लाख मनाओ, लाख बुलाओ, कहने से कब कोई अपना होता है॥
मन का ये कोई भ्रम है, लेकिन कब क्योंकर कम होता है...
दम साधे जब रिश्ते बुनते, उनको ही रोते-हंसते है,
फिर भी कैसा खेल है जाने रिश्ते ही सुई से चुभते॥
हम मर-मर के जी जाते है, आंसू भी पी जाते है...
स्वप्न सलोना अपनेपन का पल-पल टूट सा जाता है।
नींद से जागा बचपन जैसे, हंसते-हंसते रो पड़ता है।
कोई कहानी कोई लोरी तब फिर है काम ना आती॥
अपनेपन के खालीपन की एक कसक है रह भर जाती।
सूनेपन की ये अंधियारी रात ना जाने कब जाएगी
अपनेपन की सहर जाने फिर कब आएगी।
7 टिप्पणियां:
बहुत खूब।
रचना जी, पंक्तियां बीच-बीच में लड़खड़ा गई हैं. भाव सुंदर हैं, सराहनीय हैं. बधाई.
बहुत उम्दा.
कोई कहानी कोई लोरी तब फिर है काम ना आती॥
अपनेपन के खालीपन की एक कसक है रह भर जाती।
सूनेपन की ये अंधियारी रात ना जाने कब आएगी।
अपनेपन की सहर जाने फिर कब आएगी। दिल को छू गई आपकी रचना
बहुत अच्छा लिखा है आपने
लाजवाब।
aapne bahut hi sundar likha hai.Badhai ho
aapki rachna padkar Aisa Laga ki ----
Aaina dekha to Dil mein uthi kasak hai phir aaj
Lagta hai sahar hone tak rona hoga mujhe phir aaj
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