रविवार, अगस्त 31, 2008
हम भी इंसान है... जारी है
२३ अगस्त को रेलवे स्टेशन पर अपने साथ हुए हादसे को भुलाए नहीं भूल पा रही हूं। इस हादसे ने मुझे समाज के हर पहलू पर सोचने को मजबूर कर दिया है। स्टेशन पर एसडीपी-२ ट्रेन के आते ही मैं बदहवाश सी अपने को बचाने के लिए ट्रेन में चढ़ी, लेकिन ट्रेन में चढ़ते-चढ़ते भी मेरी आस ने मेरा दामन नहीं छोड़ा, इसमे एस्कोर्टिंग कर रहे आरपीएसएफ के एक नहीं बल्कि दो जवानों को मैंने मदद के लिए कहा,लेकिन मदद तो दूर उन्होंने मेरी बात सुनने की भी जहमत नहीं उठाई। इस हादसे में लगी चोट के साथ ही मुझे ट्रेन में मेरे बारे में पूछने वाले हर शख्स के शब्द किसी चोट से कम नहीं लग रहे थे, जिस वक्त में उन जंगली पुरूषों के बीच जूझ रही थी, प्लेटफॉर्म पर मौजूद एक भी महिला मेरी मदद को आगे नहीं आई, यही हाल ट्रेन में सवार पुलिस के जवानों का भी था, लेकिन ट्रेन में चढ़ते ही जाने कैसे उन्हें मुझसे इतनी हमदर्दी उमड़ आई। किसी तरह में फरीदाबाद रेलवे स्टेशन से अपने रूम पर पहंची और ताला खोलने के बाद गेट पर ही फफक पड़ी, आंसुओं को तसल्ली होने के बाद मैंने अपने को संभाला और अपने सीनियर जिसके इस आदेश (तुम्हारे काम में कोई टाईम बाउंडेशनस नहीं है) की वजह से मेरे साथ यह हादसा होने की स्थिति बनी थी उसे फोन करके इस संबंध में जानकारी दी, लेकिन अपनी गलती मानने की जगह वह मुझे ही नसीहत देने लगे की तुमने मुझे फोन पर उसी वक्त जानकारी क्यों नहीं दी, इस भले मानस को कौन समझाए की मैं उस वक्त अपना डिफेंस करती या फिर कौन मुझे कैसे छेड़ रहा है, इसकी जानकारी उन्हें लाइव टेलीकास्ट की तरह देती रहती... खैर छोड़िए उसी रात एक दोस्त के कहने मैंने इस घटना के बारे में जानकारी देने के लिए अपने न्यूज चैनल में फोन लगाना शुरू कर सौभाग्य से रिसेपशन पर बैठे सूरज ने मेरी स्थिति को समझते हुए रात में बैठे रिपोर्टर गौरव से मेरी बात कराई, गौरव ने मेरी बात सुनी, लेकिन अभी मैं इस बारे में सीनियर को बता कर कुछ करवाता हूं कहकर मुझे टाल दिया रात सवा १२ बजे तक में गौरव की कॉल का इंतजार करती रही, लेकिन उसका कॉल न आना था ना आया, हारकर मैंने ऑफिस में फिर से फोन किया और सूरज को एक बार फिर अपनी बात बताई, लेकिन कुछ नहीं हुआ। दर्द, अपमान और अपने ही मीडिया साथियों से इस तरह से उपेक्षा पाने पर मैरा मन बुरी तरह आहत हो चला था, लेकिन फिर भी जाने क्यों मेरे अंदर का पत्रकार मन यह सब मानने के लिए तैयार नहीं था। रात एक बजे मैंने अपने आऊटपुट हैड को इस आस से मिस कॉल करी की, शायद हो जगे हो तो मैं उनको कुछ बता संकू, लेकिन मेरा यह प्रयास भी व्यर्थ गया। पूरी रात मैने करवट बदल कर काटी, लेकिन सुबह फिर से ऑउटपुट हैड को कॉल किया, लेकिन उन्होंने फिर फोन नहीं उठाया, हारकर मैंने एक मैसेज उन्हें किया और उस मैसेज के कुछ मिनट्स के बाद मेरे ऑउटपुट हैड का फोन मेरे पास आया और मैंने उन्हें सब बयान कर डाला, उन्होंने मुझसे कहा कि वह ऑफिस जाकर फोन करेंगे, लेकिन उनका फोन तो नहीं आया पर ऑफिस से नगमा का फोन आया और मुझे ये देखकर हैरत हुई की सबसे तेज ब्रेकिंग न्यूज में एक दूसरे से होड़ करता यह इलेक्ट्रोनिक मीडिया न्यूज सेंस और न्यूज की रेलीवेंसी को लेकर कितना उदासीन है। यह लड़की इस घटना के ऊपर पैकेज स्टोरी बनाने की बात करने लगीं, अरे इन्हें कौन समझाए की रेलवे स्टेशनों की सिक्योरिटी को लेकर तो न्यूज कभी भी बन सकती है, लेकिन तत्काल हुई घटना को उससे जोड़ा जाए तो उसका प्रभाव कुछ अलग ही होगा। सिक्योरिटी, समाज और मीडिया सभी के चेहरे इस घटना ने मेरे सामने बेनकाब कर दिए, लेकिन जाने क्यों घटना के तीन दिन बाद ऑउटपुट हैड के दिखने पर मैं उनसे इस बारे में पूछने लगी तो उन्होंने कहा कि वह सारे रेलवे स्टेशनों पर सुऱक्षा पर स्टोरी करवा रहे हैं। घटना आई गई हो गई, लेकिन २९ अगस्त को दोबारा से ऑफिस से प्रभात नाम के एक रिर्पोटर का फोन आया और वह मेरे साथ हुई इस घटना के बारे में पूछने लगा और मुझे भी आशा की एक किरन दिखाई दी, लेकिन मुझे नहीं पता था कि वह केवल औपचारिकता भर कर रहा है, रेलवे मिनिस्टर से अपना अच्छा रसूख होने की बात कहकर जाने यह भी कहां गायब हो गया, लेकिन अपने को महान बनाने की कोशिश में इसने अनजाने में मुझे मीडिया में काम कर रहे लोगों की तुच्छ मानसिकता से परिचय करवा दिया। प्रभात ने मुझे बताया कि मैडम मैं तो फिर भी इस पर स्टोरी कर रहा हूं,लेकिन मेरे कुछ साथियों ने आपके साथ हुई इस घटना पर यह कहकर अपना पल्ला झाड़ा कि अरे वो लड़के उसके ही कोई जानने वाले होंगे, अरे इन बुद्धिजीवियों को कौन समझाए कि मेरे जानने वालों ने मेरे साथ यह हरकत की होती तो मैं खुद ही शर्मिंदा होती और इस बात को शायद किसी से कहती भी नहीं... चलिए बहुत हुआ यह किस्सा, लेकिन क्या कंरू एक्जीक्यूटिव प्रोडयूसर के व्यवहार ने मुझे इस किस्से पर आगे लिखने को मजबूर कर दिया है... इस घटना के बाद मैंने रानी लक्ष्मीबाई की अपनी छवि को त्यागने का निर्णय लिया... और रात साढ़े आठ बजे की जगह ऑफिस से जल्दी निकलने का निर्णय लिया। शाम छह बजे जब मैंने अपने इपी से कहा कि सर मैं जा रही हूं तो वह भलामानस सारी घटना पता होने के बाद भी कहने लगा कि तुम मुझे ऑर्डर दे रही हो या फिर पूछ रही हो। दूसरे दिन भी मेरे जाने को लेकर उनका यही व्यवहार रहा, लेकिन मेरे डॉयरेक्टर के आने से मेरी समस्या का समाधान हो गया और सारी बात जानने के बाद उन्होंने मुझे जल्दी जाने की परमिशन दे दी, लेकिन यह तो कुछ समय की ही राहत थी स्टूडियों में डॉयरेक्टर सर के व्यस्त होने के बाद इपी साहब अपने पुराने व्यवहार पर उतर आए। २९ अगस्त को स्क्रिप्ट में अधिक काम होने की वजह से मैंने उन्हें कहा कि सर मुझे ड्रापिंग मिल जाए तो मैं देर तक काम कर सकती हूं और उन्होंने इसकी हामी भी भर दी, लेकिन शाम साढ़े सात बजे मेरे पास आकर उनका वहीं पुराना रूप सामने आ गया, वह मुझे उसी खौफनाक घटना के समय वाली ट्रेन लेने को कहने लगे, मैंने इंकार कर दिया और उनकी इस हरकत पर उन्हें एक मैसेज भी भेज दिया। मैसेज में अपनी सच्चाई को पढ़कर वो इतना बौखलाए कि मुझे नौकरी से निकल जाने का फरमान सुना डाला.... चलिए अब यह सब खत्म करते है, लेकिन गलत मेरे साथ हुआ और समाज की संकीर्णता के कारण मैं ही गिल्टी फील कर रही थी कि लोग अब रेलवे स्टेशन जाने पर मुझे क्या कहेंगे मैं उनका सामना कैसे करूंगी...क्या भगवान की दी हुई यह शारीरिक संरचना हमारी कोई गलती है, यदि उस दिन मुझे अपने कपड़े फट जाने का डर नहीं होता तो शायद में उन बदमाश लड़कों को मुंहतोड़ जवाब देने की हिम्मत जरूर करती.... खैर इस वाकये ने मुझे इतना तो सीखा दिया की लड़की केवल लड़की है वह एक इंसान नहीं है। .... इसके बाद पत्रकारिता का वह जुनून की न्याय जरूरी है वह मैं भूल गई और मैंने रेलवे के किसी सुऱक्षा अधिकारी से भी इसकी शिकायत ना करने का मन बना लिया, लेकिन इस बीच ओल्ड रेलवे स्टेशन के आरपीएफ इंस्पेक्टर की अपनी पेशे की प्रति कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी मुझे गहरे तक प्रभावित कर गई.... मेरे साथ हुई इस घटना की जानकारी मिलने के बाद उन्होंने मुझे रेलवे के महत्वपूर्ण अधिकारियों के फोन नंबर और फैक्स नंबर भी दिए और भविष्य में ऐसी घटना के लिए मदद तुरंत मिल सके इसके लिए क्या करना चाहिए यह भी बताया, लेकिन शायद मैं भी अपने अन्य मीडिया सहकर्मियों की तरह इस घटना को लेकर उदासीन होने के लिए मजबूर हो गई हूं....
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5 टिप्पणियां:
kya kahun main bhi patrakar hun.aapne sach kaha hai patrakar khaskar tv ke mar rahe aadmi ki story banane par vishwaas karte hai use bachane par nahi,kyonki wo bach jayega to story mar jayegi,unke liye story ka bachna jaruri hai chahe aadmi mar jaye,khari-khari likhane ki himmat ki dad deta hun
Kaun kahta hai ki taare zamin par nahi hote hain?
aur kaun ye kahta hai ki naari insaan nahi hoti?
Aapki aawaaj aur lekhani ne aaj proof kar diya hai ki jo khud ki help karte hain, God bhi unki hi help karta hai.aapke josh aur kharosh ne hi hum logo ko likhne ko mazboor kar diya.Aapki willpower ke samne naman karne ko dil karta hai.
Lakin Media industries mein tathakathit logo ko journalist kahna khud ka apmaan sa lagta hai.Aapke sath jo kuch bhi hua, usko tala ja sakta tha agar aapka organization aapki care karta. lakin jo khud se dare hue hain aur jinhone apne kaale chehre ko chhupane ke liye journalism ko apna nakab bana rakha hai, wo aapki kya help karenge.Unko khud aapke jaise logo ki jaroorat hai jis se unki patrakarita ki dukan chalti rahe. waise bhi aapko kisi ke help ki jaroorat hi nahi hai.Aapne apni daastan ko nahi bataya hai balki aapne un lakhoo mahilaoon ke dard ko bayaan kiya hai jinki aawaj Police aur Media tak kabhi nahi pahuchti hai.
Aap mein sach bolne ki himmat hai. Is himmat ko hawa paani dete rahiye.Qki aane wale samay mein media aur society ko apni izzat bachane ke liye aapke jaise logo ki hi jaroorat padegi.
Dost kaun kahta hai ki aasmaan mein ched nahi ho sakta hai, ek pathar to uchhaloo.
आपका जो दोस्त इस घटना पर स्टोरी करने की मेहरबानी का आश्वासन दे रहा है और उसके जिन बेशर्म दोस्तों ने कहा कि वो लड़के उसे जानने वाले ही होंगे, वे हमारे इसी "महान" परंपराओं वाले देश के स्वयंभू पत्रकार हैं, जो दिन-रात इस गफलत में जीते हैं कि उनकी बांग से ही सूरज उगता है।
भूलना नहीं चाहिए कि हमारे देश की अदालतों ने मथुरा केस से लेकर कई मामलों तक में यह फैसला दे कर इस परंपरा को जिंदा रखने में अपनी महान निभाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है कि अगर किसी महिला के चरित्र पर संदेह हो तो उस पर बलात्कार का मामला खारिज हो सकता है।
पितृसत्ता या मर्दवाद के असली मूल्य यही हैं। अगर और अगर ये असली मर्द हैं तो उसे बनाए रखना उनका कर्तव्य भी तो है- तब तक, जब तक कि खुद इनकी खुद की बेटी, बहन या किसी के साथ ऐसा हादसा नहीं हो जाए। इनकी "मर्दानगी" की असली परीक्षा शायद तभी होगी।
जहां तक सबसे तेज "पत्रकारिता" की इस महान दुनिया से उम्मीद का सवाल है, तो रचना जी, इसे सिर्फ नौकरी समझिए। महीने भर की पगार की एक दुकान पर मेहनत करने की जगह। इससे ज्यादा उम्मीद के चलते ही हम यह वहम पाल लेते हैं कि कम से कम यहां तो ऐसा नहीं होना चाहिए...
लेकिन यहां क्या नहीं होता है। यह आप शायद ज्यादा बेहतर जानती होंगी। कैमरे के पीछे की कालिख नहीं दिखाई देती। जिस दिन दिखाई देने लगेगी, उस दिन पत्रकार होने का दंभ पाले ये लोग कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे।
उम्मीद अगर कहीं बची है तो आप जैसे लोगों की हिम्मत से। आपकी तरह बहुत से लोग लड़ रहे हैं। अपनी ताकत में और इजाफा कीजिए- यह मान कर कि आने वाले दिन आपके लिए और चुनौती भरे हो सकते हैं।
mai pahli bar tippni kar raha hun
indian womens are capable of leading the society in right direction
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