शनिवार, अगस्त 21, 2010

सेवा का मेवा चाहिए

हम जनता के सेवक है हमे सेवा का मेवा चाहिए, हमारा मेवा नहीं मिला तो हम संसद क्या देश के विकास को भी स्थगित कर सकते है। सबसे बड़े लोकतंत्र में जनता की सेवा के नाम पर देश की कार्यपालिका और व्यवस्थापिका में पैठ बनाने वाले सांसद अगर ऐसी सोच रखेंगे तो एक आम आदमी से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वो देश के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह ईमानदारी से करेंगा।
पूरे देश में जहां बाढ़, सूखा और प्राकृतिक आपदाओं से जनता त्राहि-त्राहि कर रही है, वहीं ये जनता के सेवक अपनी सेलरी को बढ़ाने के लिए संसद जैसे महत्वपूर्ण स्थान को अपने स्वार्थ का अखाड़ा बनाने में माहिर है। संसद के समय की बरबादी करके ये सांसद जनता के पैसों को ही उड़ा रहे और दम भर रहे है कि हम जनप्रतिनिधि है और हमें उचित मानदेय मिलना ही चाहिए। ये सो कॉलड जनप्रतिनिधि अपनी सेलरी को बढ़ाने के लिए तो ऐसे एकजुट हो जाते है कि कैबिनेट से अपनी बात तक मनवा डालते है,लेकिन देश में शिक्षा, स्वास्थ्य, गरीबी जैसे ऐसे कई मुद्दे है जो इनसे ऐसी ही एकजुटता चाहते है, लेकिन वहां ये अलग -अलग राजनीतिक पार्टियों के एंजेट बन जाते है। जब देश में मंहगाई की स्थिति किसी से भी छुपी नहीं है, जब कॉमनवेल्थ गेम्स देश की नाक का सवाल बने हुए हो, जब लेह में प्राकृतिक आपादा से कई लोग तबाही का शिकार हुए हो, जब देश का एक पूरा राज्य सूखाग्रस्त घोषित कर दिया गया हो, जब देश के पूर्वी राज्यों के किसान राष्ट्रपति को पत्र लिखकर इच्छा मृत्यु की इजाजत मांग रहे हो,तब जनता के ये सेवक तीन गुना सेलरी ( 16,000 हजार रुपए से सीधे 50,000)बढ़ाए जाने पर भी इस बात पर आमादा हो कि उनकी सेलरी सरकारी सचिव के बराबर की होनी चाहिए, तो इसे देश और आम जनता का दुर्भाग्य ही कह सकते है। ये सांसद 16 हजार रुपए की सेलरी को कम आंकते है, लेकिन क्या इस सेलरी के साथ मिलने वाले अन्य लाभों,जिनमें मुफ्त फोन सेवा, मुफ्त बिजली,पानी और वाहनों आदि की सुविधा शामिल है, वो क्यों भूल जाते है। ईमानदारी से कहा जाए तो देश की जो स्थिति है उसमें इन सांसदों की 16 हजार रुपए की ये सेलरी भी देश के वित्त मंत्रालय पर आर्थिक बोझ ही है। लाल बत्तियों में घूम-घूमकर केंद्र से राज्य और राज्य से केंद्र के चक्कर के अलावा शायद ही ये कभी काम का मूड बनाते हो। बार-बार ये सांसद विदेशों के सांसदों की तुलना में अपनी सेलरी कम होने का रोना रोते रहते है, लेकिन सिंगापुर, जापान, इटली और यहां तक की यूएस की तुलना में सारी सुविधाएं और सेलरी मिलाकर ये सांसद पालने देश की जनता को काफी मंहगे पड़ते है। फिऱ इन सांसदों और इनके दलों द्वारा किसी भी मुद्दे को लेकर बवाल मचाने में देश का जो नुकसान होता है सो अलग हाल ही में मंहगाई के मुद्दे पर एकजुटता दिखाकर ये जनप्रतिनिधि एक ही दिन में देश को 20 करोड़ रुपए की चपत लगा चुके है। जब देश का आम इंसान भूखे मर रहा हो और गोदामों में अनाज सड़ रहा हो तब भी क्या इनकी विवेकशीलता ऐसे मुद्दे को संसद के विचार पटल पर जोर-शोर से लाने की कोशिश नहीं कर सकती। नहीं लेकिन ऐसा नहीं है यहां तो हाल ये है कि कृषि मंत्री शरद पवार कह दे कि सुप्रीम कोर्ट ने अनाज को बांटने के लिए कोई निर्णय नहीं दिया है और हमारे लिए अनाज बांटना संभव नहीं है, तब क्यों नहीं ये जनता के हितैषी कैबिनेट से गरीबों में अनाज बंटवाने की बात पूरी ताकत के साथ मनवाने को एकजुट होते। नहीं ये ऐसा कतई नहीं करेंगे, क्योंकि हमारे देश में अनाज सड़ तो सकता है, लेकिन भूखे की भूख नहीं मिटा सकता। ये भूखे लोग कोई आंदोलन करके बैठ जाए तो अपने नंबर बनाने के लिए ये सांसद और नेता ही आंदोलन के अगुवा बनने की होड़ लगाने लगते है, लेकिन भूख के भोजन मिले ना मिले इन्हें क्या फर्क पड़ता है। कहा जाता है चैरिटी घर से शुरू होती है, लेकिन हमारे देश का तो हाल ये है पास में नहीं दाने अम्मा चली भुनाने। हमारे देश के विदेश मंत्री कृष्णा जी पाकिस्तान की लाख मना करने पर वहां 24 करोड़ रुपए की सहायता भेजने के कृतसंकल्प नजर आते है, लेकिन अपने ही देश में भूखे मरते लोग उन्हें नहीं दिखाई पड़ते है। मानवीय दृष्टि से पाकिस्तान की मदद करना हमारा कर्तव्य बनता है, लेकिन ऐसी स्थिति में नहीं जब अपनी ही डूबती नैया को सहारे की जरूरत हो। इतना ही मानवीय बनना है तो देश के मानवों के लिए तो संवेदनशील और मानवीय बनकर दिखाओं तो कुछ बात है। इस मुद्दे पर संसद में हो हल्ला नहीं मचाचा इन जनप्रतिनिधियों ने क्योंकि इन्हें तो इनकी रोटी मिल ही रही है। परेशान और हैरान तो केवल आम इंसान है सेवक तो सेवा की मौज ले रहे हैं। ये सबसे बड़ा जनतंत्र है जहां जनता के सेवक ही उसको नोचने-खसोटने में कहीं से कसर नहीं छोड़ रहे, फिर चाहे वो उनकी सेलरी ही क्यों ना हो।

1 टिप्पणी:

वीरेंद्र सिंह ने कहा…

Rachna ji..aapne bilkul sahi baat kahi.

yahi sachhai bhi hai.