कैसा है ये जीवन पाया, दुख को पल-पल गले लगाया।
फिर भी रह-रह रोना आया, जीवन क्या है समझ ना आया।
ढूंढा हरदम प्रेम का साया, पर साया भी हमसे घबराया।
बढ़-बढ़ जिसको को गले लगाया उसने ही दामन छुड़वाया।
सच का आंचल थामे रखा, झूठ ने फिर भी मन भरमाया।
मन का निश्छल हास ना भाया, दर्द का रिश्ता काम ना आया।
पीर का दंभ जब सामने आया, खुशी ने अपना सिर है झुकाया।
मृगतृष्णा सी तृष्णा पाई, फिर भी प्यास है बुझ ना पाई।
8 टिप्पणियां:
पीर का दंभ जब सामने आया, खुशी ने अपना सिर है झुकाया।
मृगतृष्णा सी तृष्णा पाई, फिर भी प्यास है बुझ ना पाई।
--बढ़िया रचना! बधाई.
sach jeevan aisa hi hai,gehre bhav liye khubsurat rachana,bahut hi badhai.
बहुत ही बेहतरीन रचना लिखी है आपने। सच को सच के साथ लिख दिया।
भाव सुंदर.कभी कविता को छंद के बोझ से मुक्त भी होने दें तो शायद और आनंद आए. वैसे आपका नियमित पाठक नहीं हूँ इसलिए मेरा ये निवेदन आपको ग़लत लगे तो अन्यथा न लें.
पीर का दंभ जब सामने आया, खुशी ने अपना सिर है झुकाया।
मृगतृष्णा सी तृष्णा पाई, फिर भी प्यास है बुझ ना पाई।
रचना जी,
बहुत ही सुन्दर.................
HEY PRABHU YEH TERA PATH
http://ombhiksu-ctup.blogspot.com/
बहुत अच्छा...आपकी कविता का शीर्षक बेहद जानदार है...अच्छा लगा...इसलिए कुछ लिखने की इच्छा हुई... बेहद शानदार,,,आपको बहुत बधाई
प्रमोद, आजतक, दिल्ली
pramodpandey.blogspot.com
pramodpandey20@gmail.com
good peom...abhi toh wahin ho na...ya chhor diya...
मेरे लेखन को सरहाने वाले और सुझाव देने वाले सभी साथियों का मैं धन्यवाद करती हूं।
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