रविवार, मई 19, 2013

हां मैं हिरोइन हूं...



बचपन में एक बार मेरी बुआ ने मुझे 'हिरोईनÓ कहा तो मैं ऐसी बिदकी जैसे कि किसी ने मुझे विषैला डंक मार दिया हो, उस छोटे से पहाड़ी कस्बे अल्मोड़ा की आबो हवा में पली एक लड़की के लिए 'हिरोईनÓ का अर्थ शायद उतना ही भद्दा और अभद्र था जैसे कोई गाली। ये उस वक्त की बात है जब शायद मैं 20 वर्ष के उस सुहाने से दौर से गुजर रही थी, जब मन सपनों के आकाश में उड़ान भरा करता था और कल्पना के सागर में गोते लगाया करता था। उस दौर और आज के दौर में हिरोईन का अर्थ मेरे लिए कितना व्यापक हो गया ये मुझे आज एक चैनल पर हिरोईन मूवी के देखते समय हुआ। पत्रकारिता के इस पेशे में रहते हुए उम्र का तीसवे पड़ाव पर मुझे भी अपनी स्थिति उस हिरोईन जैसी ही लगी। हालांकि हिरोईन जैसी सफलता का आकाश तो मैंने नहीं छुआ, लेकिन एक छोटे से कस्बे से आकर दिल्ली -एनसीआर के पत्रकारिता जगत में एक छोटा सी जगह बना ली। पत्रकारिता का जगत फिल्मी दुनिया से ज्यादा अलग नहीं है, बस अंतर इतना ही है कि यहां पर्दे पर अभिनय नहीं होता, वास्तविक अभिनय जरूर होता है, वहीं नैतिक मूल्यों से परे कि प्रतिस्पर्धा। मीडिया हॉउस में विशेषकर प्रिंट मीडिया में सजावटी तौर पर महिलाओं और युवतियों का प्रतिनिधित्व है। यहां भी काबिलियत को कम चिकने चमकते चेहरों पर करियर का ग्र्राफ टिका करता है। शायद यौवन की दहलीज पर पत्रकारिता में कदम रखने के बाद भी मैं ये समझ नहीं पाई थी, क्योंकि ईमानदारी से पत्रकारिता और रिपोर्टिंग का जुनून मेरे सिर पर सवार था, पर उम्र के 36 वें पड़ाव पर मेरा हाल भी हिरोईन फिल्म के किरदार मेघा अरोड़ा की तरह असुरक्षा की भावना से भरा रहता है। लगने लगा है 11 वर्ष इस पेशे में खून पसीना लगा दिया, लेकिन अब भी खाली हाथ और ऐसा एकाकीपन जो शायद कभी खत्म ही न हो। कभी-कभी इस पेशे में आ रही युवा फैशनपरस्त लड़कियों से भी स्वंय को असुरक्षित महसूस करने का भाव। उसमें मेरे अपने पेशे के प्रति मेरा समर्पण भी मुंह चिढ़ाने लगता है।