बुधवार, अगस्त 12, 2009

अन्नदाता ही जहां है मोहताज

अन्नदाता ही जहां खुदकुशी करने पर मजबूर हो, ऐसा देश कब तक विकास पथ पर बढ़ेगा। देश का चहुंमुखी विकास हो रहा है रक्षा, अनुसंधान, तकनीकी सभी तरफ से, लेकिन क्या ये विकास सही अर्थों में विकास है.. नहीं कतई नहीं...कृषि प्रधान इस देश की नियति है मानसून प्रधान कृषि और इस व्यवसाय पर देश की आधी आबादी निर्भर करती है यानि गांवों में बसने वाला किसान हमारा अन्नदाता। जब हमारा अन्नदाता ही केवल कुछ रूपयों के लिए खुदकुशी का रास्ता इख्तियार करें तो इस विकास को क्या कहेंगे आप। हाल ही में यूपी के 70 साल के एक किसान ने केवल इसलिए कीटनाशक पीकर आत्महत्या कर ली कि वह अपनी पोती के ब्याह के लिए लिया गया एक लाख रूपए का कर्जा चुकाने में असमर्थ था.. क्योंकि सूखे के कारण उसके फसल से होने वाली आमदनी खत्म हो गई। यूपी ही क्यों कामोबेश देश के सभी राज्यों में किसानों की यहीं स्थिति है..161 जिलें सूखा प्रभावित घोषित कर दिए गए..और आला हुक्मरानों ने राज्यों द्वारा प्रभावित किसानों को दी जाने वाली डीजल सब्सिडी की 50 प्रतिशत भरपाई करने की घोषणा भी कर दी, लेकिन क्या इससे खुदकुशी करने वाले किसानों के परिवारों कोई राहत मिल पाएगी ये कहना मुश्किल है, क्योंकि ये हमारे देश की विडम्बना है कि यहां मर्ज का इलाज तब शुरू किया जाता है जब वह लाईलाज बन जाता है। क्यों भुखमरी से निपटने के लिए तैयार किए गए राष्ट्रीय ग्रामीण गांरटी योजना जैसे कार्यक्रम सफल नहीं होते, क्यों पहले से ही ऐसे इंतजाम नहीं किए जाते कि हर पेट को अन्न और हर हाथ को काम मिले... क्योंकि ना तो सरकारी तंत्र और न ही हमारी कार्यप्रणाली में ये मुद्दे प्राथमिकता के तौर पर लिए जाते है, हमारे यहां तो एक किसान की मौत से ज्यादा तव्वजो दी जाती है, टेस्ट मैच कहां होंगे, आईपीएल कहां खेला जाएगा, किस खिलाड़ी का मेडिकल टेस्ट कब होगा.. कौन किसान कहां मरा, कैसे मरा इससे हमें क्या लेना-देना.. बीसीसीआई जैसी बड़ी संस्थाएं क्या अपने खजाने में से इस आधी आबादी के लिए कुछ करने का माद्दा नहीं रखती। नहीं.. क्यों सूखे के समय किसानों की आर्थिक दशा सुधारने के लिए ऐसे सुरक्षात्मक इंतजाम नहीं किए जाते जो किसी मंत्री की तबियत खराब होने पर, किसी सेलीब्रेटी को हादसे उबारने के लिए किए जाते है.. अन्न को मोहताज जब अन्नदाता ही होगा, तो फिर ऐसे विकास और प्रगति पर हमें फक्र नहीं बल्कि शर्म आनी चाहिए।

2 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

आम हिन्दुस्तानी आज पाखंड के भीषण दलदल में जी रहा है. रचना जी आपने जितने भी मुद्दे उठाये है मसलन अन्नादत किसान , नारी की समाज में स्थिति और मर्दखोर समाज के अभिशाप अमूमन सभी मुद्दे जटिल कारको से जुड़े हुए है.आम आदमी के पाखंड ने उसकी कथनी और करनी में भरी फर्क ला दिया है.नैतिक मूल्यों का क्षरण और समाज का समय सापेक्ष नहीं बनना ( परिवर्तन का हिमायती)ही उसकी दोगली मानसिकता के लिए दोषी है. अल्व्यं तोफ्फ्लेर की पुस्तक फुतुरे शोक को यदि आम आदमी समझकर आत्मसात करे तब स्थिति पूरी तरह बदल जायेगी. साथ ही रचना जी आपकी शिकायते भी- किशोर दिवसे, पत्रकार , बिलासपुर, छत्तीसगढ़.

सचिन श्रीवास्तव ने कहा…

जब 15 फीसदी लोगों के लिए योजनायें बनेंगी तो नतीजा यही होगा.
खैर बात अछि कही लेकिन भावुकता का कोई अचार नहीं डाला जाता