अमृता प्रीतम की तरफ मेरा झुकाव बचपन से ही रहा है शायद तब से ही जब से उनके लिखे उपन्यासों और कहानियों पर आधारित सीरियल दूरदर्शन पर आया करते थे...तब केवल बस अपनी बुआ से सुनकर मुझे पता रहता था कि वह काफी बड़ी लेखिका है... लेकिन कुछ भी था मात्र १२-१३ साल की उम्र में भी उनका सृजन मुझे अपने जीवन के काफी करीब लगा... और शायद मेरी बुआजी भी इसलिए ही उन्हें पसंद करती थी... धीरे-धीरे पढ़ाई और युवावस्था के भंवर में मेरा ये लगाव कुछ कम हो गया, लेकिन एक बार फिर अमृता प्रीतम ने मेरे मन पर दोबारा से दस्तक दी , शायद सात साल पहले पत्रकारिता का कोर्स करते वक्त दोबारा से मेरी फरीदाबाद वाली बुआ के घर मुझे रसीदी टिकट पढ़ने को मिल गई। एक ही रात में इस किताब को मैं पढ़ गई और इस पर लिखा गीत... घूंट चांदनी पी है हमने... मेरे मन में अंदर तक उतर गया॥ अपनी निजी डायरी में मैंने यह पंक्तियां बड़े ही सुंदर अक्षरों में लिख डाली, लेकिन तब-तक भी इन पंक्तियों का भाव मुझ पूरे अर्थ में समझ नहीं आया या मैंने कोशिश ही नहीं की....लेकिन ठीक सात साल बाद यहीं पंक्तियां पढ़कर लगता है, कि यहीं तो थी मैं... जाने कब से खुद को ढूंढ रही थी॥ बात कुफ्र की है मैंने घूंट चांदनी पी है मैंने...
घूंट चांदनी की पी है हमने...
"पता नहीं, कौन कौन कहां कहां कब कब अपने प्रेम की चादर कम्बल या ओवर कोट पहना कर चला जाता है। कई बार जानते हैं, कई बार नहीं भी। कई बार जानकर भी नहीं जानते और कई बार नहीं जानकर भी जानते हैं...."
अम्बर की एक पाक सुराही ,बादल का एक जाम उठा कर घूंट चांदनी की पी है हमने .बात कुफ्र की की है हमने ...कैसे इसका क़र्ज़ चुकाएं .मांग के मौत के हाथों यह जो ज़िन्दगी ली है हमने .बात कुफ्र की की है हमने अपना इस में कुछ भी नहीं है ,रोजे -अजल से उसकी अमानत उसको वही तो दी है हमने ,बात कुफ्र की की है हमने ....
4 टिप्पणियां:
अजी हमें तो अमृता जी ने ही बिगाड़ा है। जब पढा करते थे तो एक बार इनकी किताब हाथ लग गई। जिसका ऐसा जादू चला कि अपनी पोक्ट मनी से उनकी किताबें खरीद कर पढने लगे। तब तो ये हाल था लाईब्रेरी में जाके ढूढता था उनकी किताबें और जब तक खत्म नही हो जाती थी तब तक पढता रहता था। तब के दिन याद आ गए।
रेणु के शब्दों में अमृता प्रीतम की रचनाओं को हिंदी जगत का तड़बन्ना कहा जा सकता है. ताड़ के पेड़ की ताजा फेनिल ताड़ी. जो पीये, ताड़ की फुनगियों पर पहुंच जाए. अमृता प्रीतम और महादेवी वर्मा को रमेश रंजक की पंक्तियों में बुनें तो इतना भर लगता है.........
गीत में गति बंध नहीं पाती समय की
झूठ है रे!
शब्द पानीदार है तो वृक्ष है छतनार
वर्ना ठूंठ है रे!
तेरा इशक मेने सभाल कर rakha
ऊँचे से ऊँचे अस्थान पर
इतने ऊँचे अस्थान पर
की अब मेरा हाथ वहां नहीं पहुँचता है
ये कैसी हालत है....समझ नहीं पाती हूँ
पुरानी यादें ताजा करवा दीं आपने ।
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