रविवार, मार्च 21, 2010

कसक



तिनका- तिनका जोड़ कर बनाई गई जिन्दगी, जब धीरे-धीरे टूटती है।
तो उस दर्द का, उस जज्बाज का अहसास बड़ी मुश्किलों भरा होता है।
पल-पल टूटते रिश्तों को जोड़ने की कसक, हर क्षण पास होकर भी दूर होने की तड़प
और भी ना जाने कैसे-कैसे खौफनाक मंजर,दिलों-दिमाग से गुजर  जाते है, लेकिन दिल फिर भी कहता है कि  दोष तो उसका भी ना था और ना ही मेरा कसूर था शायद हर बार की तरह मेरी किस्मत को ये ही मंजूर था।

सिर्फ एक संबोधन ही तो था वो

किसी का दिया गया संबोधन कब आपकी ज़िन्दगी को एक नया मोड़ दे देता है, ये तो ना संबोधन देने वाले को पता होता है और ना ही संबोधन लेने वाले को, लेकिन बस वो स्मृतियों का एक ऐसा मेला आपके साथ जोड़ देता है, जो जीवन में नित नए सन्दर्भों के रूप में सामने आता है। सोनपरी एक ऐसा ही संबोधन है जो कभी अनजाने में ही कुछ इस तरह से जुड़ गया कि उससे दूर होना बेमानी से लगने लगा।
एक थी सोनपरी हरे-भरे पहाड़ों के बीच उसका बचपन बीता था। प्राकृतिक सौंदर्य के सानिध्य ने स्वतः ही उसे भी अपना सा ही निश्चछल और भोला स्वभाव दे दिया। यौवन की दहलीज पर कदम रखते ही सोनपरी का मन भी अनजाने अहसासों से डोलने लगा। उसके जीवन में भी इन अहसासों को नाम देने के लिए एक शख्स आया और सोनपरी उसकी होकर रह गई, लेकिन उसे क्या पता था कि जो शख्स उसके पंखों को कल्पना की नई उड़ान के सपने दिखा रहा है वहीं एक दिन अपनी भावनाओं में सोनपरी को पंखों को जला डालेगा उसे ताउम्र  के लिए  अपाहिज बना डालेगा..आज भी सोनपरी हंसती है, लेकिन उसकी हंसी की वो खनक अब उसके ही कानों को चुभती है और सोनपरी कह उठती है।


कितनी सरलता से अपनी सोनपरी को बहलाते हो तुम और वो मान भी जाती है।
लेकिन कभी सोचा सोनपरी की भी कुछ भावनाएं हैं। उसके पास भी कुछ अपनी मजबूरियां हैं।
तुम्हें ना भूल पाने की मजबूरी..तुम बिन जिंन्दगी को ना जी पाने का डर ...क्या कभी सोचा सोनपरी कैसे जिएगी, पहले रोती थी, निराश होती थी तो मन को समझा लेती थी, कि दूर-दूर तक ऐसा कोई भी नहीं है जो उसके आंसुओं का मोल समझे..फिर वीरान  तपते मैंदानों में बारिश  की बूंदों की तरह तुम आएं और वहीं हुआ जो बारिश के थम  जाने के बाद होता हैं... हां  फिर एक बार  मेरे मन का वीरान तपता मैदान  जीवन की कड़ी धूप में तपने को मजबूर था..तुम सबकुछ जानते थे तो फिर क्यों मुझे सपनों की दुनिया से जोड़ा और मेरी आंखों को सुनहरे सपने दिखाकर तुम खुद ही उन सपनों को रौंद कर चले गए....

और अब हरपल तुझे ढूंढती है मेरी आंखें 
कैसे कंहू कैसे गुजरते है लम्हें , सोचा था मेरे जीवन का खालीपनतुम भर दोगे। मेरे इस सूने जीवन में प्रभात भर दोगे। लेकिन सब मेरे मन की अबोध कल्पना ही थी.. बचपन में जब कोई खिलौना टूटा करता था था, तो नए खिलौने के आने से मन को ढांढस बंधता था। लेकिन अब तो ऐसा भी नहीं है, कैसे समझाऊं मैं इसको..जो मन अब समझने की हद भी पार कर चुका है।

रिश्तों से इतर भी है एक जहां





कब कैसे और कहां मानवीय संवेदनाएं रिश्तों का आकार लेती हैं कोई नहीं जानता , लेकिन रिश्तों से ईतर भी एक दुनियां होती है.जरूरत हैं तो सिर्फ उसे महसूस करने की।

आकाश से कोसों दूर धरती कभी आकाश क रिश्तों में बांधने की नहीं सोचती। बस निष्काम भाव से उससे मिली वर्षा की बूंदों को अपने में आत्मसात कर तृप्त होती हैं।

सागर की सीप भी मोती को रूप देकर उसे आभूषणों में सजने के लिए मुक्त कर देती है कलकलल करती नदियां सागर से मिलकर उसमें विलीन हो जाती है। लेकिन न तो कभी धरती आकाश से मिलकर, सीप मोती से मिलकर और ना ही नदी सागर से मिलकर इस भावना को कोई नाम देने का प्रयास करती हैं।.. तो फिर क्यों ये समाज मानव से हर रिश्ते का एक नाम मांगता है?

क्या दुनियां में हर भावना और अहसास को रिश्ते का नाम देना जरूरी है।

इस दुनियां में आंतरिक संवेदनाओं के लिए क्या कोई स्थान नहीं.. जो यहां हर अहसास और भावना रिश्तों के तराजू में तुलने के लिए बेबस है।

जीवन मोड़ पर बिछड़ा ...

तिनका- तिनका नीड़ बनाया 
उस पर सारा प्रेम लुटाया
फिर एक हवा का अल्हड झोका..जड़ को चेतन..चेतन को जड़ करने आया
नीड़ मेरा थर -थर थराया..उसका तिनका- तिनका बिखरा और मेरा मन ऐसे बिफरा
जैसे जीवन मोड़ पर बिछड़ा ...  


यथार्थ


नन्ही सी एक कली खिली
देख दुनिया की रंगीनियां
कली मुस्काई शरमाई 
सोचकर यही की बन जायेगी 
वो भी एक दिन सुन्दर फूल
मिलेंगे उसे भी नाज़ुक हांथों
के स्पर्श, मन ही मन नन्ही कली सकुचाई 
कली थी अनजान की बसंत के साथ पतझड़ भी आता है
जब -जब सारे पते झड़ जाते है और तब बगीचा ...बगीचा नहीं उजाड़ नज़र आता है
कली यथार्थ के धरातल से टकराई ...फूल बनंने से पहले ही नन्ही कली मुरझाई