बुधवार, सितंबर 23, 2009

हम लांघ गए शायद संतोष की सीमाएं.


गज़ल की ये पंक्तियां मुझे अपने इतने करीब लगी कि मैं आम्रपाली से इसे अपने संग्रह में शामिल करने से खुद को रोक नहीं पाई।



सीनें में धधकती हैं आक्रोष की ज्वालाएं...हम लांघ गए शायद  संतोष की सीमाएं..पग-पग पर प्रतिष्ठित हैं पथभ्रष्ट दुराचारी....इस नक्शे में हम खुद को किस बिन्दु से दर्शाएं....बांसों का घना जंगल, कुछ काम न आएगा, हां खेल दिखाएंगी कुछ अग्नि शलाकाएं...बीरानी बिछा दी है मौसम के बुढ़ापे ने, कुछ गुल न खिला बैठें यौवन की निराशाएं...तस्वीर दिखानी है भारत की तो दिखला दो, कुछ तैरती पतवारें, कुछ डूबती नौकाएं...

2 टिप्‍पणियां:

vinitutpal ने कहा…

bahut khuub.

शशि "सागर" ने कहा…

bahut hee sundar ghazal aapne hamsabon k beech rakhaa