शुक्रवार, फ़रवरी 20, 2009

आज फिर शब्द मचल उठे है कागज पर आने को

कैसा है ये जीवन पाया, दुख को पल-पल गले लगाया।
फिर भी रह-रह रोना आया, जीवन क्या है समझ ना आया।
ढूंढा हरदम प्रेम का साया, पर साया भी हमसे घबराया।
बढ़-बढ़ जिसको को गले लगाया उसने ही दामन छुड़वाया।
सच का आंचल थामे रखा, झूठ ने फिर भी मन भरमाया।
मन का निश्छल हास ना भाया, दर्द का रिश्ता काम ना आया।
पीर का दंभ जब सामने आया, खुशी ने अपना सिर है झुकाया।
मृगतृष्णा सी तृष्णा पाई, फिर भी प्यास है बुझ ना पाई।

नारी कब तक रहेगी उपेक्षित

पचमढ़ी में ७० फीट की ऊंचाई से फेंकी गई बच्ची गुड़िया ने एक बार फिर मुझे नारी के अस्तिव पर सोचने के लिए मजबूर कर दिया है।" नारी यत्रत पूजते, रमते तत्र देवता " की संस्कृति पर विश्वास करने वाले इस देश में पल-पल नारी अस्मिता से होता खिलवाड़, निहित स्वार्थो के लिए सामाजिक संस्कार और रीति रिवाजों के नाम पर क्षण भर में उसके स्वप्नों को तोड़ता ये सामाजिक परिवेश, क्या इसकी ही परिणीति नहीं है, गुड़िया का उसकी अपनी मां द्वारा ही परित्याग करने की यह घटना, इससे भी दुखद पहलू है कि एक शिक्षित नारी जब ऐसा कदम उठाने में गुरेज नहीं करती तो, गांव-देहातों की अशिक्षित महिलाएं यदि बेटी होने पर हो हल्ला मचाए तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। इस शिक्षिका मां का ये कृत्य तो सामने आ गया, लेकिन क्या हम जैसी कितनी ही शिक्षित महिलाएं कभी-कभार सोच में ही सही ऐसे कृत्यों को अंजाम नहीं दे चुकी होती है। कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो क्या नारी अपने ही एक अंश के रूप में नारी को जन्म देना किसी दुस्वप्न से कम नहीं मानती, ऐसा नहीं है कि केवल बेटी की शादी और दहेज के पक्ष को देखते हुए महिलाएं ऐसा सोचने पर मजबूर होती है, इसकी प्रमुख वजह है समाज द्वारा नारी को दिया गया परिवेश। हम ऐसे सामाजिक परिवेश में बेटियों के सदियों तक उपेक्षित होने की बात सोच सकते है, जिस परिवेश में पुरूष वर्ग अपमानित करने के लिए भी नारी अस्मत को ही हथियार बनाता है, समाज के ठेकेदार कहलाने वाले लोग बात-बात पर मां- बहन को गालियां और अपशब्द कहकर अपने अहम को तुष्ट करते है, क्यों बात-बात पर लोग बाप-भाई की गाली क्यों नहीं देते। इसके अलावा संचार क्रांति और विकास के इस युग में नारी को अपमानित करने के एमएमएस जैसे हथियार भी नारी की अस्मिता को बेधने के लिए ईजाद कर डाले है। क्या प्रकृति से मिला शारीरिक संरचना का यह उपहार हमें अभिशप्त होने के लिए मजबूर नहीं करता, इसमे हमारा क्या दोष है कि ईश्वर ने हमारी रचना ही जन्मदात्री के रूप में की है। अपने ही घर की चारदीवारी में छोटी-छोटी बच्चियों से होता ब्लात्कार, गली मोहल्ले, कार्यालयों, बसों, ट्रेनों में होते अश्लील इशारे, क्या कोई भी नारी अपने ही नारी अंश को दुनिया में लाकर इस हकीकत से रूबरू कराना चाहेगी ? यह सवाल दुनिया के सृजन के साथ शुरू हुआ है और दुनिया के खत्म होने तक भी इस सवाल का किसी के पास कोई उत्तर नहीं होगा। इस गीत की ये लाइन दोहराते हुए मुझे ना तो शर्म महसूस हो रही है और न ही कोई गिला...
" अगले जन्म मुझे बेटी ना कीजो