शनिवार, अगस्त 21, 2010

मुक्तक

कभी जीवन में ऐसे भी पल आते है जब आप किसी अहसास को कागज पर उतारते चले जाते है, ये पता नहीं होता की वो साहित्यिक दृष्टि से कृति बनने लायक है भी की नहीं, लेकिन बस यूं ही उतर आते है कागज पर। ऐसे ही कुछ
पलों का हिसाब यहां रखने की कोशिश है ये मुक्तक


हमनें सोचा इस अजनबी दुनिया में हम ही अजनबी है, लेकिन ज़िन्दगी की इन बियाबान राहों में तो हमें अजनबियों का शहर मिला... तुम हमारे लिए अजनबी थे, हम तुम्हारे लिए अजनबी थी... फिर भी ना जाने क्या सोच के दिल को सुकू मिला।

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राहें ज़िन्दगी की बहुत लंबी है... राह पे चलने वाले मुसाफिर...रूक ना जाना... थक ना जाना...राह पर चलना, संभलना तो सभी जानते है...गिर के संभल गया जो वो मुसाफिर ही पाएगा राहें ज़िन्दगी की मंजिल


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सब तो समझे है हमको पराया
हुआ ही नहीं है अभी तक कोई हमारा...
सारी सोचें हुई है झूठी और हर जज्बात मर चुका है हमारा।

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 जीवन जीना चाहती हूं, जी भर के...
रहना चाहती हूं, उन्मुक्त गगन की तरह...
घूमना चाहती हूं, विस्तृत धरती की तरह..
हंसना चाहती हूं, एक भोले शिशु की तरह...
सोचना चाहती हूं, गंभीर सागर की तरह...
बस में इतना चाहती हूं।
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अपनी खुशी की तो सब बात करते है...
बाते करें जो दूसरे की खुशियों की...
तन्हा लम्हों में दे दे सहारा...
हमने ते ऐसा सुकू, ऐसा चैन आज तक ना पाया।
कहते गए जो वो करते नहीं बना...
लाख कोशिशों के बाद भी वो हासिल-ए- मंजिल नहीं मिला।




























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