उधर दूसरी तरफ निरूपमा की पोस्टमार्टम रिपोर्ट उनके परिवार के दुख,अपमान और क्षोभ की वजह बन जाती है। ये कैसी विडम्बना है कि एक ही समाज और संस्कृति से संबंध रखने वाली स्त्रियों के लिए रास्ते और समाज के कायदे अलग-अलग क्यों...क्यों एक आम अनब्याही मां भी अनुष्का की तरह ही खुश होने का अधिकार पा सकती। क्या ये समाज का दोगलापन नहीं है कि एक अनब्याही मां अपनी इस स्थिति को खुशी से बयां कर सकती है और दूसरी उसी स्थिति के लिए आत्महत्या का रास्ता। निरुपमा के कोख में भी जीवन का एक अंकुर फूट रहा था, लेकिन अपने गर्भ में पल रहे इस नन्हें जीव ने उसे अवसाद और निराशा से भर दिया। अपने कानों में मां सुनने का वह पवित्र और ईश्वरीय अहसास जिसका हर स्त्री अपने जीवन में बड़ी बेसब्री से इंतजार करती है, लेकिन क्यों यह अहसास भी निरुपमा के अंदर जीवन का मोह जगाने में असफल रहा। निरूपमा कोई अनपढ़ और असर्मथ लड़की नहीं थी, बल्कि वह तो अपने को सुधारों और नई सोच का पुरोधा समझने वाले मीडिया जगत का ही एक हिस्सा थी। उसमें इतनी काबिलियत थी कि वह ताउम्र अपने पैरों पर खड़ी रह सके, लेकिन ऐसा क्या था कि इतनी समर्थ होते हुए ज़िन्दगी जीने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। निरुपमा जैसी जाने कितनी लड़कियां इस मनोस्थिति और इस दौर से गुजरती होंगी और निश्चय ही उनके सामने आत्महत्या ही सबसे सरल विकल्प होता होगा, क्योंकि हमारे समाज ने इससे अच्छा विकल्प उनके लिए छोड़ा ही नहीं। यह वही समाज है जहां औरत को मां बनने का अधिकार तो दिया गया है, लेकिन केवल एक स्त्री और इंसान के रूप में नहीं किसी की पत्नी के रूप में। ऐसा समाज और देश जहां कि न्यायपालिका( लगभग एक महीने पहले सुप्रीम कोर्ट ने एक केस के संदर्भ में )निर्णय देती है कि किसी भी स्त्री को मां बनने का पूरा अधिकार है और उससे उसका ये अधिकार कोई नहीं छीन सकता। जो भी स्त्री को उसके इस अधिकार से वंचित करता है या उसका हनन करता है, उसका अपराध अक्षम्य श्रेणी में आता है।
लेकिन हमारा समाज ऐसा अक्षम्य अपराध बार-बार करता है, लेकिन दंड तो दूर हम में से कोई प्रतिरोध करना तो दूर चूं तक नहीं करता। परिणामस्वरूप आए दिन हजारों निरूपमायें आत्महत्या करने को मजबूर होती है, क्योंकि चंहुमुखी विकास और सभ्यता का दावे करने वाला हमारे समाज की सोच में कोई परिवर्तन नहीं आया है और ना ही आने की उम्मीद है। आज भी औरत उसके लिए इंसान नहीं बच्चा पैदा करने की एक मशीन है... सिर्फ और सिर्फ मां नहीं।
इसके लिए जिम्मेदार है हमारा समाज और संस्कृति, जिसके कुछ अनसुलझे और अनसमझे रीति-रिवाज और कायदे-कानून हम सदियों से ढोते चले आ रहे है। यहां महाभारत की कुंती को बिनब्याही मां बनने पर कर्ण को त्यागना पड़ता है, लेकिन यहीं कुंती विवाह के बाद पांडु के संसर्ग के बिना ही किसी भी देवता के समागम से संतान पैदा करने का अधिकार पा लेती है। द्रौपदी पांच पतियों के साथ रह सकती है, लेकिन सीता को अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ता है। राजे-महाराजे अपने हमाम की कई औरतों से संतानोत्पति कर सकते है, लेकिन कोई साम्राज्ञी किसी गैर से प्रेम संबंध बना ले तो उसे मौत के घाट उतार दिया जाता था। इतिहास गवाह है कि हमारा समाज सदियों से इसी लीक पर चल रहा है जहां कभी औरत को इंसान के तौर पर देखने की पंरपरा ही नहीं रही। औरत का बिन ब्याही मां बनना घोर पाप है और वह व्याभिचार की सबसे बड़ी मूरत। किसी भी शारीरिक स्थिति या मापदंडों से ये कैसे साबित होता है कि उसका व्यक्तित्व कलुषित है। अगर शारीरिक स्थिति ही किसी के व्यक्तित्व के चरित्र का आकलन करने का सटीक मापदंड है तो पुरुषों के परिपेक्ष्य में इसे क्यों नहीं लागू किया जाता। समाज में मां बनने का ये खूबसूरत अहसास और मोड़ किसी स्त्री के लिए तभी जायज और पवित्र है। जब कोई उस पर विवाह का ठप्पा लगा दे, अन्यथा अनब्याही मां समाज के लिए एक तुच्छ और पापी इंसान है, जो इस अपराध से तभी मुक्ति पा सकती है जब वह अपनी इहलीला समाप्त कर लें, क्योंकि वह केवल एक मां बन कर समाज में सिर उठा के नहीं जी सकती। अनब्याही औरत ही क्यों भूले से कभी कोई मां अपने बच्चे के लिए जी भी लेती है तो हमारी व्यवस्था उसकी संतान का जीना हराम कर देती है। अनब्याही मां की संतान से आदर और सम्मान के सभी अधिकार स्वतः छीन जाते है, क्योंकि वह केवल अपनी मां के नाम पर समाज में सम्मान नहीं पा सकता। हमारे समाज में अनब्याही मां आत्महत्या के अलावा किसी और रास्ते की तरफ नहीं जा सकती, लेकिन आज तक ऐसा एक भी मामला प्रकाश में नहीं आया, जब कोई अनब्याहा बाप शर्मिंदा हो या उसने मौत को गले लगाया हो। यदि समाज और संस्कृति की नजर से विवाह से पहले स्त्री-पुरूष के लिए शारीरिक संबंध वर्जित है तो इसका दंड केवल औरत क्यों भुगते। क्षणिक आवेश में, किसी के विश्वास पर या धोखे से समाज की इच्छा के विरूद्ध स्त्री-पुरूष में शारीरिक संबंध बनते है तो क्या स्त्री ही इसके लिए दोषी है, संबंध का सहोदर पुरूष क्यों साफ बेदाग बच निकलता है। इस बात का जवाब हमारे- तुम्हारे समाज के पास ना कभी था और ना ही होगा। हकीकत तो ये है कि बिनब्याही मां और एक स्त्री को प्रताड़ित करने का अधिकार गंवाना समाज को गवारा नहीं है,क्योंकि औरत को केवल मां के रूप में स्वीकार करने की उसकी हिम्मत ही नहीं है। यहां तो हालत ये है कि किसी अनब्याही मां बलात्कार की शिकार युवती से विवाह या उसे अपनाने की बात तो दूर हम अपने भाई-बंधुओं के विवाह के लिए कुंवारी कन्या की तलाश में हाथ-पैर मारते फिरते हैं। यहां भी इंसानियत पर शरीर की पवित्रता की मानसिकता हावी है। देखा जाए तो शरीर के अंदर ही इतनी गंदगी भरी है, जिसका हम रोजाना उत्सर्जन ना करे तो शऱीर सड़ जाए। पवित्रता तो आत्मा की, विचारों की, मन की महत्वपूर्ण है, लेकिन यहां तो सब-कुछ शरीर आधारित है। यहां समाज महिलाओं और युवतियों के लिए समाज सभी मापदंड शरीर से शुरू करता है और वहीं से खत्म। गोया कि स्त्री का शरीर कोई मशीन हो, जो एक बार बिगड़ गई या जिसका प्रयोग बलपूर्वक किया गया हो या उसकी स्वेच्छा से, तो उसे कोई दूसरा लेने करने से भी परहेज करेगा। ऐसा नहीं होता तो बलात्कार की शिकार कोई भी स्त्री शर्म महसूस नहीं करती, आत्महत्या की नहीं सोचती। जिस दिन समाज में इतनी शक्ति या हिम्मत आ जाएगी जब बलात्कार पीड़ित युवती बिना किसी हिचक और शर्म के उसका नाम समाज को बता सकेगी और बलात्कारी को इस कृत्य के लिए उस युवती से बिना किसी रिश्ते में बंधे ताउम्र के लिए उसका हर खर्चा और जिम्मेदारी उठानी होगी। जब कोई अनब्याही मां उसे गर्भवती बनाने में सहायक पुरूष या साथी का नाम बिना झिझक खुलेआम बता पाएंगी और उस पुरूष के नाम के बिना ही अपने बच्चे के पालने-पोसने की आजादी हासिल कर पाएगी। तब शायद कोई निरूपमा आत्महत्या नहीं करेगी और ना ही कोई स्त्री बलात्कार का शिकार बनेगी।
1 टिप्पणी:
स्त्री के मनोभाव और उसकी पीडा को बखूबी शब्द चित्र प्रदान किया है आपने, बहुत बहुत साधुवाद
एक टिप्पणी भेजें