कब कैसे और कहां मानवीय संवेदनाएं रिश्तों का आकार लेती हैं कोई नहीं जानता , लेकिन रिश्तों से ईतर भी एक दुनियां होती है.जरूरत हैं तो सिर्फ उसे महसूस करने की।
आकाश से कोसों दूर धरती कभी आकाश क रिश्तों में बांधने की नहीं सोचती। बस निष्काम भाव से उससे मिली वर्षा की बूंदों को अपने में आत्मसात कर तृप्त होती हैं।
सागर की सीप भी मोती को रूप देकर उसे आभूषणों में सजने के लिए मुक्त कर देती है कलकलल करती नदियां सागर से मिलकर उसमें विलीन हो जाती है। लेकिन न तो कभी धरती आकाश से मिलकर, सीप मोती से मिलकर और ना ही नदी सागर से मिलकर इस भावना को कोई नाम देने का प्रयास करती हैं।.. तो फिर क्यों ये समाज मानव से हर रिश्ते का एक नाम मांगता है?
क्या दुनियां में हर भावना और अहसास को रिश्ते का नाम देना जरूरी है।
इस दुनियां में आंतरिक संवेदनाओं के लिए क्या कोई स्थान नहीं.. जो यहां हर अहसास और भावना रिश्तों के तराजू में तुलने के लिए बेबस है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें