गुरुवार, अगस्त 12, 2010

मेरा मन पंछी

छटपटा रहा है मेरा मन पंछी शरीर के पिंजरे में कैद ...
दूर उन्मुक्त गगन में चाहे उड़ जाना...
सामाजिक बंधनों की मोटी सी सलाखें रोके खड़ी है राह..
तोड़ के भी ना टूटे, ऐसी बाधाएं बेजान कर रही है..
पंछी तो मर चुका है पिंजरा ही रह गया।