बहुत चाह के भी आज मेरे मन में उमड़ रहे भाव शब्दों की शक्ल लेने से इंकार कर रहे है, लेकिन मेरे अंदर का कवि मन मुझे कह रहा है रचनात्मकता से नाता तोड़ के तू जी नहीं पाएगी। इसलिए जो भी जैसा भी बन पड़े लिखने की कोशिश तो कर ॥ बस फिर यहीं मेरी...
क्या कहें की शब्द कुछ थम से गए है अब॥
आस ही नहीं रही कि अब ज़िन्दगी फिसल गई.
पात-पात सा झर गया जीवन से मधुमास..
स्वप्न ही नहीं, नींद भी हुई उदास॥
हम हैं क्या, क्यों है हम, अहसास भी ये है कम॥
मोड़ पर खड़े रहे हम और राह बढ़ गई...
आंधियों के गुबार में ज़िन्दगी निकल गई॥
शाम हो ..सहर हो..कि अब नहीं रहा असर॥
ज़िन्दागानी के इस सफर में मंजिलें है खो गई॥
सिलसिला ये यूं चला की हाय उम्र ढल गई...
जब तलक उठे हम की रूह भी निकल गई॥
मीत अश्क बन गए और हम जर्द हो गए।
5 टिप्पणियां:
बहुत अच्छा लिखा हैै। जैसा कि शुरू मंे पंक्तियों में आपने कहा है कि खुद को व्यक्त करना ही है आपने व्यक्त किया है। प्रयास बेहतर है। इसे जारी रखिए।
rachna ji ki jai ho rachna ki rachna sunder hai shubh shubh shubakamnaye
मोड़ पर खड़े रहे हम और राह बढ़ गई...
आंधियों के गुबार में ज़िन्दगी निकल गई॥
दिल को दस्तक देती भावपूर्ण पंक्तियाँ !
शुभकामनाएं !!!
आज की आवाज
स्वप्न ही नहीं, नींद भी हुई उदास॥
शायद ये समय ही खराब चल रहा है... हर कोई दुखी है परेशां है... या शायद ये उदासी केवल उनको घेरे हुए है जिनके दिल में संवेदनाएं अभी बाकी हैं....
रचना जी ..आपकी रचना लाजवाब है
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