सोमवार, सितंबर 15, 2008

कुछ तो लोग कहेंगे

जीवन की धूप-छांव में ना जाने कितनी बार ऐसी परिस्थितयां आती है, जब हम चाहकर भी कुछ नहीं कर पाते, केवल सहन करने और सहने के सिवा हमारे पास कोई दूसरा रास्ता ही नहीं होता....इतनी बेबसी शायद दुनिया से विदा ले रहे इंसान को भी नहीं होती होगी, जितनी की भावनाओं, संवेदनाओं, अपने -पराए के बीच झूल रहे मन को होती है। उसे कुछ खोने का डर भी सता रहा होता है तो एकबारगी को मन वो सबकुछ मानने के लिए तैयार ही नहीं होता जो उसके साथ घट चुका होता है या घट रहा होता है, ऐसे समय में केवल और केवल कुछ अहसास लफ्ज की शक्ल में उतरने को बेताब होते है और हर इंसान शायद कुछ ऐसा ही महसूस करता होगा।
मेरी उस मनोदशा में जो मुझे सूझा वह किसी साहित्यिक कृति के नियमों की परवाह किए बिना कागज पर उतर आया। कुछ ऐसा ही इन शब्दों में मैंने बयां करने की कोशिश भर की है।

" वो राहें कहां से लांऊ, जिनकी मंजिलें होती है...
वो ख्वाब कहां से लांऊ, जिनकी ताबीरें होती है...
वो सब है मंजूर मुझे, जो मेरी तकदीर देती है...
गोया कि यकीं है मुझे, एक रोज वो भी आएगा...
जब गम मुझसे गश खाएगा..."
-----------------------------------------
" बेनूर सी निगाहों में पला था एक ख्वाब....
तस्व्वुरों की रोशनी में चमका था उसका रूवाब...
रूसवाईयों की मजलिस... आंधियों का गुबार....
तन्हाईयों की मंजिल, मेरी जिन्दगी का शबाब...."

10 टिप्‍पणियां:

डॉ .अनुराग ने कहा…

बेनूर सी निगाहों में पला था एक ख्वाब....
तस्व्वुरों की रोशनी में चमका था उसका रूवाब...
रूसवाईयों की मजलिस... आंधियों का गुबार....
तन्हाईयों की मंजिल, मेरी जिन्दगी का शबाब...."


बहुत खूब रचना जी....पर अगली बार इस उदासी की जगह कोई खुशनुमा नज़्म मिले तो अच्छा लगेगा

नीरज गोस्वामी ने कहा…

वो राहें कहां से लांऊ, जिनकी मंजिलें होती है...
वो ख्वाब कहां से लांऊ, जिनकी ताबीरें होती है...
बहुत सुंदर रचना...दिल से लिखी दिल तक पहुँची...
नीरज

सुशील छौक्कर ने कहा…

आप सही कहती है कई बार हम चाह कर भी कुछ नही कर पाते हैं। इस पर मैने कुछ यू लिखा था।

"कभी कभी जिदंगी ऐसा भी वक्त आता है।
खुशी बाहें फैलाये खडी होती और आदमी उसे गले लगा नही पाता है।"


और आपने भी बहुत ही उम्दा लिखा है।

वो राहें कहां से लांऊ, जिनकी मंजिलें होती है
वो ख्वाब कहां से लांऊ, जिनकी ताबीरें होती है

Udan Tashtari ने कहा…

गोया कि यकीं है मुझे, एक रोज वो भी आएगा...
जब गम मुझसे गश खाएगा..."


-एक आशा की झलक!! बढ़िया.

शेष ने कहा…

जिस राह कदम चल दें, मंजिल वही हो जाए,
ताबीरों के डर से क्यों ख्वाब नहीं आए,
मंजूर हमें जो हो, हम लेंगे वही सब कुछ,
गश खाएगा ये गम भी, आएगा वक्त वह भी,
गोया नहीं, यकीनन, बस साथ हो भरोसा।


शबाब-ए-ज़िंदगी है, तनहाइयों की ताकत
गुबार आंधियों का, टकरा के बढ़ा जाए,
रुसवाइयों की मजलिस में झूम लिया जाए,
गर बुझ गया रूवाब, तो सुब्ह भी सामने है
है रोशनी ये दिन की, शामों की जिंदगी है,
है ख्वाब जिंदगी की, बस थाम लिया जाए,
हर ख्वाब निगाहों को पुरनूर ही करती हैं।


पन्नों पर उतरने वाले लफ्ज अगर साहित्यिक नियम-कायदों की परवाह करने लगें, तो शायद साहित्य की मौत ही हो जाए।

अमिताभ भूषण"अनहद" ने कहा…

वो राहें कहां से लांऊ, जिनकी मंजिलें होती है...वो ख्वाब कहां से लांऊ, जिनकी ताबीरें होती है... क्या बात है रचना जी ,बहुत खूब
जिनकी मंजिल नही होती उन राहो पर भी चलने का अपना मजा है .

सचिन श्रीवास्तव ने कहा…

जब तक मुड मुड कर देखती रहेंगी सदा नहीं आएगी... सामने देखिए वो उगा सूरज वो ढली रात... अभी अभी चहचहाई है चिडिया...

राहुल यादव ने कहा…

bahut khoob

राहुल यादव ने कहा…

bahut khoob

राहुल यादव ने कहा…

bahut khoob