अपनी ज़मीं अपना आसमां
गुरुवार, अगस्त 12, 2010
मेरा मन पंछी
छटपटा रहा है मेरा मन पंछी शरीर के पिंजरे में कैद ...
दूर उन्मुक्त गगन में चाहे उड़ जाना...
सामाजिक बंधनों की मोटी सी सलाखें रोके खड़ी है राह..
तोड़ के भी ना टूटे, ऐसी बाधाएं बेजान कर रही है..
पंछी तो मर चुका है पिंजरा ही रह गया।
1 टिप्पणी:
परमजीत सिहँ बाली
ने कहा…
सुन्दर रचना!
13 अगस्त 2010 को 12:32 am बजे
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सुन्दर रचना!
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