शुक्रवार, अगस्त 01, 2008

कुछ अपने मन की

ज़िन्दगी कब कैसा मोड़ ले ले इसके बारे में कुछ कहना काफी अप्रत्याशित सा होता है, ऐसा ही कुछ इस साल मेरे साथ भी हुआ। प्रिंट मीडिया की पत्रकारिता से मैं एकदम इलेक्ट्रोनिक मीडिया के चमचमाते और खोखले धरातल पर चली आई। हालांकि अपने पैतृक घर से मीडिया की दुनिया में एक अलग पहचान बनाने की इच्छा लेकर ही में इस व्यवसाय में उतरी थी और मेरे मन के अंदर एक दबी इच्छा भी थी की कभी टीवी स्क्रीन पर में एक फायर ब्रॉड लेडी रिपोर्टर के रूप में दिखाई पंडू, लेकिन जाने क्यों हिन्दुस्तान और नवभारत टाइम्स से जॉब छोड़ने के बाद मुझे इलेक्ट्रोनिक मीडिया में काम करने का जो अवसर मिला वह मैंने केवल मजबूरी में स्वीकार किया। यहां आने के बाद कुछ ऐसे अनुभवों से में रू बरू हुई कि पत्रकारिता के स्वरूप और उसके अस्तिव को लेकर मेरा मन मुझसे ही सवाल करने लगा। कितना अलग था यह मेरे लिए जब मैंने ऐसे किसी इंसान को जिसकी बातों और सिद्धांतो से प्रभावित होकर यहां आने का निर्णय लिया, वहीं मुझे काफी बदला-बदला लगा। जाने क्यों लोग अपनी कहीं हुई बातों को व्यवहार में नही उतार पाते कहते कुछ है करते कुछ है। कितना दुखी होता मन जब उसके दर्पण में बनी कोई छवि चकनाचूर होती है। कहना तो बहुत कुछ है, लेकिन फिर मेरा मन ही मुझे रोक देता है... कहते है ना ज़िन्दगी नियम नहीं मानती...

1 टिप्पणी:

ललितमोहन त्रिवेदी ने कहा…

आपके एहसास को पढ़ कर पर रामावतार त्यागी की दो पंक्तियाँ याद आ रही हैं !
' धोने को पांव कभी जिनकी ऊंचाई के , लायी थी गंगा से लहरों से पावन जल !
मेरी कमजोरी ने नापा तो सिद्ध हुआ , मुझसे भी बौने थे वे मेरे विन्ध्याचल !!'