शनिवार, फ़रवरी 20, 2010

शायद फिर मुझे सुकून मिले।

जीवन के उतार चढ़ाव इंसान को इस कदर झकझोर देते है, कि वह अपनी रूचियों, अभिरूचियों से भी कतराने लगता है, लेकिन जब हारकर कुछ नहीं मिलता तो वह इन्हीं में सुकून और नया रास्ता तलाश करने की कोशिश करता है। सर्विस को तिलांजलि देने के बाद मेरे पास भी इन दिनों इतना समय है कि मैं अपने बारे में सोच पाऊं॥ कहते है ना कि इंसान का अकेलापन उसे स्वंय को जानने का बेहतर मौका प्रदान करता है। अपने को जानने की इस प्रकिया में मैंने निश्चय किया कि जीवन के - अबतक के सफर में जब-जब मेरी भावनाओं, संवेदनाओं ने शब्दों की शक्ल इख्तियार की..वह सब में अपने ब्लॉग मित्र के माध्यम से व्यक्त कर दूं। मेरी लेखन की शुरूआत कविता से हुई..याद नहीं कि कब पहली कविता लिखी, लेकिन जब में १० वीं क्लास में थी तो मेरे पिता जी के एक कवि मित्र जिनका अब देहांत हो चुका है के माध्यम से मुझे पता चला कि मैं भी कुछ लिख सकती हूं। उन्हीं के कहने पर मैंने देशभक्ति विषय पर आयोंजित कविता प्रतियोगिता में भाग लिया और सांत्वना पुरस्कार प्राप्त किया। इसके बाद कई कहानियां, कविताएं लिखी॥ लेकिन न वो किसी को दिखा पाई और ना ही संग्रह कर पाई।
जीवन के इस सफर में जो भी अनुभव और महसूस किया कागज पर उतारती चली गई। जो कुछ बच गया उसे अपने ब्लॉग पर प्रस्तुत करने की कोशिश कर रही हूं। शायद फिर मुझे सुकून मिले।
कुछ ऐसे ही अहसासों के साथ शुरू करती हूं।


प्यार परिचय को पहचान बना देता है।
गीत वीराने में गुल खिला देता है।
यह आपबीती कहती हूं, पराई नहीं हूं।
दर्द आदमी को इंसान बना देता है।
राह में मनचाहा मोड़ लिया करती हूं।
हवाओं के झोकों से होड़ लिया करती हूं।
खुशनसीब होने का मैं नकाब ओढ़ लिया करती हूं।
चाहत जब-जब भी करती हूं, फूलों से कि कांटो से रिश्ता जोड़ लिया करती हूं
..........और कुछ इस तरह मैं ज़िंदगी का रूख मोड़ लिया करती हूं।

1 टिप्पणी:

Ravindra ने कहा…

accha likhti hai aap
o