रविवार, अगस्त 15, 2010

मीडिया भी है लिंग- भेद की बीमारी का शिकार

लिंगभेद की बीमारी से हमारा देश शायद ही कभी ऊबर पाए। दुनिया को आइना दिखाने और चौथे स्तंभ का पर्याय भारतीय मीडिया भी इस बीमारी से बुरी तरह ग्रसित हैं। लिंग भेद पर चैनलों पर जोरदार चर्चाएं और रिपोर्ट पेश करनी हो या अखबारी खबरों में कन्या भ्रूण -हत्या पर विचारोत्तेजक लेख लिखना हो, इन सभी में मीडिया कभी पीछे नहीं रहता, यहां तक की यदि सड़क पर कोई लावारिस नवजात कन्या मिल जाए तो सबको एक चटपटा मसाला मिल जाता है..लिंग भेद और कन्या-भ्रूण हत्या पर चिंता जाहिर करने का..लेकिन महिलाओं की स्थिति पर चिंता करना केवल मीडिया का ढोग ही है, क्योंकि यही मीडिया है जहां महिला पत्रकारों को अपमानित होने के साथ ( कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो) ही और ना जाने कितनी तरह की पक्षपातपूर्ण स्थितियों का सामना करना पड़ता है। मीडिया हॉउस भी अपने संस्थानों में महिला पत्रकारों को केवल सजावटी गुड़िया के तौर पर रखने में ज्यादा दिलचस्पी रखते है। भाषाई और दूर-दराज की महिला पत्रकारों का ही नहीं बल्कि पूरे देश में महिला पत्रकारों को कामोबेश यहीं स्थितियां झेलनी पड़ती है। दूर क्यों जाए मीडिया के गढ़ दिल्ली के आस-पास के इलाकों का भी यहीं हाल है। जहां हिंदी मीडिया के बड़े-बड़े संस्थान अपने -अपने ब्यूरो में महिला रिर्पोटरों की नियुक्ति केवल खानापूर्ति के लिए ही करते हैं। इन संस्थानों में पुरूष पत्रकारों की भर्ती का कोई नॉर्म नहीं है, लेकिन महिलाओं की नियुक्ति के लिए सारे नियम-कायदे है, जैसे की स्टॉफर में एक ही महिला रिर्पोटर की नियुक्ति की जाएगी। दूसरे अगर आई भी तो वो या तो स्ट्रिंगर या फ्रीलांसर के तौर पर आएगी। गोया की वो पत्रकार ना हो कोई सजवाटी सामान हो, जिसे रखना तो है, लेकिन केवल एक निश्चित अनुपात में, ताकि कार्यालय की शोभा में कहीं गड़बड़ी ना हो जाए। एनसीआर में मुश्किल से ही ऐसा कोई संस्थान हो, जिसने अपने ब्यूरो में किसी महिला पत्रकार को चीफ बनाया हो। अरे यहां तो अपने ही साथी पत्रकार महिला पत्रकारों को दोयम दर्जें का साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। यदि महिला पत्रकार कभी किसी धारा 376 का मतलब पूछ ले तो बवाल मच जाता है। कहने लगते है उसे तमीज नहीं है कहां पर कैसे बात की जाती है। यदि किसी महिला पत्रकार कोई संस्थान सीनियर पद लेने के लिए आगे आए तो ये सो कॉलड अपने पत्रकार साथी उसे नीचा दिखाने के लिए ये कहने से भी नहीं चूकते की अरे वो तो ब्रोथल चलाती है, अरे भले मानुषों पत्रकार होकर ये भी नहीं जानते कि ब्रोथल चलाने वाली को पत्रकारिता के चंद रूपयों की क्या जरूरत। चलों ये तो रही अपने पत्रकार साथियों की बात, लेकिन जो मीडिया में उच्च पदों पर आसीन है, क्या उनकी अक्ल पर भी पत्थर पड़े है जो किसी के कहने भर से किसी महिला के चरित्र का अनुमान लगा लेते है। उनमें से कुछ तो ऐसे होते है जो महज महिला पत्रकार की बात सुनने से इसलिए इंकार करते है कि वो महिला पत्रकार अपनी बीट पर न्यूज लेने के लिए उस समय गई जब उस संस्थान से निकाला गया एक अन्य रिर्पोटर भी न्यूज लेने गया था। इस बात पर महिला पत्रकार को नौकरी से ही निकाल दिया जाता है। किसी प्रेस कांफ्रेस में महिला पत्रकार अपने पुरूष साथियों से बढ़कर सवाल पूछ ले तो कहा जाता है कि बहुत बोलती है। किसी की गलत बात पर पलट कर जवाब दे तो उस पर लड़ाकू होने का टैग लगा दिया जाता है और कार्यालय में हो रहे किसी अन्याय का विरोध कर दे तो फिर कहना ही क्या, सारे की सारी पुरूष माननसिकता एक तरफ और महिला की पत्रकारिता एकतरफ। ये लिंग भेद नहीं तो और क्या है, पत्रकार केवल पत्रकार होता है, वो जाति-धर्म और लिंग की सीमा से परे होता है, लेकिन सबसे बुद्धिजीवी वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले पत्रकारिता जगत को कौन समझाए।  

कोई टिप्पणी नहीं: