनावट में महिलाओं का क्या दोष है ये मुझे आज तक समझ नहीं आया। नारी यदि प्रतिकार करें तभी भी वह दोषी है और प्रतिकार ना करे तब भी गाज उस पर ही गिरती है॥ कब वो सहर आएगी जब हम केवल इंसान होगी, महिला, लड़की या नारी नहीं।

रविवार, मई 24, 2009

कि अब ज़िन्दगी फिसल गई

बहुत चाह के भी आज मेरे मन में उमड़ रहे भाव शब्दों की शक्ल लेने से इंकार कर रहे है, लेकिन मेरे अंदर का कवि मन मुझे कह रहा है रचनात्मकता से नाता तोड़ के तू जी नहीं पाएगी। इसलिए जो भी जैसा भी बन पड़े लिखने की कोशिश तो कर ॥ बस फिर यहीं मेरी...



क्या कहें की शब्द कुछ थम से गए है अब॥
आस ही नहीं रही कि अब ज़िन्दगी फिसल गई.
पात-पात सा झर गया जीवन से मधुमास..
स्वप्न ही नहीं, नींद भी हुई उदास॥
हम हैं क्या, क्यों है हम, अहसास भी ये है कम॥
मोड़ पर खड़े रहे हम और राह बढ़ गई...
आंधियों के गुबार में ज़िन्दगी निकल गई॥
शाम हो ..सहर हो..कि अब नहीं रहा असर॥
ज़िन्दागानी के इस सफर में मंजिलें है खो गई॥
सिलसिला ये यूं चला की हाय उम्र ढल गई...
जब तलक उठे हम की रूह भी निकल गई॥
मीत अश्क बन गए और हम जर्द हो गए।

गुरुवार, अप्रैल 16, 2009

एहसास जो कृति में ढल गए

ये कुछ पंक्तियां नीरज जी के ब्लॉग से मैंने अपने संग्रह में शामिल की है॥
इन्हें पढ़कर ऐसा लगता है कि कई अहसास ऐसे होते है जो इतने गहरे होते है कि कागज पर आते ही बेहतरीन कृति बन जाते है॥

"गुलशन की बहारों मैं, रंगीन नज़ारों मे , जब तुम मुझे ढूंढोगे, आँखों मे  नमी मे होगी,
महसूस तुम्हें हर दम, फिर मेरी कमी होगी...
 आकाश पे जब तारे, संगीत सुनायेंगे
 बीते हुए लम्हों को, आँखों मैं सजाओगे, तन्हाई के शोलों मे, जब आग लगी होगी
 महसूस तुम्हे हर दम फिर मेरी कमी होगी...
सावन की घटाओं का जब शोर सुनोगे तुम, बिखरे हुए माज़ी के राग चुनोगे तुम
माहौल  के चेहरे पर जब धूल जमी होगी
महसूस तुम्हे हर दम फिर मेरी कमी होगी
जब नाम मेरा लोगे तुम कांप रहे होगे आंसू  भरे दामन से मुँह ढांप रहे होगे रंगीन घटाओं की जब शाम घनी होगी महसूस तुम्हें हर दम फिर मेरी कमी होगी.............. "

सोमवार, मार्च 30, 2009

बात निकली है तो दूर तलक जाएगी..

दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हमारा देश और उससे भी बढ़कर उसके नागरिकों को प्राप्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार और इसके साथ ही कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका पर नजर रखने के लिए बना चौथा स्तम्भ यानि मीडिया॥ अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम , लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पुरजोर बना यह चौथा स्तम्भ ही इस अधिकार पर पक्षपातपूर्ण रवैया अपना रहा है॥ यहां ये साफ कर देना जरूरी है कि यह केवल मेरा अनुभव और व्यक्तिगत राय है॥ हो सकता है कई लोग मेरी इस बात से इत्तेफाक न रखते हो, लेकिन वहीं है ना अभिव्यक्ति है, इसलिए इस अधिकार का प्रयोग करना एक जागरूक नागरिक होने के नाते मैं जरूरी समझती हूं॥ बात अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और उसके पक्षधर मीडिया पर आती है तो आज मीडिया में स्थापित और सालों से लेख लिखने वाले कुछ पुरस्कारों से नवाजे गए भद्रजनों को ही पत्रकार कहा जाता है और उन्हीं की बात पत्थर की लकीर की तरह अक्षरश: सही मानी जाती है... उन्हीं की अभिव्यक्ति को सही और जायज ठहराया जाता है॥ कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो ये सिल्वर स्पून मुंह में लिए पैदा होते है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नायक बन जाते है, लेकिन जिनके मुंह में बचपन से ही सुख -सुविधाओं की आदत हो। सभी सहज और सुलभ हो तो क्या वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ सही मायनों में समझ पाते है॥ यहां मैं यह पूछना चाहती हूं कि क्या एक अच्छे स्तर पर पहुंच गए इंसान की अभिव्यक्ति ही हमेशा सही होती है॥ क्या भगवान ने उन्हें इस चीज का ठेका दे दिया है॥ क्या निचले स्तर पर काम कर रहा इंसान हमेशा गलत ही सोचता है और अर्नगल ही लिखता है॥उसके शब्द तुच्छ और बेकार ही होते है॥ उसकी आपबीती बकवास ही होती है, क्योंकि वह किसी सम्मानित पत्रिका या अखबार का इंटरव्यू और लेख नहीं बन सकती॥क्योंकि उसका कोई स्तर नहीं होता॥ केवल इसलिए उसकी अभिव्यक्ति बेकार और रद्दी की टोकरी में डालने लायक ही होती है, लेकिन यह भी सच है कि हर किसी इंसान की रचनात्मक शक्ति अलग होती है और अभिव्यक्ति भी ॥ जरूरी नहीं कि सम्मानित जनों की अभिव्यक्ति ही समाज को सही दिशा देने का काम कर सकती है॥कभी -कभी आधारहीन जीवन जी रहे इंसान की अभिव्यक्ति भी रोशनी का दिया दिखा सकती है... मीडिया में उच्च पदस्थ व्यक्तियों को बस अपना अंह त्याग कर यह समझने की जरूरत है और फिर मीडिया में एक नया दौर शुरू होने से कोई नहीं रोक सकता॥ संघर्ष कर रहा हर इंसान केवल अपने फायदे और स्वार्थ के लिए नाहक और बेकार की बातें नहीं करता॥ वो तो चाहता कि संघर्ष तो हो, लेकिन योग्यता और योग्यता के बीच और विचारों और धारणाओं के मध्य, ना कि चाटुकारिता और अपना हाथ ऊपर रखने की परिपाटी को आगे बढ़ाने के लिए संघर्ष करना पड़े॥ बस इतना ही कहूंगी मीडिया में आने वाले प्रत्येक इंसान को यह गुनगुनाना चाहिए। " मैं पल दो पल का शायर हूं, पल दो पल मेरी कहानी है॥पल दो पल मेरी हस्ती है पल दो पल मेरी जवानी है...मुझसे पहले कितने शायर आए और आकर चले गए, मुझसे बेहतर कहने वाले, तुमसे बेहतर सुनने वाले॥ मैं भी एक पल का किस्सा हूं वो भी एक पल का किस्सा थे.. कल तुम से जुदा हो जाऊंगा"

बुधवार, मार्च 25, 2009

हिन्दुस्तान की परिपाटी रही है महिला पत्रकारों को अनदेखा करना

इन दिनों मीडिया जगत में हिन्दुस्तान खबरों की वजह से नहीं बल्कि दैनिक हिंदुस्तान, दिल्ली के वरिष्ठ स्थानीय संपादक प्रमोद जोशी द्वारा वरिष्ठ पत्रकार शैलबाला से दुर्व्यवहार किए जाने और एचटी मीडिया और प्रमोद जोशी के संयुक्त रूप से उनके और अन्य पत्रकारों पर मानहानि को लेकर चर्चा में बना हुआ है। यह तो शैलबाला जी थी जो उन्होंने आगे आकर अपने पर हुए अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत की, लेकिन यहां मैं एक बात और बता देना चाहती हूं कि हिन्दुस्तान के एनसीआर के कार्यालयों में महिला पत्रकारों के साथ अभद्र व्यवहार होना आम बात है॥ फिर चाहे वह गाजियाबाद हो फरीदाबाद हो या॥ मजे की बात है की कई महिला पत्रकार संगठनों में महिलाओं की अगुवाई करने वाली दैनिक हिन्दुस्तान की संपादक मृणाल पांडे के नक्शे कदम पर ये हो रहा है॥ सम्मानित पत्रकारों में गिनी- जाने वाली संपादिका महोदय को संस्थान में क्षेत्रवाद से फुर्सत मिले तो तब कहीं जाकर वह इन मुद्दों पर ध्यान दे पाए। कभी मेरे लिए आर्दश रही मृणाल पांडे आज मुझे एक दंभी और बनावटी औरत से ज्यादा कुछ नहीं लगती, यहां मेरा यह बताना आवश्यक है कि
उनसे मेरा कोई व्यक्तिगत द्वेष नहीं है, लेकिन यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि उनके साथ काम करने वाली प्रत्येक महिला ने ऐसा ही अनुभव किया होगा, भले ही वह इसे सबके सामने प्रदर्शित करने से घबराती हों, लेकिन मेरी अंतरआत्मा मुझे ऐसा करने से नहीं रोकती, वह कहती है तुम कह डालो॥ नारी सरोकारो को दंभी और पांखड़ी लोगों के हाथों का खिलौना मत बनने दो... लगभग एक साल पहले ही बात है फरीदाबाद ब्यूरों में काम करते वक्त मेरे तत्कालीन ब्यूरो चीफ ने मुझे कई तरह से परेशान करना शुरू किया.. पहले तो मैं सहती रही॥ जब नहीं सहा गया तो मैं प्रतिरोध पर उतर आई, लेकिन मेरे ब्यूरो चीफ मुझसे कहते रहे कि मैं सही हूं और तुम नाहक ही मेरी कार्य प्रणाली में नुस्खे निकाल रही हो... जब उनका व्यवहार नहीं बदला तो मैंने सबसे पहले एनसीआर प्रभारी को इस बात की जानकारी दी, लेकिन वहां से भी मुझे कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला, इसके बाद मैंने वरिष्ठ स्थानीय संपादक प्रमोद जोशी को अपनी समस्या बताई, लेकिन कहते है ना कि चोर-चोर मौसेरे भाई... इतना ही नहीं मैंने उन्हें ये भी कहा कि आपकी भी बेटी है, कृप्या इस मामले को इस दृष्टि से देखने का प्रयास करें, लेकिन पत्रकारिता में इतने चिकने घड़े है कि गिनते -गिनते थक जाएंगे, लेकिन खत्म नहीं होंगे... मेरे मामले में ना कुछ होना था और ना हुआ, अंततः मैंने त्यागपत्र दे डाला, लेकिन मन में एक इच्छा थी की क्या मीडिया में काम करने वाली महिलाओं को ये सब सहना पड़ता है॥ इस ऊहापोह में जूझ ही रही थी कि मेरे एक सहयोगी ने मुझे मृणाल पांडे से मिलने की सलाह दी... बचपन से दूरदर्शन पर न्यूज एंकर के रूप में देखकर और शिवानी जी की पुत्री के रूप में उनकी बड़ी ही श्रद्धेय सी छवि मेरे मन में थी, बहरहाल उनसे मिलने उनके ईस्ट ऑफ कैलाश स्थित निवास पर पहंच गई। इस आस के साथ की वह मुझे सुनेगी और कम से कम अन्य महिला पत्रकारों को सहूलियत हो जाएगी, लेकिन उनसे मिलना किसी बुरे सपने से कम नहीं था, पर्दे पर और बाहरी दुनिया में जहीन और विनम्र दिखने वाली मृणाल पांडे दनदनाती हुई अपने आलीशान घर की सीढ़ीयों से जींस और टॉप पहने उतर रही थी॥ अंतिम सीढ़ी पर उनके पहंचते ही मैं उनके सामने अपनी बात रखने जा पहंची, लेकिन मेरी बात सुनना तो दूर उन्होंने मेरी तरफ देखना भी गंवारा नहीं किया॥लेकिन मैं भी अपनी बात कहने के लिए कृतसंकल्प होकर आई थी, इसलिए साथ ही उनके बड़ी सी आलीशान गाड़ी की तरफ मैं भी चल पड़ी... परेशानी है तो नौकरी छोड़ दो॥ मैडम मैंने नौकरी छोड़ दी है॥ प्रमोद जोशी से जाकर ऑफिस में मिलों, मुझे इससे कोई मतलब नहीं है। धड़ाक से कार का दरवाजा बंद होता और मेरे नजरों के सामने मेरे बचपन की आर्दश रही मृणाल पांडे तानाशाह की तरह गुजर जाती है...उनके इस दंभी व्यवहार ने मुझे एक बात सीखा दी कि जब -तक किसी से मिल ना लो उसे आर्दश मत बनाओ॥यह तो रही मेरी बात लेकिन हिन्दुस्तान के ही सहयोगियों ने मुझे बताया कि दिल्ली में कार्यरत महिला पत्रकार नरगिस हुसैन ने उनसे अपनी गर्भावस्था के दौरान छुट्टी मांगी तो उन्होंने उसके मुंह पर इतनी जोर से अखबार पटक कर मारा, हालांकि यह मेरी आंखों देखी घटना नहीं है, लेकिन एनसीआर प्रभारी रही इरा झा के साथ भी उन्होंने कुछ ऐसा ही व्यवहार किया और प्रमोद जोशी को शह देती रहे। मैं इस बात के विश्वास से नहीं कह सकती, लेकिन इतना सुना है कि प्रमोद जोशी उनके दूर के भाई लगते है॥ ऐसे भाई -भतीजावाद निभाने वाले लोगों को पत्रकार नहीं कहा जा सकता वो भी वरिष्ठ पत्रकार की पदवी॥न तो मृणाल पांडे को महिला संगठनों की अगुवाई करने का हक है और ना किसी समसामयिक विषय और राजनीति पर लेख लिखने का॥ वह तो हिन्दुस्तान में एक महिला डॉन की तरह पदासीन है और उनके गुर्गे ॥ इससे मुझे याद आया कि गाजियाबाद में भी एक महिला पत्रकार के साथ भी ऐसा अभद्र व्यवहार हुआ॥ जब उन्होंने इसकी शिकायत मृणाल जी के पंसदीदा दांए हाथ से की तो उसे मदद मिलने की बजाए॥संस्थान से बाहर निकाल देने की धमकी दी गई...चलो मृणाल जी को छोड़ भी दे तो महिला सांसद और हिन्दुस्तान की मालकिन शोभना भरतिया की समझ पर क्या पत्थर पड़ गए है जो वह इन मामलों में निष्पक्ष नहीं हो पा रही है... हिन्दुस्तान के लिए तो केवल यही कहा जा सकता है कि "अंजामें गुलिस्ता क्या होगा॥ जब हर शाख पर उल्लू बैठा है"

गुरुवार, मार्च 12, 2009

कई साल लग गए खुद को ही जानने में

अमृता प्रीतम की तरफ मेरा झुकाव बचपन से ही रहा है शायद तब से ही जब से उनके लिखे उपन्यासों और कहानियों पर आधारित सीरियल दूरदर्शन पर आया करते थे...तब केवल बस अपनी बुआ से सुनकर मुझे पता रहता था कि वह काफी बड़ी लेखिका है... लेकिन कुछ भी था मात्र १२-१३ साल की उम्र में भी उनका सृजन मुझे अपने जीवन के काफी करीब लगा... और शायद मेरी बुआजी भी इसलिए ही उन्हें पसंद करती थी... धीरे-धीरे पढ़ाई और युवावस्था के भंवर में मेरा ये लगाव कुछ कम हो गया, लेकिन एक बार फिर अमृता प्रीतम ने मेरे मन पर दोबारा से दस्तक दी , शायद सात साल पहले पत्रकारिता का कोर्स करते वक्त दोबारा से मेरी फरीदाबाद वाली बुआ के घर मुझे रसीदी टिकट पढ़ने को मिल गई। एक ही रात में इस किताब को मैं पढ़ गई और इस पर लिखा गीत... घूंट चांदनी पी है हमने... मेरे मन में अंदर तक उतर गया॥ अपनी निजी डायरी में मैंने यह पंक्तियां बड़े ही सुंदर अक्षरों में लिख डाली, लेकिन तब-तक भी इन पंक्तियों का भाव मुझ पूरे अर्थ में समझ नहीं आया या मैंने कोशिश ही नहीं की....लेकिन ठीक सात साल बाद यहीं पंक्तियां पढ़कर लगता है, कि यहीं तो थी मैं... जाने कब से खुद को ढूंढ रही थी॥ बात कुफ्र की है मैंने घूंट चांदनी पी है मैंने...
घूंट चांदनी की पी है हमने...
"पता नहीं, कौन कौन कहां कहां कब कब अपने प्रेम की चादर कम्बल या ओवर कोट पहना कर चला जाता है। कई बार जानते हैं, कई बार नहीं भी। कई बार जानकर भी नहीं जानते और कई बार नहीं जानकर भी जानते हैं...."

अम्बर की एक पाक सुराही ,बादल का एक जाम उठा कर घूंट चांदनी की पी है हमने .बात कुफ्र की की है हमने ...कैसे इसका क़र्ज़ चुकाएं .मांग के मौत के हाथों यह जो ज़िन्दगी ली है हमने .बात कुफ्र की की है हमने अपना इस में कुछ भी नहीं है ,रोजे -अजल से उसकी अमानत उसको वही तो दी है हमने ,बात कुफ्र की की है हमने ....

यहीं है प्यार

चित्रकार इमरोज की इन पंक्तियों को पढ़कर कई साल पहले प्रेम पर लिखी गई अपनी ही कुछ पंक्तियां अब मुझे बेमानी लगने लगी है... उन पंक्तियों को इस वक्त में यहां नहीं दे पा रही हूं...लेकिन समय मिला तो उन्हें यहां देने से गुरेज भी नहीं करूंगी। आखिर प्रेम की परिभाषा और उसे अपने विचारों और कविताओं में व्यक्त करने का समय मुझे मिल ही गया।


प्यार क्या है, कहां है..कैसे और कब होता है.. मैं नहीं जानती, लेकिन मैं सोचती हूं.. समझे जो तुम्हारी भावनाओं को ..दर्द और दुख बांटे तुम्हारा..खुशी का तुम्हें दिलाए अहसास. बने जो सच्चा सहारा तुम्हारा, सम्मान जो दिलाए तुम्हें.. सूरत से नहीं जो शिरत से करें प्यार..मन की सुंदरता और पवित्रता पर जिसे हो ऐतबार..मेरी नजर में यही है प्यार... यहीं है प्यार।
सच है न
"सारे रंग सारे शब्द मिल कर भी प्यार की तस्वीर नहीं बना पाते हाँ ! प्यार की तस्वीर देखी जा सकती है पल पल मोहब्बत जी रही ज़िन्दगी के आईने में ........"

मंगलवार, मार्च 10, 2009

आज फिर कुछ याद आया

अमृता प्रीतम पर आधारित ब्लॉग पर पढ़ी इन पंक्तियों ने मुझे आज कुछ ऐसा याद दिला दिया कि बस क्या कंहू॥ अतीत के सुनहरे पन्ने कहूं या सुनहली यादें या फिर पतझड़ के आगमन की शुरूआत ॥ किसी ने कहा था कि "तुम अपनी ज़िंदगी को अमृता प्रीतम की तरह जीना" क्या सोच के उस शख्स ने ये कहा था पता नहीं, लेकिन उस दिन मुझे उसकी ये बात चुभ सी गई थी, लेकिन आज महसूस करती हूं कि शायद ठीक ही कहा था॥ सच है कि अमृता प्रीतम जैसा इंसान सदियों में एक बार आता है, लेकिन इन सदियों में उनकी तरह भावों, अहसासों और सोच रखने वाले इंसान तो हो सकते है ना....

तेरी आँखों की मादकता याद आई बागों के पत्ते पर मोती चमकने लगे पर्वत एक नाज और अंदाज से सो रहे थे तेरे बिरहा ने मेरे दिल को बाहों में ले लिया पेडो पर बुलबुल के गीतों की आवाज उग आई फूलों के जाम सुगंधी से भरे हुए शाम की हवा ने सब जाम छलका दिए मेरे दिल में याद का प्याला छलक गया आज पानी के किनारे तेरी याद मैंने बाँहों में ले ली तेरी याद पत्थर सी ठंडी आज पानी के किनारे तेरी याद एक बेल सी नाजुक एक सपना नींद ने बाँहों में भर लिया ॥(आइबेक )

शब्द और आवाज जहां थम जाती है...

कुछ ऐसा होता है जब आप कुछ कहने, सुनने और यहां तक कि शब्दों में अपने को बयां करने लायक नहीं रहते तब कुछ गुनगुनाने को मन करता है .....

हाथ छुटे भी तो रिश्ते नहीं तोड़ा करते वक़्त की शाख से लम्हें नहीं तोड़ा करते ,जिसकी आवाज़ में सिलवट हो निगाहों में शिकन ऐसी तस्वीर के टुकड़े नहीं जोड़ा करते,शहद जीने का मिला करता है थोड़ा थोड़ा जाने वालों के लिए दिल नहीं तोड़ा करते, लगके साहिल से जो बहता है उसे बहने दोऐसी दरिया का कभी रुख नहीं मोड़ा करते

शनिवार, मार्च 07, 2009

गांधी के देश में ही गांधी अजनबी

गांधी के दर्शन पर चलकर आगे बढ़ी कांग्रेस आज उनके मूलभूत सिद्धान्तों को ही भूलती जा रही है। ये विडम्बना ही है कि गांधी की धरोहर के रूप में न्यूयार्क में जेम्स ओटिस के पास रखा उनका चश्मा, घड़ी, चप्पलें, प्लेट और कटोरी को वापस लाने का झूठा श्रेय लेने से भी गुरेज नहीं कर रही है। बापू की इस विरासत की नीलामी रूकवाने में असमर्थ सरकार के पास जब कोई रास्ता नहीं बचा तो वह वाइन किंग विजय माल्या के देशभक्ति के जज्बे को भुनाने में लग गई। हद तो तब हो गई जब पर्यटन और संस्कृति मंत्री अंबिका सोनी ने उनको अपना रिप्रेजेंटेटिव बता डाला। कोई इनसे जाके पूछे कि नीलामी होने तक माल्या का नाम ही सामने नहीं था तो क्या सपने में माल्या सरकार के रिप्रेजेंटेटिव बना दिए गए थे। शराब के पैसे ही सही,लेकिन माल्या ने एक हिन्दुस्तानी होने के नाते जो काम किया वह काबिले तारीफ है। यहां नीलामी में माल्या द्वारा चुकाए गए नौ करोड़ ३० लाख रूपए नहीं बल्कि उनकी अपने देश के प्रति जिम्मेदारी की भावना मोल रखती है। संसद में एक दूसरे पर कीचड़ उछालने वाले राजनेता जो देश की संपत्ति का नाहक ही नुकसान करते है, उनसे अच्छे तो विदेशों में बसे वह भारतीय उद्योगपति है जो कम से कम बाहर रहकर भी देश के बारे में सोचते है। भारतीय अमेरिकी समुदाय के नेता संत सिंह चटवाल का यह बयान कि यह पहले ही तय कर लिया गया था कि "बापू का सामान किसी विदेशी के हाथ नहीं जाने दिया जाएगा" यह जज्बा एक सच्चे देशवासी का परिचय कराता है। वहीं दूसरी तरफ बापू के सामान के वापस आने पर वाहवाही लूटने के लिए तैयार सरकार तो यह तक नहीं जानती थी कि बापू के सामान की नीलामी होने जा रही है। २७ फरवरी को राज्यसभा में सपा के सांसद महेंन्द्र मोहन ने सामने वाली पार्टी को नीचा दिखाने की गरज से ही सही बापू की अमानत को भारत लाए जाने का मुद्दा जोर-शोर से उठाया, तब कहीं जाकर सरकार जागी, नहीं तो सरकार क्या अन्य राजनीतिक दलों को लोकसभा चुनावों में जीत की तिकड़म भिड़ाने को लेकर फुर्सत ही नहीं थी। चुनाव के लिए करोड़ों का बजट रखने वाले रोजाना लाखों रुपए के विज्ञापन अखबारों और चैनलों में देने वाले देश के इन सूत्रधारों के पास बापू की अमानत को बचाने के लिए एक फूटी कोड़ी नहीं थी॥ वह तो व्यस्त थे लोकसभा चुनावों के दौरान पड़ रहे आईपीएल के मैचों की मेजबानी दूसरे देशों के पास ना जाने देने के लिए॥और करोड़ों रुपए में खेलने के लिए... राष्ट्र की भलाई के नाम पर जनमानस को ठग कर अपने हितों के लिए करोंड़ों रुपए बनाने वाली किसी भी पार्टी में क्या इतना दम नहीं था कि गांधी के पड़पोते तुषार गांधी के धरोहर वापस लाने के लिए बनाए गए कोष में पर्याप्त धन एकत्र कर पाते। पार्टी के नाम पर करोड़ों रूपए पर खेलने वाले इन राजनीतिज्ञों को गांधी के कोष में नीलामी तक केवल साढ़े तीन लाख रुपए ही एकत्र होने की बात को लेकर लज्जित होना चाहिए... लेकिन फिर भी ये सीना ठोक कर कहते है हम गांधीवादी है, कोई इनसे पूछे की गांधी को मौत की नींद सुलाने वाले तो तुम हो, नाथूराम गोडसे नहीं, क्योंकि किसी इंसान की मौत शरीर के खत्म होने से नहीं बल्कि उसके विचारों के खत्म होने से होती है। सत्य, अहिंसा और राष्ट्रप्रेम के लिए सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाले गांधी के ये समर्थक गांधीवादी तो है, लेकिन गांधी के विचारों पर चलने से इन्हे परहेज है और इसलिए अपने ही देश में गांधी अजनबी है...

सोमवार, मार्च 02, 2009

कहने से कब कोई अपना होता है...

लाख मनाओ, लाख बुलाओ, कहने से कब कोई अपना होता है॥
मन का ये कोई भ्रम है, लेकिन कब क्योंकर कम होता है...
दम साधे जब रिश्ते बुनते, उनको ही रोते-हंसते है,
फिर भी कैसा खेल है जाने रिश्ते ही सुई से चुभते॥
हम मर-मर के जी जाते है, आंसू भी पी जाते है...
स्वप्न सलोना अपनेपन का पल-पल टूट सा जाता है।
नींद से जागा बचपन जैसे, हंसते-हंसते रो पड़ता है।
कोई कहानी कोई लोरी तब फिर है काम ना आती॥
अपनेपन के खालीपन की एक कसक है रह भर जाती।
सूनेपन की ये अंधियारी रात ना जाने कब जाएगी
अपनेपन की सहर जाने फिर कब आएगी।

शुक्रवार, फ़रवरी 20, 2009

आज फिर शब्द मचल उठे है कागज पर आने को

कैसा है ये जीवन पाया, दुख को पल-पल गले लगाया।
फिर भी रह-रह रोना आया, जीवन क्या है समझ ना आया।
ढूंढा हरदम प्रेम का साया, पर साया भी हमसे घबराया।
बढ़-बढ़ जिसको को गले लगाया उसने ही दामन छुड़वाया।
सच का आंचल थामे रखा, झूठ ने फिर भी मन भरमाया।
मन का निश्छल हास ना भाया, दर्द का रिश्ता काम ना आया।
पीर का दंभ जब सामने आया, खुशी ने अपना सिर है झुकाया।
मृगतृष्णा सी तृष्णा पाई, फिर भी प्यास है बुझ ना पाई।

नारी कब तक रहेगी उपेक्षित

पचमढ़ी में ७० फीट की ऊंचाई से फेंकी गई बच्ची गुड़िया ने एक बार फिर मुझे नारी के अस्तिव पर सोचने के लिए मजबूर कर दिया है।" नारी यत्रत पूजते, रमते तत्र देवता " की संस्कृति पर विश्वास करने वाले इस देश में पल-पल नारी अस्मिता से होता खिलवाड़, निहित स्वार्थो के लिए सामाजिक संस्कार और रीति रिवाजों के नाम पर क्षण भर में उसके स्वप्नों को तोड़ता ये सामाजिक परिवेश, क्या इसकी ही परिणीति नहीं है, गुड़िया का उसकी अपनी मां द्वारा ही परित्याग करने की यह घटना, इससे भी दुखद पहलू है कि एक शिक्षित नारी जब ऐसा कदम उठाने में गुरेज नहीं करती तो, गांव-देहातों की अशिक्षित महिलाएं यदि बेटी होने पर हो हल्ला मचाए तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। इस शिक्षिका मां का ये कृत्य तो सामने आ गया, लेकिन क्या हम जैसी कितनी ही शिक्षित महिलाएं कभी-कभार सोच में ही सही ऐसे कृत्यों को अंजाम नहीं दे चुकी होती है। कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो क्या नारी अपने ही एक अंश के रूप में नारी को जन्म देना किसी दुस्वप्न से कम नहीं मानती, ऐसा नहीं है कि केवल बेटी की शादी और दहेज के पक्ष को देखते हुए महिलाएं ऐसा सोचने पर मजबूर होती है, इसकी प्रमुख वजह है समाज द्वारा नारी को दिया गया परिवेश। हम ऐसे सामाजिक परिवेश में बेटियों के सदियों तक उपेक्षित होने की बात सोच सकते है, जिस परिवेश में पुरूष वर्ग अपमानित करने के लिए भी नारी अस्मत को ही हथियार बनाता है, समाज के ठेकेदार कहलाने वाले लोग बात-बात पर मां- बहन को गालियां और अपशब्द कहकर अपने अहम को तुष्ट करते है, क्यों बात-बात पर लोग बाप-भाई की गाली क्यों नहीं देते। इसके अलावा संचार क्रांति और विकास के इस युग में नारी को अपमानित करने के एमएमएस जैसे हथियार भी नारी की अस्मिता को बेधने के लिए ईजाद कर डाले है। क्या प्रकृति से मिला शारीरिक संरचना का यह उपहार हमें अभिशप्त होने के लिए मजबूर नहीं करता, इसमे हमारा क्या दोष है कि ईश्वर ने हमारी रचना ही जन्मदात्री के रूप में की है। अपने ही घर की चारदीवारी में छोटी-छोटी बच्चियों से होता ब्लात्कार, गली मोहल्ले, कार्यालयों, बसों, ट्रेनों में होते अश्लील इशारे, क्या कोई भी नारी अपने ही नारी अंश को दुनिया में लाकर इस हकीकत से रूबरू कराना चाहेगी ? यह सवाल दुनिया के सृजन के साथ शुरू हुआ है और दुनिया के खत्म होने तक भी इस सवाल का किसी के पास कोई उत्तर नहीं होगा। इस गीत की ये लाइन दोहराते हुए मुझे ना तो शर्म महसूस हो रही है और न ही कोई गिला...
" अगले जन्म मुझे बेटी ना कीजो

शुक्रवार, जनवरी 09, 2009

कारवां गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे ।

महान कवि गोपालदास नीरज की यह काव्य रचना जीवन के कुछ "अनछुए " पहलुओं के इतने करीब लगी कि इस रचना को अपने संग्रह में शामिल करने से खुद को रोक नहीं पाई।

स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से

लुट गए श्रृंगार सभी बाग़ के, बबूल से

और हम खड़े खड़े बहार देखते रहे

कारवां गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे ।

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई

पांव जब तलक उठे कि ज़िंदगी निकल गई

पात-पात झर गए कि शाख़-शाख़ जल गई

चाह तो निकल सकी ना पर उमर निकल गई

गीत अश्रु बन गए, शब्द हो हवन गए

रात के सभी दिए धुआं-धुआं पहन गए

और हम झुके-झुके, मोड़ पर रुके-रुके

उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे

कारवां गुज़र गया...

क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा

क्या स्वरूप था कि देख आइना सिहर उठा

इस तरफ़ ज़मीन और आसमां उधर उठा

थामकर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा

एक दिन मगर छली वो हवा यहां चली

लुट गई कली-कली कि घुट गई कली-कली

और हम दबी नज़र, देह की दुकान पर

सांस की शराब का ख़ुमार देखते रहे

कारवां गुज़र गया...

आंख थी मिली कि अश्रु-अश्रु बीन लूं

होठ थे खुले कि चूम हर नज़र हसीन लूं

दर्द था दिया गया कि प्यार से यक़ीन लूं

और गीत यूं की रात से चराग़ छीन लूं

हो सका न कुछ मगर, शाम बन गई सहर

वह उठी लहर की ढह गए किले बिखर-बिखर

और हम लुटे-लुटे, वक्त से पिटे-पिटे

दाम गांठ के गवां, बाज़ार देखते रहे

कारवां गुज़र गया...

मांग भर चली थी एक जब नई-नई किरण

ढोलकें धुनक उठीं, ठुमक उठे चरण-चरण

शोर मच गया कि लो चली दुल्हन-चली दुल्हन

गांव सब उमड़ पड़ा, बह उठे नयन-नयन

पर तभी ज़हर भी, गाज़ एक वह गिरी

पुंछ गया सिंदूर, तार-तार हुई चूनरी

और हम अजान से, दूर के मकान से

पालकी लिए हुए कहार देखते रहे

कारवां गुज़र गया...

एक रोज़ एक गेह, चांद जब नया जगा

नौबतें बजीं, हुई छठी, डठौन रतजगा

कुंडली बनी कि जब मुहूर्त पुण्यमय लगा

इसलिए कि दे सके न मृत्यु जन्म को दग़ा

एक दिन पर हुआ, उड़ गया पला सुआ

कुछ न कर सके शगुन, ना काम आ सकी दुआ

और हम डरे-डरे, पीर नयन में भरे

ओढ़कर कफ़न पड़े, मज़ार देखते रहे

चाह थी न किंतु बार-बार देखते रहे

कारवां गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे ।।